राजनीति

कांग्रेस मुक्त भारत की ओर भाजपा

electionप्रमोद भार्गव

महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव परिणाम आ गए हैं। नतीजों से लगता है कि नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का शंखनाद करते हुए विजयश्री का लोकसभा चुनाव के बाद इन दो प्रांतों से जो सिलसिला शुरू किया है वह आगे भी जारी रहने वाला है। हालांकि भाजपा को महाराष्ट्र में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है,लेकिन वह 120 सीटों पर विजर पताका फहराकर सबसे बड़े दल के रूप में उभर आई है। 61 सीटें जीतकर शिवसेना दूसरे बड़े दल के रूप में पेश आई है। यह दोनों दल एक ही वैचारिक मानसिकता के हैं। नहीं भूलना चाहिए कि बाला साहब ठाकरे ने जब 1960 में राजनीति की शुरूआत की थी तब जनसंघ के रूप में भाजपा उनके पीछे थी। और बाद में जब जनसंघ का भाजपा के रूप में कायातंरण हुआ तो भाजपा का शुरूआती गठबंधन शिवसेना से ही हुआ था। अपने-अपने अह्म के खोल से न निकल पाने के कारण यह गठबंधन टूटा। लेकिन मतदाता ने जो संकेत दिए है उससे साफ हो गया है कि महाराष्ट्र में मतदाता इन दोनों दलों को एक रूप में बने रहना देखने की मंशा रखता है।

लगभग नतीजे वही आए हैं,जो मतदान के बाद खबरिया चैनलों के एग्जिट पोलों ने दिखाए थे। हरियाणा में भाजपा बहुमत पाती दिख रही थी,वहीं महाराष्ट्र में सबसे बड़े दल के रूप में भाजपा के उभरने का अनुमान सर्वेक्षणों ने लगाया था। जाहिर है,सर्वेक्षणों ने भी तय कर दिया था कि नरेंद्र मोदी की जय हो के जादू का डंका दोनों राज्यों में धूम मचाएगा। परिणाम के बाद यह हुआ भी।

इन राज्यों में मतदाता अपनी नई सरकार तो चुन ही रहे हैं,साथ ही वह यह संदेश भी दे दिया है कि भविष्य में देश की राजनीति की दिशा क्या होनी चाहिए। मेंडेट से जाहिर हुआ है कि जनता भ्रष्ट,कुशासन,परिवारवाद और अतिवाद से पीछा छुड़ाने को उत्सुक है। हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और ओमप्रकाश चौटाला निर्लज्ज कारनामों के ऐसे ही प्रतीक बन गए हैं। हुडा ने वाडरा जमीन घोटाले में जो प्रशासनिक निर्लज्जता दिखाई और चौटाला परिवार ने शिक्षक भर्ती घोटाले में मनमानी कि उसका सबक मतदाता ने इस चुनाव में दे दिया है। महाराष्ट्र में राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नव निर्माण सेना को हाशिये पर धकेल कर मतदाता ने जता दिया है कि उग्रवादी तेवर उसे पसंद नहीं है। हुड्डा और चौटाला जैसा सबक महाराष्ट्र में मतदाता ने कांग्रेस और राष्ट्रिय कांग्रेस पार्टी को दिया है। शरद पवार को अपना गढ़ पश्चिमी महाराष्ट्र भी बचाना मुश्किल हो गया। ऐसा लगता है कि भविष्य में पवार करिष्माई नेतृत्व नहीं दिखा पाते है तो उनकी यह आखिरी पारी होगी।

दरअसल इन दोनों राज्यों में ये चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण थे,क्योंकि भाजपा ने एक तो महाराष्ट्र में शिवसेना से अपना 35 साल पुराना गठबंधन तोड़कर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा था और इसी तर्ज पर कांग्रेस और राष्ट्रिय कांग्रेस पार्टी ने 25 साल पुराना गठबंधन तोड़कर स्वतंत्र रास्ते अपना लिए थे। इसीलिए ये चुनाव एक ही विचारधारा के दलों के बीच नई किस्म की तैयार हुई राजनीतिक पृष्ठभूमि पर लड़े जा रहे थे। महाराष्ट्र में कई दशकों के बाद ये ऐसे चुनाव भी थे,जो बाल ठाकरे की गैर मौजूदगी में लड़े गए। बाल ठाकरे मातुश्री में बैठे रहकर रिमोट से महाराष्ट्र की राजनीति को नियंत्रित व निर्देशित करते थे। बाल ठाकरे ने जिंदा रहते हुए नरेंद्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में सामने रखकर लोकसभा चुनाव लड़ने को राजग गठबंधन से कहा था। ऐसी ही कुछ वजहों के कारण नरेंद्र मोदी ने उनके प्रति चुनाव रेलियों में सम्मान व कृतज्ञता का ख्याल रखते हुए उन पर कोई कटक्ष नहीं किया। बाल ठाकरे होते तो शायद गठबंधन टूटता ही नहीं।

भाजपा ने एक हद तक एकला चलो की नीति लोकसभा चुनाव परिणामों का आंकलन करके अपनाई थी। जिस पर वह महाराष्ट्र में खरी नहीं उतर पाई। भाजपा को हरियाणा में 10 में से 8 लोकसभा सीटों पर जीत मिली थी। नतीजों की पड़ताल करने से पता चला कि भाजपा 90 विधानसभा सीटों में से 52 पर आगे रही थी। जबकि कांग्रेस 15 और भारतीय राष्ट्रिय लोकदल महज 16 सीटों पर आगे था। इस आकलन से उसका माथा ठनका और उसने हजकां से तीन साल,इनेलो से तीस साल और अकाली दल से 35 साल पुरानी गाठें खोलकर स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा। जबकि पांच माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में इन तीनों दलों से भाजपा का गठबंधन था। पंजाब में तो अभी भी अकाली दल और भाजपा की मिली-जुली सरकार है। अब ऐसा लागता है कि अकाली और भाजपा का गठबंधन हिचकोले खा रहा है जो पंजाब के अगले विधानसभा चुनाव में टूट जाएगा।

