—विनय कुमार विनायक
महाभारत कालीन राजा जरासंध के पिता
चेदिराज उपरिचर वसुपुत्र बृहद्रथ स्थापित,
मगध के बार्हद्रथ वंश का बत्तीसवां शासक
रिपुंजय को मार कर उनके मंत्री पुलिक ने
मगध गिरिव्रज का सिंहासन किए विजित!
ईसा पूर्व पांच सौ चौवालीस में हर्यक वंशी
सामंत भट्टी ने पुलिक पुत्र की करके हत्या,
पुत्र बिम्बिसार को दे दी गिरिव्रज की सत्ता,
उस वक्त मगध में शामिल था पटना गया,
गिरिव्रज पांच पहाड़ियों से रक्षित नगर था!
मगध राजधानी गिरिव्रज पांच शैल शिखर से
घिरी विपुलगिरि,रत्नगिरी,उदयगिरि,शोणगिरि,
वैभारगिरि महाभारत सभापर्व अध्याय इक्कीस
श्लोक द्वितीय तृतीय में इस तथ्य की पुष्टि;
‘बैहारो विपुलः शैलो वराहो वृषभस्तथा,
तथा ऋषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यकपञ्चमाः
एते महाऋङ्गाः पर्वताः शीतलद्रुमाः
रक्षन्तीवाभिसंहृत्य संहताङ्गा गिरिव्रजम्’
(विपुल वराह वृषभ ऋषिगिरि/मातंग चैत्यक)
ब्रह्मापौत्र वसु नाम से बना ये वसुमति नगर,
कहलाया मगध की राजधानी मागधपुर,वसु की
पत्नी गिरी के नाम से गिरिव्रज,वसुपुत्र बृहद्रथ
नाम से बार्हद्रथपुर, जरासंध के भाई कुशाग्र के
नाम से कुशाग्रपुर, पांच पहाड़ी से घिरे होने से
पंचशैलपुर व चैत्यकपंचका: कुश घास थी काफी!
गिरिव्रज के बाहर मगध सम्राट बिम्बिसार ने
बसा लिया नयानगर जो जैनग्रंथ में चणकपुर,
ऋषभपुर क्षितिप्रतिष्ठित कुशागारपुर कहलाया,
आज बिम्बिसारपुरी राजगृह राजगीर कहलाता,
नगर के उत्तर-पूर्व में गृध्रकूट पर्वत गिद्ध सा;
छतगिरि जो बुद्ध को बहुत अधिक पसंद था!
वाल्मीकीय रामायण कहता मगध राजधानी
गिरिव्रज निर्माता ब्रह्मापुत्र कुश के चार पुत्र,
कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्तरजस के अनुज वसु,
कुशाम्ब से कौशाम्बीपुरी, कुशनाभ से महोदय,
असूर्तरजस से धर्मारण्य,वसु से गिरिव्रज बसा!
‘ब्रह्मयोनिर्महानासीत् कुशो नाम महातपा: 1
वैदर्भ्यां जनयामास चतुरः सदृशान् सुतान् 2
कुशाम्बं कुशनाभं च असूर्तरजस वसुम् 3
चक्र पुरवरं राजा वसुनाम गिरिव्रजम् 7
एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः
एते शैलवराः पञ्च प्रकाशन्ते समन्ततः 8’
(वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड अध्याय 32)
पुराणों के अनुसार बार्हद्रथ वंश के बत्तीस राजाओं ने
मगध में एक हजार वर्ष तक लगातार शासन किया,
प्रथम हर्यक शासक बिम्बिसार अनुयाई जैन धर्म का,
फिर बने बौद्ध धर्मी, ह्वेनसांग ने सियुकी में लिखा!
बुद्ध ने गिद्धकूट से बिम्बिसार को संबोधी दिया था,
फाहियान ने लिखा है बुद्ध ध्यान लगाते थे गुफा में,
बिम्बिसार बुद्ध के मौसा थे और पिता अजातशत्रु के,
फाहियान ने बुद्ध गुफा का नाम पिप्पल गुफा बताया,
जो वैभारगिरि में बुद्ध का ध्यान व विश्राम स्थल था!
इसी गुफा के आगे जब बुद्ध टहल रहे थे, तब देवदत्त;
सौतेले भाई ने बुद्ध पर शिखर से एक पाषाण गिराया,
बुद्ध पूर्वजन्म में शिवयान वैश्य का पुत्र शिवम्मेथि व
देवदत्त पूर्वजन्म का सौतेला भाई बुद्ध से बदला लिया!
राजगृह के बाहर कारण्ड वेणुवन विहार जो कालान्तक
कहलाता, जिसे बिम्बिसार ने भू स्वामी से हड़प लिया
और भू स्वामी ने सर्प रुप में पुनर्जन्म ले कर श्रेणिक
बिम्बिसार को डंसना चाहा,जिसे बुद्ध को किया अर्पित!
बुद्ध निर्वाण पर अजातशत्रु कुणिक ने लेकर अस्थि-भष्म
कारण्ड वेणुवन में भगवान बुद्ध का बनाया था एक स्तूप,
जिसे अशोक ने तोड़के चौरासी हजार स्तूप किया निर्मित,
ह्वेनसांग ने लिखा कारण्ड वेणुवन के दक्षिण-पश्चिम में
एक अन्य गुफा था वेणुवन के पाषाण भवन में सप्तपर्णी,
जिसमें बुद्ध के निर्वाण के बाद हुई प्रथम बौद्ध संगीति!
