इस्लामी आतंकवाद दुनिया के लिए चुनौती

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islamic terrorism                मजहबी आतंकवाद की कोख से उभरी चार बड़ी घटनाएं वैश्विक स्तर पर देखने में आई हैं। इसमें पहली घटना आॅस्ट्रलिया के सिडनी शहर में घटी जहां आईएस के आतंकवादी ने एक कैफे में ग्राहकों को कैदी बना लिया था। दहशतगर्दी की शायद यहां यह पहली बड़ी घटना है। दूसरी बड़ी घटना पाकिस्तान के पेशावर में घटी जहां सिरफिरे आतंकवादियों ने 150 स्कूली छात्रों को मौत के घाट उतार दिया। तीसरी घटना भारत की है, जहां मेहदी मसरुर नाम का एक युवा इंजीनियर आईएस की मदद, सोशल मीडिया के जरिए कर रहा था। चौथी घटना, पेरिस की है जहां पुलिस ने जिहाद के नाम पर चलाए जा रहे नेटवर्क को धवस्त करते हुए 10 लोगों को हिरासत में लिया है। तय है,अब कोई देश यह गुमान नहीं कर सकता कि वह अपनी चाक चौबंद सुरक्षा व्यवस्था के चलते आंतकवाद से मुक्त है।

वैसे तो पूरी दुनिया में धार्मिक, जातीय और नस्लीय कट्टरवाद की जड़ें मजबूत हो रही हैं, लेकिन इस्लामिक चरमपंथ की व्यूहरचना जिस नियोजित व सुदृढ़ ढंग से की जा रही है, वह भयावह है। उसमें दूसरे धर्म और संस्कृतियों को अपनाने की बात तो छोडि़ए इस्लाम से ही जुड़े दूसरे समुदायों में वैमनस्य व सत्ता की होड़ इतनी बढ़ गई है कि वे आपस में ही लड़ – मर रहे हैं। शिया, सुन्नी, अहमदिया, कुर्द, रेंगियार मुस्लिम इसी प्रकृति की लड़ाई के पर्याय बने हुए हैं। इस्लामिक ताकतों में कट्टरपंथ बढ़ने के कारण इस स्थिति का निर्माण हुआ है। इसी वजह से खाड़ी के देश इराक सीरिया, ईरान, कुवैत, लीविया, मिश्र, फिलीस्तीन और सउदी अरब में नागरिक विद्रोह इतना शक्तिशाली हो गया है कि इनसे मुकाबला करने या इन्हें अपनी ही मांद में रोके रखने की ताकत इन देशों के वर्तमान शासकों में नहीं रह गई है। अब तक अमेरिका और रुस इन कट्टरपंथियों को गोला-बारुद उपलब्ध कराकर जिस तरह से प्रोत्साहित करते रहे हैं, वे अब तटस्थ दिखाई दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता किसी अंतिम परिणाम तक नहीं पहुंच पा रही है। जाहिर है, हस्तक्षेप की शक्तियां अप्रासंगिक होती चली जा रही हैं।

एक समय इस्लामिक आंतकवाद को बढ़ावा देने का काम रुस, अमेरिका, पाकिस्तान और यूरोप के कुछ देशों ने किया था। जब यही आतंकवाद इन देशों के लिए भी भस्मासुर साबित होने लगा तो ये देश आतंकवाद पर नियंत्रण की इच्छाशक्ति जताने में कमजोर दिखाई पड़ने लगे। इस स्थिति के निर्माण में संयुक्त गणराज्य रूस के विघटन और अमेरिका व ब्रिटेन में हुए आतंकवादी हमलों ने अहम् भूमिका निभाई। एक समय चीन भी पाकिस्तान पराश्रित आतंकवाद को प्रश्रय दे रहा था, किंतु जब अक्टूबर 2011 में चीन के सीक्यांग प्रांत में एक के बाद एक हिंसक वारदातों को आतंकियों ने अंजाम तक पहुंचाया तो चीन के कान खड़े हो गए। लिहाजा उसने पाकिस्तान के कान मरोड़ते हुए चेतावनी दी कि चीन में उत्पात मचाने वाले उग्रवादी पाकिस्तान से प्रशिक्षित हैं, गोया वह इन पर फौरन लगाम लगाए, अन्यथा परिणाम भुगतने को तैयार रहे। ये हमले इस्लामिक मूवमेंट आॅफ ईस्टर्न तुर्किस्तान ने किए थे, जिस पर अलकायदा का बरद्हस्त था। यह पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान में सक्रिय रहकर उग्रवादियों को शिविरों में प्रशिक्षण देने के काम में लगा था। हालांकि अब पाक सेना ने करांची हवाई अड्डे पर हुए आतंकी हमले के बाद वजीरिस्तान में चल रहे आतंकी शिविरों को नियंत्रण में लेते हुए करीब चार सौ आतंकियों को मौत के घाट उतार दिया है। चीन के सीक्यांग राज्य में उईगुर मुस्लिमों की आबादी 37 प्रतिशत है, जो अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते बहुसंख्यक हान समुदाय पर भारी पड़ती है। हान बौद्ध धर्मावलंबी होने के कारण कमोबेश शांतिप्रिय हैं। हालांकि चीन अमेरिका में घटी 9/11 की आतंकी घटना के बावजूद आतंक का पनाहगार बना हुआ था, किंतु वह खुद आतंक का शिकार हुआ तब वह अंतरराष्ट्रिय समुदाय का ध्यान अपनी ओर खींचने को विवश हुआ।

