फर्क

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फर्क
कितना देखा है मैंने
अपने जीवन में
बार बार आते हुए बसंत में भी
बार बार आम के वृक्षों में भी
जब यह मँजरियों से ओत-प्रोत
हुआ दिखते थे
खिलखिलाते फूलों में भी
रोज रोज का फर्क देखा
सूरज, चांद, तारे और हवाओं में भी
हर क्षण यह फर्क देखा-
वह फर्क
जीवन जीने का फर्क था
गहरे लगाव और आत्मीयता का
फर्क भी था
मैंने फर्क-
बादलों में भी देखा
और इंद्रधनुष में भी-
फर्क का रूप
रोज- रोज बदलता रहा
घर- बाजार ,स्कूल, कॉलेज, रेलवे स्टेशन, हवाई अड्डे और अस्पतालों में भी
अनेक फर्क देखे।
राजनीतिक पार्टियों में भी
फर्क महसूस किया।
मंदिर में भी फर्क मैंने देखा।
मैं भूलना चाहता हूं
इस फर्क के दंश को।
क्योंकि यह फर्क
नियति का सच है
फर्क प्रकृति प्रदत्त है
क्योंकि प्रकृति परिवर्तनशील है
जीवन के सच में डूबता- उतराता हूं रोज-रोज
और हर सुबह, दोपहर और शाम
एक नए दर्द लेकर
घर लौटता हूं
सुबह की प्रतीक्षा में
कि जब नई सुबह आएगी
एक नई तरह की खबरें लेकर
जिसे हमें झेलना ही होगा।
जीवन का सत्य
जहाँ आकर विराम लेता है रोज-रोज
इस फर्क को छोड़ना नहीं चाहता
फर्क हमें रोज- रोज उसकाता है
वह हमारा शुभचिंतक है
वह हमें सावधान करता है
शायद कल वह फर्क-
नई ऊर्जा और नई चेतना,
नई प्रेरणा शक्ति के साथ
उपस्थित हो जाए
और हम
गौरवान्वित महसूस कर सकें।

पंडित विनय कुमार

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