रामसेतु के लौटेंगे अच्छे दिन

प्रमोद भार्गव

देश की ही नहीं दुनिया की सबसे प्राचीन मानव निर्मित धरोहरों में से एक रामसेतु के अच्छे दिन लौटते लग रहे हैं। वरना मनमोहन सिंह सरकार तो इसे समुद्री मार्ग के लिए तोड़ने पर ही आमदा थी। अब केंद्रीय सड़क परिवहन एवं जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी ने विशेषज्ञों की राय के बाद इसे नहीं तोड़ने का ऐलान कर दिया है। भारतीय महासागर में जहाजों के मार्ग की दूरी कम करने और यात्रा निर्बाध बनाने की दृष्टि से सेतू-समुद्रम परियोजना का वैकल्पिक रास्ता खोज लिया है। यह मार्ग अब पम्बन से गुजरेगा। केंद्रीय मंत्रीमण्डल की मंजूरी के बाद इस मार्ग का प्रस्ताव अनुमोदन के लिए सर्वोच्च न्यायालय को भेजा जाएगा। 2400 करोड़ की यह महत्वाकांक्षी परियोजना पिछली सरकार की ढुल-मूल स्थिति के कारण करीब एक दशक से भी ज्यादा समय से लटकी हुई है।

इस परियोजना का उद्देश्य रामसेतु के बीच से मार्ग बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में जहाजों की आवाजाही के लिए रास्ता बनाना है। यह रास्ता नौवहन मार्ग (नाॅटिकल मील) 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किमी लंबा होगा। यह परियोजना यदि पूर्व रूप में आकर लेती तो पौराणिक काल में अस्तित्व में आए रामसेतु का टूटना तय था। साथ ही करोड़ों मछुआरों की आजिविका प्रभावित होती और बड़े पैमाने पर समूद्री क्षेत्र का पर्यावरण नष्ट हो जाता। बावजूद पूर्व संप्रग सरकार ने सेतु-समुद्रम परियोजना के सिलसिले में उच्चतम न्यायालय में शपथपत्र देकर दलील दे दी थी कि एडम् ब्रिज अर्थात् रामसेतु हिंदू धर्म का आवश्यक हिस्सा नही है इसलिए इसे तोड़कर बनाए जाने में हिंदू धर्मांवलंबियों की आस्था आहत नही होगी। यह शपथपत्र हिंदुओं की ही नहीं,भारत की सांस्कृतिक विरासत के साथ खिलवाड़ था। भगवान राम हिंदुओं की ही नहीं भारत की पहचान है।

रामसेतु क्षेत्र का समुद्र प्राकृतिक संपदा का अथाह भण्डार होने के कारण लाखों मछुआरों की रोटी और समुद्री जल-जीवों की जैविक विविधता से भी जुड़ा है। इसलिए सेतु समुद्रम परियोजना को कुछ नाॅटिकल मील घट जाने और ईंधन की बचत की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। आर्थिक उदारीकरण के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समुद्र के दोहन की छूट देकर मछुआरों की आर्थिक स्वतंत्रता छीनी गई और और बाद में पर्यावरणीय हलचल पैदा करके मछुआरों के जीवन का आधार ही उनसे छीनने की तैयारी पूर्व केंद्र सरकार ने कर ली थी। आस्था और व्यापार के वनस्बित रोटी और पर्यावरण की चिंता बड़ी और महत्वपूर्ण होती है। हालांकि दुनिया के किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा कि उसने अपनी पुरातन व पुरातत्वीय महत्व के विशाल और अनूठे स्मारक को तोड़कर कोई रास्ता बनाया हो ? यही नहीं संप्रग सरकार ने आर.के. पचौरी की रिपोर्ट भी खारिज कर दी थी। शीर्ष न्यायालय के निर्देश पर पचौरी ने इस पुल को धार्मिक आस्था, पुरातत्वीय स्मारक, आजीविका के संसाधन और पर्यावरण के महत्व से जोड़कर इसके संरक्षण की सिफारिश की थी,लेकिन सरकार ने इन सभी जरूरतों को शपथ-पत्र में दरकिनार कर दिया था।

