लालकृष्ण आडवाणी
गत् सप्ताह कोलकाता ने डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी की 110वीं जयंती मनाई।
कोलकाता यूनिवर्सिटी इंस्टीटयूट के खचाखच भरे सभागार में जम्मू एवं कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जनरल एस.के. सिन्हा ने स्मरण दिलाया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात् ही कैसे भारत को राज्य में एक बहुत कठिन स्थिति का सामना करना पड़ा। अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने पठान कबिलाईयों, पूर्व सैनिकों तथा ‘अवकाश पर गए‘ सैनिकों की टुकड़ी से जम्मू-कश्मीर राज्य में गुप्त आक्रमण कर दिया।
इसने दो स्वतंत्र हुए देशों के बीच पहले भारत-पाक युध्द को बढ़ावा दिया। वस्तुत: यह एक अनोखा युध्द था। विदेश सेवा के एक विद्वान अधिकारी चन्द्रशेखर दासगुप्ता जो 1993-96 तक चीन में भारत के राजदूत रहे, ने कश्मीर आक्रमण पर ”वार एण्ड डिप्लामेसी इन कश्मीर, 1947-48” शीर्षक से एक उत्कृष्ट पुस्तक लिखी है, जिसमें उन्होंने इसे ”आधुनिक युध्दकला के इतिहास में एक अद्वितीय युध्द,” के रुप में वर्णित किया है।
वह लिखते हैं ”यह ऐसा युध्द था जिसमें दोनों प्रतिस्पर्धी सेनाओं का नेतृत्व तीसरे देश के राष्ट्रिकों के हाथ में था। ब्रिटिश जनरल नवगठित स्वतंत्र देश भारत और पाकिस्तान की सेनाओं का नेतृत्व कर रहे थे। यहां तक कि भारत में केबिनेट की डिफेंस कमेटी की अध्यक्षता लार्ड माउंटबेटन द्वारा की जा रही थी न कि प्रधानमंत्री नेहरु द्वारा। अत: भारत-पाक संघर्ष की दिशा और परिणाम के राजनीतिक उद्देश्यों और सैन्य क्षमताओं को साधारण संदर्भ में वर्णित नहीं किया जा सकता। एक नाजुक निर्णायक भूमिका उन ब्रिटिश अधिकारियों की थी जो दोनों सेनाओं के उच्च पदों पर थे, और भारत के मामले में ब्रिटिश गर्वनर-जनरल लार्ड माऊंटबेटन की।”
अगस्त, 1947 के बाद तीन सर्वोच्च ब्रिटिश अधिकारी भारतीय सेना में सेवारत थे। सभी का संबंध कश्मीर में हुए ऑपरेशन से जुड़ा था-सेनाध्यक्ष के रुप में लॉकहार्ट 15 अगस्त 1947 से 31 दिसम्बर, 1947; सेनाध्यक्ष के रुप में बाऊचर 1 जनवरी, 1948 से 14 जनवरी 1949 और आर्मी कमाण्डर के रुप में रुसेल अगस्त, 1947 से जनवरी 19 जनवरी 1948 तक जब करिअप्पा ने उनसे कार्यभार संभाला।
जिस समय रुसेल आर्मी कमाण्डर थे तब एस.के. सिन्हा मेजर के रुप में जनरल स्टाफ आफिस ऑपरेशन्स थे।
उपरोक्त तीनों ब्रिटिश अधिकारियों में से लॉकहार्ट भारत के प्रति वफादार सिध्द नहीं हुए और उन्हें पद से हटाया गया। उसकी तुलना में डुडवे रुसेल काफी वफादार थे। महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 की दोपहर बाद भारत में विलय किया। रुसेल ने सिन्हा को बताया कि भारत या पाकिस्तान में सेवारत ब्रिटिश अधिकारियों को यह कहा गया है कि वे कश्मीर में प्रवेश नहीं करेंगे, एकमात्र भारतीय अधिकारी होने के नाते मेजर सिन्हा को इस क्षेत्र में ऑपरेशन संचालित करना होगा।