वर्तमान समय में दुनिया के भूगोल में जो अशांति, हिंसा और अस्थिरता अंगड़ाई ले रही है, उसके दो प्रमुख कारण हैं। एक धार्मिक कट्टरपंथ और दूसरे नागरिक विद्रोह। मसलन ज्यादातर देशों में जो लड़ाई दिखाई दे रही है, वह देशों के भीतर का अंतकर्लह है। इसे गृह-युद्ध भी कह सकते हैं। इन देशों में ये हालात अलोकतांत्रिक व धर्म आधारित व्यवस्था के कारण बने हैं। हालांकि इन हालातों के निर्माण की शुरूआत में अमेरिका की अहम भूमिका रही है। अमेरिका ने परमाणु और जैविक हथियारों के बहाने पहले इराक पर हमला बोला और सुखी, संपन्न व अपने बूते समर्थ हो रहे देश को बरबाद कर दिया। अफगानिस्तान, सीरिया और लिबिया में भी यही किया। इन देशों में बाहरी हस्तक्षेप के पहले कमोबेश उदारवादी धर्मनिरपेक्ष सरकारें थीं। जिनकी आंतरिक संरचना को बाहरी हस्तक्षेपों ने पहले तो खत्म किया और जब रिक्त हुए राजनीतिक तंत्र को भरने का अवसर आया तो कट्टरपंथी इस्लामिक शक्तियों को उभारने का काम कर दिया। जबकि इन्हें नियंत्रित करते हुए निर्वाचन के जरिए लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी करने की जरुरत थी। सीरिया, लीबिया और इराक इसी गलत नीति का परिणाम भुगत रहे हैं। नतीजतन ज्यादातर इस्लामिक मध्य-पूर्वी देशों में कट्टरपंथी सरकारों की सेनाएं और नागरिक विद्रोही आपस में लड़ रहे हैं। यही नागरिक विद्रोही आतंकवादी गुट कहला रहे हैं। अमेरिका की तटस्थ भूमिका का अंदाजा लगाने के साथ ही इराक और सीरिया के कुछ हिस्सों में आईएसआईएस जैसे फिर से आक्रामक हो गए हैं। और जिन क्षेत्रों में इन संगठनों ने कब्जा जमा लिया है, उस क्षेत्र को इस्लामिक राज्य बनाने की घोषणा भी कर दी है।

इस चरमपंथ का विस्तार खाड़ी देशों में भी हो सकता है। खाड़ी देशों के शासकों के पास तैल की बिक्री से बेतहाशा आमदनी बढ़ी है। कुवैत और सउदी अरब देशों ने इस आय से अपने देशों को आधुनिकतम व सुविधा-संपन्न बनाया है। लेकिन इसके साथ ही चरमपंथी ताकतों की आर्थिक मदद करके उन्हें उकसाने का काम भी किया है। इस विपुल धन-राशि से चरमपंथी विकसित देशों से आधुनिकतम हथियार खरीदकर अपनी शक्ति में वृद्धि कर रहे हैं। ये विद्रोही कोई और नहीं मुस्लिम समुदाय के ही हैं। दरअसल इराक, सीरिया, ईरान, कुवैत, सउदी अरब देशों में शासक तो शिया हैं, पर यहां की आबादी में सुन्नियों का प्रतिशत ज्यादा है। इसलिए बहुसंख्यक सुन्नी, शियाओं को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं।