तमिलनाडू की मन्नार खाड़ी से पाक जलडमरूमध्य के बीच 5 जिलों में 138 गांव, कस्बे व नगर ऐसे हैं जिनकी बहुसंख्यक आबादी समुद्री जल-जीव व अन्य प्राकृतिक संपदा पर आश्रित है। इस तटवर्तीय क्षेत्र की 50 प्रतिशत आबादी कर्ज में डूबी है। ऐसे में सेतु-समुद्रम परियोजना पूर्व स्थिति में अस्तित्व में लाई जाती तो इस क्षेत्र की पूरी आबादी का   आर्थिक व सामाजिक ताना-बाना ही टूट जाता।

भारतीय समुद्र की तटवर्ती पट्टी 5 हजार 660 किमी लंबी है। गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडू, पश्चिमबंगाल,गोवा राज्यों और केंद्र शासित राज्य पांडिचेरी, लक्षद्वीप तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के तहत विशाल तटवर्ती क्षेत्र फैले हैं। रामसेतु की विवादित धरोहर रामेश्वरम् को श्रीलंका के जाफना द्वीप से जोड़ती है। यह मन्नार की खाड़ी में स्थित है। यहीं जो रेत, पत्थर और चूने की दीवार सी 30 किमी लंबी पारनुमा सरंचना है, उसे ही रामसेतु का अवशेष माना जाता है। अमेरिका की विज्ञान संस्था नासा ने इस पुल के उपग्रह से चित्र लेकर अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मानव निर्मित यह पुल दुनिया की सबसे पुरानी सेतु संरचना है। इस नाते भी राम ने यदि इस सेतु का निर्माण नहीं भी किया है तो भी इस धरोहर को सुरक्षित रखने की जरूरत थी।

हालांकि बाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण और अग्नि पुराण में इस सेतु के निर्माण और इसके ऊपर से लंका जाने के विवरण हैं। इन ग्रंथों के अनुसार राम और उनके खोजी दल ने रामेश्वरम् से मन्नार तक जाने के लिए वह मार्ग खोजा जो अपेक्षाकृत सुगम होने के साथ रामेश्वरम् के निकट था। जहां से राम व उनकी बांनर सेना ने उपलब्ध सभी 65 रामायणों के अनुसार लंका के लिए कूच किया था। माना जाता है कि 500 साल पहले तक यहां पानी इतना कम था कि मन्नार और रामेश्वरम् के बीच लोग सेतुनुमा टापूओं से होते हुए पैदल ही आया-जाया करते थे। वैसे इस क्षेत्र में ऐसे कम दबाव व भार वाले पत्थर भी पाए जाते हैं, जो पानी में नहीं डूबते। नल और नील ने जिन पत्थरों का उपयोग सेतु निर्माण में किया, था शायद ये उन्हीं पत्थरों के अवशेष हों, जो आज भी धार्मिक स्थलों पर देखने को मिल जाते हैं। इन सब साक्ष्यों के आधार पर इसके संरक्षण के लिए जनहित याचिकाएं शीर्ष न्यायालय में दायर की गईं थीं,जिससे इस सेतु को हानि न हो। तमिलनाडू की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता ने इस परियोजना को रोकने का प्रस्ताव लाकर इस सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग तक केंद्र सरकार से की थी। रामसेतु प्राचीन स्थापत्य कला का अनूठा नमूना है,इस दृष्टि से भी इसका सरंक्षण जरूरी है। साथ ही, जैव संसाधनों की दृष्टि से विश्व बाजार में इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा समृद्ध क्षेत्र माना जाता है। इसकी जैविक और पारिस्थिकी विलक्षणता के चलते ही इसे ‘जैव मण्डल आरक्षित क्षेत्र’ संयुक्त राष्ट ने घोषित किया हुआ है।