जाहिर है,भाजपा के नीति-नियामकों ने अनुमान लगा लिया था कि बहुकोणीय मुकाबले में वह लाभ में रहेगी। उसे मोदी के चहरे और केंद्रीय सत्ता में होने का लाभ मिलेगा। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा एक तो लगातार 10 साल से हरियाणा की सत्ता पर काबिज थे,दूसरे हुड्डा की प्रवृत्ति रही है कि वे अपनी कार्यशैली में किसी और का दखल पसंद नहीं करते। इसी कारण राव इंदरजीत सिंह लोकसभा चुनाव के समय उनसे अलग हो गए थे। उनके निकटतम रिश्तेदार वीरेंद्र सिंह की पत्नी प्रेमलाता भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ीं और जीत भी गई। हरियाणा की प्रमुख महिला नेत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री रहीं कुमारी शैलजा को भी वह घास नहीं डालते। तिस पर भी सत्ता में होने के कारण एंटी इनकमबेंसी अपनी जगह कायम थी। सोनिया के दामाद राॅर्बट वाडरा का जमीन घोटाला का खमियाजा भी हुड्डा को भुगतना पड़ा। हालांकि हुड्डा ने कुछ ऐसी वजहों से बचने के नजरिए से सेनिया और राहुल गांधी को बैनर-पोस्टरों में जगह नहीं दी थी। बावजूद हरियाणा के युवा मतदाता मोदी के जादू से इतने सम्मोहित थे कि वे बड़ी संख्या में हरियाणा के जाट मतदताओं को कमल निशान की ओर खींच ले गए।

भाजपा के लिए हरियाणा जैसे ही हालत महाराष्ट्र में भी थे। लोकसभा चुनाव में वहां उसने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 24 लोकसभा सीटों में से 23 पर विजयश्री दर्ज कराई थी। जबकि शिवसेना 18 पर विजयी रही थी। लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद जो सर्वे आए थे,उनमें माना गया था कि भाजपा-शिवसेना गठबंधन को 18 फीसदी वोट मतदाताओं ने केवल नरेंद्र मोदी का चेहरा देखकर दिए थे। लेकिन अब नतीजे आने के बाद साफ हो गया है कि मतदाता भाजपा और शिवसेना को साथ-साथ देखना चाहता था। यहां गठबंधन टूटने के बाद यह खतरा महसूस हो रहा था कि मत विभाजन का दंस भाजपा-शिवसेना को झेलना पड़ सकता है। लेकिन दोनों दल इस मत विभाजन से बच गए। यदि गठबंधन के रूप में ये चुनाव लड़ते तो दौ सौ सीटों से भी ज्यादा सीटें जीतकर कांग्रेस और राकांपा को हाशिये पर डाल देते। क्योंकि दोनों ही दल एक ही रूझान के होने के साथ संस्कृति और कार्यशैली की दुश्टि से भी कमोवेष एकमेव हैं। दोनों उग्र हिंदुत्व और राष्ट्रिय सांस्कृतिक एकात्मवाद के पक्षधर हैं। लेकिन शिवसेना का ही मुख्यमंत्री होने और भाजपा को केवल 105 सीटें देने के हठ के चलते यह गठबंधन टूटा। अब भाजपा 120 सीटें जीतकर महाराष्ट्र में सबसे बड़े दल के रूप में है। तय है,अंततः भाजपा फायदे में रही,लेकिन बहुमत में न होने के कारण सरकार बनाने के लिए गठबंधन की मजबूरी का हाथ उसे शिवसेना की ओर तरफ बढ़ाना पड़ेगा।

हालांकि महाराष्ट्र में भाजपा के पास नेतृत्व का बड़ा संकट था। उसके पास ऐसा कोई चेहरा नहीं था,जिसे वह बतौर मुख्यमंत्री पेश करती। उसके पास मजबूत सांगठनिक ढ़ाचा भी नहीं था। उसके साथ हरियाणा में यही स्थिति बनी हुई थी। लेकिन मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने इस अभाव को एक अवसर की तरह भुनाने का काम किया। दोनों राज्यों में मोदी का चेहरा सामने रखकर धुंआधार प्रचार शुरू कर दिया। अकेले मोदी ने दोनों राज्यों में 38 चुनाभी सभाएं करके सभी विरोधी दलों के हौसले पस्त कर दिए। नतीजतन कांग्रेस,राकांपा और महाराष्ट्र नव निर्माण सेना को सम्मानजनक स्थिति बहाल रखना भी मुश्किल हो गया। जाहिर है,शिवसेना समेत चारों दल मोदी के विकासवादी मुद्दे के बरक्ष कोई मजबूत मुद्दा खड़ा करने में नाकाम रहे। लिहाजा घूम-फिरकर चारों दल बासी पड़ चुके मराठी अस्मिता के मुद्दे पर लौट आए। नतीजतन मोदी की जीत का रास्ता विरोधी दलों ने ही साफ कर दिया था। इन चुनावों के बाद अब भाजपा को बड़ी चुनौती जम्मू-कश्मीर राज्य में पेश आनी है। जहां 21 जनवरी 2015 से पहले विधानसभा के चुनाव होने हैं। यदि मोदी का जादू यहां चल गया तो फिर मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की ओर बढ़ते दिखाई देंगे।

 

 

 

प्रमोद भार्गव