दिल्ली से श्रीनगर तक सेना की टुकड़ियों को वायुमार्ग से पंहुचाने के मामले में सिन्हा को पहले दिन बताया गया कि सिर्फ 6 डकोटा विमान ही उपलब्ध हैं। उसके बाद निजी एयरलाइन्स के 50 सिविल डकोटा विमान-अधिकतर यूरोपीय पायलटों वाले-उपलब्ध कराए जाएंगे। विमानों से टुकड़ियों को वहां भेजने का काम 15 दिन के भीतर पूरा करना होगा क्योंकि फिर बर्फबारी के बाद यह संभव नहीं होगा।
कोलकाता के अपने भाषण में जनरल सिन्हा ने बताया कि यह किसी चमत्कार से कम नहीं था कि इतने कम समय में 800 डकोटा विमान उपलब्ध हो सके।
लार्ड माऊण्टबेटन ने दर्ज किया है: ”युध्द के मेरे लम्बे अनुभव में ऐसा कोई मौका नहीं आया जब इतने व्यापक स्तर पर वायुमार्ग से टुकड़ियों को भेजा जाना सफलतापूर्वक पूरा किया गया।”
स्वतंत्रता के समय सेना में सेवारत एक अधिकरी की हैसियत से जनरल सिन्हा ने मुझे बताया कि उस समय ब्रिटिश अधिकारियों और भारतीय अधिकारियों के बीच कैसी असमान स्थिति थी। उन्होंने बताया कि भारतीय अधिकारी, ब्रिटिश अधिकारियों की तुलना में वरिष्ठता और पेशेगत अनुभवों में पीछे थे।
किसी भारतीय अधिकारी का सर्वोच्च पद ब्रिगेडियर था। 14 अगस्त, 1947 को करिअप्पा सहित 6 अधिकारी ब्रिगेडियर पद पर थे। इन 6 में से अकबर खान एकमात्र मुस्लिम अधिकारी थे। सिन्हा के मुताबिक उससे नीचे के पदों पर लगभग तीस से चालीस कर्नल और लेफ्टिनेंट कर्नल पदों पर थे।
जनरल सिन्हा ने बताया : पहले दिन जब हम श्रीनगर पहुंचे तब हम सिर्फ 300 सैनिक थे और जबकि बारामूला के दर्रों तथा दुर्गम क्षेत्रों में शत्रु सेना की संख्या लगभग 1000 थी।
जनरल सिन्हा ने बताया कि 7 नवम्बर तक भारत की शक्ति और संख्या में पर्याप्त वृध्दि हो चुकी थी। इसके फलस्वरुप हम निर्णायक विजय पा सके। बारामूला को मुक्त करा लिया गया और हम उरी के 60 मील की ओर बढ़े जहां घाटी समाप्त होती है और झेलम के साथ एक रास्ता मुजफ्फराबाद की ओर बढ़ता है।
सिन्हा ने कोलकाता की सभा को बताया कि इस मौके पर हमें युध्द विराम करने तथा मुजफ्फराबाद की ओर बढ़ने से रुकने का आदेश मिला। हमारा ब्रिटिश कमाण्डर रुसेल इस आदेश से चकित था। वह मानता था कि हम एक सुनहरा अवसर खो रहे हैं। वह इस मत के थे कि भारतीय सेना मुजफ्फराबाद की ओर बढ़े तथा कोहला और डेमिल के दो पुलों पर कब्जा कर सीमा को सील कर दे। उनका मत था कि कश्मीर के प्रवेश मार्ग को सील करने से पूंछ में घिरी टुकड़ी पर दबाव कम हो जाएगा। लेकिन रुसेल को नजरअंदाज कर दिया गया। हमें पता चला कि दिल्ली में वरिष्ठ सैन्य अधिकारी के रुप में लार्ड माऊंटबेटन नहीं चाहते थे कि भारतीय सेना, पाकिस्तानी सेना से सीधे उलझे, जिससे सीमा की ओर बढ़ना रुक सके। यह तर्क दिया गया कि संघर्ष वस्तुत: कबिलाईयों घुसपैठियों के साथ है। लेकिन इस तर्क में ज्यादा दम नहीं पाया गया। सभी को पता था कि कबिलाईयों के साथ पाकिस्तानी सैनिक सादे वेश में इस युध्द में शामिल थे। और सभी पाकिस्तानी सेना के जनरल अकबर खान के सीधे निर्देश पर काम कर रहे थे।
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