पुस्तक लोकार्पण संस्कार

 पंडित सुरेश नीरव

किताब से जिसका इतना-सा भी संबंध हो जितना कि एक बच्चे का चूसनी से तो वह समझदार व्यक्ति पुस्तक लोकार्पण के कार्यक्रम से जरूर ही परिचित होगा। भले ही वह इस कार्यक्रम की बारीकियां न जानता हो। यह कार्यक्रम लेखक क्यों करता है और कैसे –कैसे करता है इसकी केमिस्ट्री का उसे भला कैसे ज्ञान हो सकता है। अंधेरे से उजाले की तरफ ले जाने का काम ऑन ड्यूटी तो बिजली विभाग के लोग करते हैं मगर स्वेच्छा से साहित्यकार नामक जीव ही इसे करता है। और जब बिजली का आविष्कार नहीं हुआ था तब तो अंधेरे से उजाले में ले जाने की होलसोल जिम्मेदारी साहित्यकार की ही थी। इस सनातन ड्यूटी को निभाते हुए मैं इस सांस्कृतिक क्रियाकरम पर खूब तेज़ रोशनी डाल रहा हूं। तो पहला फंडा तो ये कि जिस तरह हर बाप को यह गलतफहमी रहती है कि उसका लड़का बड़ा होकर उसका नाम जमानेभर में रोशन कर देगा वैसे ही हर लेखक को भी यह मुगालता रहता है कि उसकी लिखी किताब का लोकार्पण होते ही साहित्य में बाबा तुलसीदास नहीं तो बाबा रामदेव की तरह तो वह यशस्वी हो ही जाएगा। इन्हीं कुलबुलाते हुए विचारों से ओतप्रोत हो वो बौराया-भैराया लोकार्पण की मंडली जुटाने को जान हथेली पर रख कर जुट जाता है। अध्यक्ष इस मंडली का उतना ही महत्वपूर्ण किरदार होता है जितना कि सर्कस में जोकर। यह विचित्र किंतु सत्य जीव चंद मालाओं के लालच में संपूर्ण कार्यक्रम की मूर्खता प्रसन्नतापूर्वक झेल लेने का माद्दा रखता है। और प्रारंभ से अंत तक मंच का सरपंच बना एक मसनद के सहारे जमा रहता है। जैसे मुगल इतिहास में भिश्ती एक दिन के लिए बादशाह बनाया गया था वैसे ही साहित्य के गुमनाम भिश्ती को भी समारोह का अध्यक्ष बना कर साहित्य का घंटाभंगुर बादशाह बनाया जाता है। लोकार्पण मंडली का दूसरा महत्वपूर्ण किरदार संचालक होता है। इस जीव की विशेषता यह होती है कि तमाम नामी-बेनामी साहित्यकारों का चुनिंदामाल जहां वह अपने नाम से धड़ल्ले से सुनाने का अदम्य साहस रखता है वहीं फ्लॉप रचनाकारों का चंद्रवरदाई बनके झूठ के चार बांस पर बैठाकर सेंकड़ों पृथ्वीराज चौहान पैदा करने और मोहम्मदगोरी से भी पारिश्रमिक झटकनें का माद्दा रखता है। इसके बाद लोकार्पण-मंडली के अन्य एक्स्ट्राओं में वक्ता आते हैं जो कि शराब और कबाब की एवज में थोड़ी देर के लिए प्रायोजित झूठ बकने के लिए किराए पर जुटाए जाते हैं। इस सारे सर्कस का खर्चा या तो लेखक खुद उठाता है या फिर इस काम के लिए किसी प्रचारखोर गेंडे को बड़ी सावधानीपूर्वक हांककर आयोजन की बलिवेदी तक समारोहपूर्वक लाया जाता है। एक और जीव इस मंडली में होता है जिसे लोकमानस में मुख्य अतिथि कहा जाता है। यह जीव किसी समारोह के मुख्य अतिथि बनाए जाने की सूचना पर उसी तर्ज पर खुश होता है जिस तर्ज पर कोई किन्नर मुहल्ले में लड़का पैदा होने की सूचना सुनकर होता है। कार्यक्रम के सुनने या लोकमंडली का शो देखने जो लोग आग्रहपूर्पक मंगाए जाते हैं वे भी सिर्फ स्वल्पाहार की स्वादिष्ट सूचना का शुद्ध सम्मान कर के अपना सांस्कृतिक धर्म निभाने ही आते हैं। वरना इनका उस्तक-पुस्तक से क्या लेना-देना। ये तो किताब से दूर बाजार के लंगूर तहजीब के खट्टे अंगूर होते हैं। पोस्ट लोकार्पण सीन भी महासंदिग्ध होता है। आयोजन की सफलता की खुशी में कुछ जलसेजीवी साहित्यकार हंसते-हंसते प्राण त्यागकर भी मरणोपरांत खिलखिलाते रहते हैं। और दूसरी तरफ असफल लोकार्पण के सदमें को झेलनेवाले कुछ लेखक अदम्य हाहाकार के साथ आलोचकों और अखबारवालों की भूरी-भूरी निंदा कर के आजन्म स्यापा करते हुए ही साहित्य के भव सागर से तर पाते हैं। कुल मिलाकर पुस्तक-लोकार्पण समारोह लेखक का ऐसा कपाल क्रिया संस्कार है है,जिसका खर्चे से लेकर बाकी सारे इंतजाम भी लेखक खुद करता है और वह भी खूब हंसते-हंसते। और इस लोकार्पण-संस्कार के बाद पुस्तक भले ही कालजयी न हो पाए पर वह धनक्षयी अवश्य सिद्ध होती है।

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