इस क्षेत्र का रामसेतु के बहाने पुरातत्वीय दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है। मोती के लिए प्रसिद्ध रहा यह क्षेत्र शंख के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। दरअसल मन्नार की खाड़ी राष्ट्रीय अंतराष्ट्रीय महत्व की एक जीवित प्रयोगशाला है। यहां लगभग 3700 प्रकार के जीव व वनस्पतियों की जीवंत हलचल है। जिसमें कछुओं की 17 प्रजातियां हैं। मूंगे की 117 किस्में हैं। इस क्षेत्र मंे पाए जाने वाला दुर्लभ मैंग्रोव वृक्ष कार्बन डाइ आॅक्साइड का शोषण कर बढ़ते तापमान को कम करता है। यह वृक्ष समुद्री तूफान की तीव्रता को भी रोकता है। यहां बड़ी मात्रा में प्रबाल (शैवाल) भित्ति भी हैं। इसी विविधता के कारण भारत को जैविक दृष्टि से दुनिया में संपन्नतम समुद्री क्षेत्र माना जाता है।

समुद्र में उपलब्ध शैवाल (काई) भी एक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है। शैवाल में प्रोटीन की मात्रा ज्यादा होती है। लेकिन इसे खाने लायक बनाए जाने की तकनीकों का विकास हम ठीक ढंग से अब तक नहीं कर पाए हैं। लिहाजा इसे खाद्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाए तो परंपरागत शाकाहारी लोग भी इसे आसानी से खाने लगेंगे। शैवाल में अच्छे किस्म की चाॅकलेट से कहीं ज्यादा ऊर्जा होती है। आयुर्वेद औषधियों तथा आयोडीन जैसे महत्वपूण तत्व भी इसमें होते हैं। गोया,सेतु समुद्रम परियोजना का वैकल्पिक मार्ग नहीं खोजा जाता तो यह शैवाल भित्ति प्रणाली भी नष्ट हो जाती। ये शैवाल भित्तियां उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में न केवल खाद्य संसाधनों, बल्कि जैव रासायनिक प्रक्रियाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हंै। तटीय क्षेत्रों मे ंये लहरों का अवरोध बनकर, कटाव को बाधित करती हंै। 750 प्रकार की मछलियों के आहार व प्रजनन का भी यही काई प्रमुख साधन है।

सुनामी कहर के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ और भरत सरकार के सलाहकार डाॅ. मूर्ति के अनुसार 26 दिसंबर 2004 को आए सुनामी तूफान के दौरान रामसेतु देश के दक्षिण हिस्से के लिए सुरक्षा कवच साबित हुआ था। इस अवरोध के परिणामस्वरूप सुनामी लहरों की प्रबलता शिथिल हुई और केरल सहित दक्षिणी इलाके भारी तबाही से बचे रहे। इस परियोजना के पूर्ण होने के बाद यदि फिर सुनामी लहरें उफनती हैं तो रामसेतु के अभाव मे लहरें बड़ी तबाही का कारण बन सकती हैं। ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है तो वैज्ञानिक व पर्यावरणविदों का मानना है कि इस क्षेत्र मे पाए जाने वाले थोरियम के बड़े भण्डार नष्ट हो जाएंगे। विश्व का 30 प्रतिशत थोरियम भारत में ही मिलता है। जो यूरेनियम बनाने के काम आता है।

इस परियोजना पर अब तक 832 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैैं। अब नए प्रस्ताव के अनुसार पम्बन सेतु के नीचे समुद्री तल को गहरा करके नया मार्ग बनाया जाएगा। यहां कैंटिलीवर खोलने के बाद बड़े से बड़े जहाज भी आसानी से आर-पार हो जाएंगे। राम सेतु को बचाने का वायदा भाजपा के घोषणा पत्र में भी किया गया था। भाजपा इसे सांस्कृतिक विरासत के साथ इस क्षेत्र में थोरियम के भंडार होने के कारण इसे सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण मानती है। लिहाजा मोदी सरकार रामसेतु को बचा लेती है तो वह अपना एक वायदा भी पूरा कर लेगी।

 

प्रमोद भार्गव

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