आईएसआईएस जिस तरह से इस्लामिक राज्य और शरीयत कानून लागू करने की पैरवी कर रहा है, उसके साथ ही चरमपंथ के सवाल पर वह अलकायदा से भी दो कदम आगे है। ये ताकते लोकतंत्र, पश्चिमी सभ्यता, आधुनिकीकरण और भारत विरोधी हैं। इन्हीं की प्रेरणा से अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन और भारत के कश्मीर में आंतकवादी गुट सक्रिय बने हुए हैं। मिश्र के जन-आंदोलन के पीछे जिस मुस्लिम ब्रदरहुड का हाथ है, उसकी मूल अवधारणा में भी मजहबी संकीर्णता और कट्टरवाद हावी हैं। इसीलिए सभी इस्लामिक देशों में जो अन्य धर्म-समुदाय के लोग हैं, उनके धार्मिक क्रिया-कलापों पर नियंत्रण रहता है और जो इन देशों का बहुसंख्यक समाज है, उसे भी पूरी तरह शरीयत के अनुसार जीवन-यापन के लिए बाध्य किया जा रहा है।

इस समय इजराइल और फिलीस्तीन के इस्लामिक आतंकवादी संगठन ‘हमास’ का संघर्ष चरम पर है। हमास भी सुन्नी मुस्लिमों का गुट है। यह भी अन्य आतंकवादी संगठनों की तरह उन इस्लामी देशों का विरोधी है, जिनके कायदे-कानून शरीयत के अनुसार नहीं हैं। इस्लामी देशों की आंखों में इजराइल हमेशा खटकता रहा है। इजराइल एक यहूदी देश है। इजराइल और फिलीस्तीन दशकों से लड़ते चले आ रहे हैं। ईरान के पूर्व राष्ट्रपति अहमदी नेजाद ने तो सार्वजनिक ऐलान किया था कि इजराइल को विश्व मानचित्र से समाप्त कर देना चाहिए। इजराइल 1948 में स्वतंत्र देश के रुप में अस्तित्व में आया था। तभी से वह मध्य-पूर्व देशों में सक्रिय आतंकी संगठनों की मार झेल रहा है। इनमें हिजबुल्ला, इस्लामी जिहाद और हमास शामिल हैं। इजराइल और इन आतंकी संगठनों के बीच गाजा पट्टी पर संघर्ष जारी रहता है। यह पट्टी 30 मील लंबी और सात मील चैड़ी है। यह दुनिया का सबसे बड़ा खुला इलाका है। ताजा अशांति की वजह, हमास द्वारा इजराइल के नागरिकों को बंधक बना लेना है। इजराइल की कोशिष है कि वह हमास संगठन को नेस्तनाबूद करने के साथ, हमास ने गाजा पट्टी में जो बारुदी सुरंगे बना ली हैं, उन्हें पूरी तरह नष्ट कर दे। इजराइल को इसमें सफलता भी मिल रही है। इस्लामिक देशों से घिरे छोटे से देश इजराइल की हिम्मत को दाद देनी होगी कि वह लगातार संघर्षरत रहते हुए अपना स्वाभिमान बरकरार रखे हुए है और संयुक्त राष्ट्र व अमेरिका के नाजायज दबाव में भी नहीं आता। यही वजह है कि गाजापट्टी क्षेत्र में शांति के प्रयास असफल हो रहे हैं।

