यूपी चुनाव का संग्राम

देवेन्द्र शर्मा
देश के सबसे बड़े राज्य यूपी में चुनावी रणभेरी बजने के साथ ही सभी दलों ने अपनी चुनावी तैयारियां शुरू कर दी है। यूपी में मुख्य लड़ाई #भाजपा, #सपा व #बसपा व #कांग्रेस के बीच है हालांकि कांग्रेस की स्थिति यहां काफी खराब है। 2012 में हुए #विधानसभा चुनावों में सपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। यहां उसने 224 सीटों पर विजय हासिल कर सत्ता की चाभी बसपा से हथियाई थी। भाजपा को तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ा था। उसके बाद 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में मोदी की आंधी में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला और विपक्ष का कद उसके सामने बौना सा रह गया था। तबसे मोदी नाम के सहारे भाजपा कई राज्यों में अपनी वैतरणी पार लगा चुकी है। अब जबकि 2017 का विधानसभा चुनाव सामने है तब भाजपा 2014 लोकसभा चुनावों का प्रदर्शन दोहराना चाहेगी। हालांकि 2017 विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत की राह बेहद मुश्किल है। पार्टी की सबसे बड़ी मुश्किल है उसके मजबूत वोट बैंक ब्राह्मण, बनिया व वैश्य जाति का दूसरी पार्टियों को समर्थन करना, जो कि मिलकर प्रदेश की 15 फीसदी आबादी है। यूपी में दलितों को लुभाने के लिए भी पार्टी एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है लेकिन बीजेपी यह अच्छी तरह जानती है कि मायावती से दलित वोट काटना बेहद मुश्किल है। यूपी चुनाव में जातिवाद की राजनीति का बड़ा रोल रहता है, इसलिए पार्टी को मायावती के मजबूत दलित वोट बैंक व सत्तारूढ़ सपा के यादव व मुस्लिम वोट बैंक से टक्कर लेने के लिए सही जातिवादी समीकरण बिठाने की जरूरत है। हालांकि मायावती ने भी इस बार मजबूत दांव खेलते हुए पहले ही कई मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दे दिया है। अगर अब बात सत्तारूढ़ दल सपा की करे तो सपा अपने विकास कार्य के बूते दूसरे सभी दलों से आगे है। अखिलेश सरकार द्वारा कराए गए कामकाज ने प्रदेश की छवि को बदलने का काम किया है। जो लोग इस पर सवाल जवाब करते हैं आखिर में उनकी भी राय अखिलेश के पक्ष में ही होती है। अमूमन सत्ताधारी पार्टियों के खिलाफ विरोध की लहर होती है, लेकिन यदि ध्यान दिया जाए तो अखिलेश यादव के खिलाफ जनता में विरोध का कोई फैक्टर भी काम करता नजर नहीं आ रहा है। इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का जन सरोकारों से जुड़ा काम और बेदाग व बेहद शालीन व्यक्तित्व है। यही वजह है कि विपक्षी भी उनकी तारीफ करते हैं तो कार्यशैली को लेकर उनकी सकारात्मक सोच ने भी उत्तर प्रदेश की जनता में अखिलेश यादव को सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित किया है। नौजवान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सत्ता की बागडोर संभालने के बाद से ही न सिर्फ देश, बल्कि दुनिया भर से आई सलाह का ईमानदारी से पालन किया। वर्तमान में #अखिलेश व #मुलायम गुट में भी इन दिनों ठनी हुई है क्योंकि यहां विचारों का टकराव देखने को मिल रहा है। अखिलेश जहां विकास के दम पर दोबारा सत्ता के काबिज होना चाहते हैं। वहीं मुलायम गुट से शिवपाल बाहुबलियों को टिकट देने पर जोर दे रहे है। विपक्षी दल भी सपा में मचे इस घमासान का पूरा फायदा उठाना चाहेगी। चुनावों की घोषणा होने के साथ ही मायावती जिस तेजी के साथ अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर रही हैं वह इस बात का साफ संकेत है कि वह उम्मीदवारों को ज्यादा से ज्यादा समय दे रही है जिससे वह जनता के बीच जाकर अपनी उम्मीदवारी पक्की करे। वैसे भी बसपा सुप्रीमो मायावती इस बार दलित-मुस्लिम ब्राहमण वोट बैंक के सहारे अपनी चुनावी नैया पार करना चाहती हैं। हालांकि चुनाव से ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने धर्म या जाति के आधार पर वोट ना मांगने का निर्देश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि चुनाव में कोई भी उम्मीदवार, उसका एजेंट या उम्मीदवार की तरफ से कोई और व्यक्ति मतदाता के धर्म, जाति, नस्ल और भाषा का हवाला देकर न वोट मांग सकता है न किसी को वोट देने से रोका जा सकता है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि क्या यह फैसला व्यवहार में अमल लाया जा सकेगा या सिर्फ चुनावों में एक दिशा निर्देश की तरह ही कार्य करेगा।
वर्तमान में अगर सबसे खराब स्थिति किसी की है तो वह #कांग्रेस है। कांग्रेस का अपना वोट बैंक लगातार उसके पास से सरकता जा रहा है। यही नहीं कई चेहरों ने उसका साथ छोड़कर दूसरी पार्टियों का दामन थाम लिया है। कांग्रेस ने भले ही शीला दीक्षित को यूपी में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में पेश किया हो लेकिन उन पर बाहरी होना का ठप्पा जरूर लगा हुआ है। इन्हीं कारणों के चलते रीता बहुगुणा जोशी ने भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया।
खैर जो भी इस बार के यूपी चुनाव पिछले सारे सर्वे को फेल करने वाले होंगे क्योंकि हो ना हो सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के रूप में जनता के सामने दो ऐसे मुद्दे है जो इन चुनावों की रूपरेखा तय करेंगे। हालांकि 1 फरवरी को पेश होने वाला आम बजट भी इसमें बड़ी भूमिका का निर्वाहन करेगा।

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