पिछले करीब एक साल से यूक्रेन और रुस के बीच संघर्ष छिड़ा है। दरअसल यूक्रेन यूरोपीय देशों का सदस्य बनना चाहता है। रुस इसमें बाधा उत्पन्न कर रहा है। रुस और यूक्रेन के बीच अनेक मानवजन्य समानताएं हैं। बहुसंख्यक रसिया भाषी हैं। यूक्रेन संकट की शुरूआत तब हुई जब यहां के पूर्व राष्ट्रपति यांकोविच यूरोप के साथ राजनीतिक व आर्थिक समझौता करते-करते एकाएक पीछे हट गए और यूक्रेन को बचाने के लिए रुस के राष्ट्रपति ब्लादमिर पुतिन की शरण में आ गए। इस घटनाक्रम के बाद यूक्रेन में आश्चर्यजनक बदलाव देखेने में आए। यूरोप समर्थक लोगों ने विद्रोही तेवर अपना लिए। उनसे मुठभेड़ के लिए रुस-समर्थक भी मुखर हो गए। इस अशांति व अस्थिरता को सुनहरा अवसर मानते हुए पूर्वी यूक्रेन में विद्राहियों ने कब्जा कर लिया। यांकोविच के पलायन के बाद यूक्रेन में यूरोप समर्थकों ने अंतरिम सरकार बना ली। जिसे तुरंत यूरोप ने मान्यता दे दी। किंतु रुस ने मान्यता नहीं दी। इसी संक्रमण काल में यूक्रेन के स्वायत्त राज्य क्रीमिया में जनमत-संग्रह हुआ और उसने रुस के साथ मिलने की सार्वजनिक घोशणा कर दी। अब यूक्रेन के पूर्वी राज्यों में रुसी समर्थक विद्रोहियों के विरुद्ध यूक्रेन की सेना ने मोर्चा खोला हुआ है। जिन्हें रुस गोला-बारुद उपलब्ध करा रहा है। यूरोपीय संघ और अमेरिका आरोप लगा रहे हैं कि मलेशिया के जिस यात्री विमान को यूक्रेन के विद्रोहियों ने मार गिराया हैं, उन्हें मिसाइल रुस ने ही हासिल कराई है।

तय है, दुनिया सुलग रही है और परस्पर लड़ रहे देश राष्ट्र संघ अथवा अन्य महाशक्तियों की बात मानने को तैयार नहीं हैं। जबकि पिछले तीन साल में सीरिया में 1,70000 लोग मरे जा चुके हैं। इराक में आईएसआईएस के हमलों से हजारों लोग मरे हैं और लाखों बेघरवार हुए हैं। दक्षिण सूडान में पिछले एक साल से जातीय हिंसा में सैनिक और विद्रोहियों के हिंसक टकराव में 10,000 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। सोमालिया में भी जातीय हिंसा जारी है। नतीजतन यहां गरीबी और कुपोषण का कहर बेगुनाह लोगों पर टूट रहा है। अफगानिस्तान में अभी भी बड़े क्षेत्र में आतंकवादी सक्रिय हैं। एक आत्मघाती हमले में आंतकियों ने हामिद करजई के भाई को भी मौत के घाट उतार दिया है। समुद्री सीमाओं पर विवाद के चलते चीन पिछले तीन वर्ष से आक्रामक है। जापान, ताईवान, फिलीपींस और भारत से उसका विवाद बरकरार है। विरोध के बावजूद चीन ने कई विवादित समुद्री टापुओं पर कब्जा जमा लिया है। भारत भी कश्मीर में इस्लामी आंतकियांे और बिहार, ओड़ीसा, छत्तीसगढ़ व आंध्रप्रदेश में माओवादी नक्सलियों से जूझ रहा है। कई सरकारें बदलने के बावजूद समस्याओं के समाधान धरातल पर आते दिखाई नहीं दे रहे हैं।

इन ताजा घटनाओं ने तय कर दिया है कि कालांतर में वैश्विक आतंकवाद से जुड़े हालात और खराब होने जा रहे है। क्योंकि अमेरिका, ब्रिटेन व यूरोपीय संघ के देश इस्लामिक विद्रोहियों पर अंकुश लगाने आगे नहीं आ रहे हैं। दूसरी तरफ यूक्रेन और क्रीमिया के मुद्दे पर जिस तरह से पुतिन आक्रामक हुए हैं, उससे लगता है, एक बार फिर रुस वैश्विक पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने को आतुर है। दुनिया में हो रही इस उथल-पुथल से यह भी संकेत मिल रहे हैं कि दुनिया अब एक ध्रुवीय रहने वाली नहीं है। वह बहुध्रुवीय होने की दिशा में आगे बढ़ रही है। लेकिन वैश्विक आतंकवाद के खात्में के लिए उसे एकजुट होकर लड़ाई लड़नी होगी, अन्यथा यह आतंकवाद दुनिया में पैर पसारता रहेगा।

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  1. इतनी बड़ी बड़ी घटनाएँ हो रही हैं.सारी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध आक्रोश व्याप्त है. ऐसे में हमारे मित्र श्री इक़बाल हिंदुस्तानी जी, तनवीर ज़फर साहब और शादाब ज़ाफ़र “शादाब” कहाँ हैं?ISIS के बारे में भी इनके लेखनी खामोश क्यों है?कृपया अपने सारगर्भित विचारों से लाभान्वित करें.

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