महाकाश्यप के नेतृत्व में बौद्ध त्रिपिटक हुआ था संग्रहित,
आनन्द ने सुत्तपिटक, विनयपिटक किया वाचन उपालि ने,
ये संकलन स्थविर निकाय नाम से ताड़ पत्र में लिपिबद्ध,
महासांघिक निकाय हुआ संग्रहित सप्तपर्णी के पश्चिम में!
आरंभ में बिम्बिसार रहते थे कुशाग्रगढ़ी में, जहां आग लगी
जिससे राजा ने शीतवन श्मशान में राजभवन किया निर्मित
और राजपद अजातशत्रु को सौंपकर बिम्बिसार हुए निर्वासित,
सुरक्षा हेतु चहारदीवारी बनी, फिर आकर बसे दरबारी आश्रित,
अशोक मौर्य ने राजगृह को कर दिए ब्राह्मणों को अनुदानित!
जैनग्रंथ,हरिवंश पुराण के अनुसार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की
धर्मसभा राजगृह में होने से राजगृह की संज्ञा थी ऋषभपुर भी,
बीसवें तीर्थंकर सुव्रतनाथ की जन्म भूमि कुशाग्रपुर राजगृह थी,
जैन ग्रंथों से ज्ञात होता है कि राजगृह में गुणशिल, मडिकुच्छ,
मुग्दरपाणि चैत्य निर्मित, जिसमें महावीर को गुणशिल था प्रिय!
गिरिव्रज के पश्चिम वैभारगिरि के तलहटी में स्थित रणभूमि
जरासंध अखाड़ा व तप्तोद महातपोपतीरप्रभ गर्मकुण्ड था नामी
आज भी जिसकी पुष्टि महाभारत तीर्थ यात्रा वनपर्व में मिलती
तप्तोद जलकुण्ड के पास गिरिव्रज राजगृह का प्रवेश पथ उत्तरी,
गिरिव्रज राजगृह का दक्षिण द्वार के पास बाणगंगा निकलती!
राजगृह के शासक बिम्बिसार आरंभ में महावीर के जैनधर्मी थे,
अंत में बौद्ध हो गए, पुत्र अजातशत्रु भी बुद्ध अनुयाई हो गए,
मगध साम्राज्य का हर्यक राजवंश के पश्चात शिशुनाग वंश से
नंद वंश के महापद्मनंद और धनानंद सहित आठों पुत्र जैन थे,
नंद वंश के उपरांत मौर्य वंश संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य जैनी थे,
चंद्रगुप्त मौर्य पुत्र बिन्दुसार आजीवक थे, अशोक बौद्ध हो गए!
जैन धर्म की परम्परा प्रथम स्वायंभुव मनु पुत्र प्रियव्रत प्रपौत्र
ऋषभदेव से अनवरत वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर में चन्द्रगुप्त
मौर्य तक, फिर उनके पौत्र अशोक से मौर्य सम्राट बृहद्रथ तक
बौद्ध धर्म राजकीय धर्म था, मौर्य सम्राट बृहद्रथ का वध कर
ईसापूर्व एक सौ सत्तासी में ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग हुए शासक!
मगर वाल्मीकि के राम ने अयोध्याकाण्ड में जाबालि ब्राह्मण से
कहा ‘यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि
तस्माद्धि यःशक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधःस्यात्’
(सर्ग 109/34)
यानि जैसे चोर दण्डनीय है, वैसे बुद्ध (बौद्ध) भी दण्डनीय है,
तथागत(नास्तिक विशेष) नास्तिक (चार्वाक) को इसी कोटि में
समझ प्रजा हित में राजा द्वारा चोर सा दंड दिलाएं,जो वश में
नहीं उस नास्तिक से ब्राह्मण उन्मुख न हो ना वार्तालाप करें!
तो क्या वाल्मीकि के राम बुद्ध जिन चार्वाक के परवर्ती थे?
या वाल्मीकि के राम का ब्राह्मण धर्म बौद्ध जैन के बाद का?
या पुष्यमित्र शुंग के उभार के बाद धर्म ग्रंथों में सुनियोजित
ढंग से ब्राह्मण जाति का महिमामंडन/जातिवाद पनपने लगा?
जैन बौद्ध धर्मी क्षत्रिय वृषल वर्णसंकर शूद्र कहा जाने लगा!
ये प्रवृत्ति नंदवंश के उच्छेदक चन्द्रगुप्त मौर्य के कूटनीतिज्ञ
ब्राह्मण गुरु चाणक्य के उद्भव से जोर शोर से बढ़ने लगी,
पितृहंता हर्यक वंश के प्रथम शासक बिम्बिसार का वध कर
अजातशत्रु ने सत्ता पाई, फिर अजातशत्रु की हत्याकर उदायिन
उदायिन ने राजगृह से पाटलिपुत्र राजधानी स्थानांतरित की!
उदायिन के बाद अनिरुद्ध, मुण्ड व नागदशक शासक अंतिम
जिनको जनता ने पदच्युत कर शिशुनाग को दी मगध गद्दी,
शिशुनाग शास्त्रों में व्रात्यनन्दि अवन्तिवर्द्धन व्रात्य क्षत्रिय थे,
लिच्छवि कुलीन व राजनर्तकी से उत्पन्न क्षत्र-बन्धु कहे गए,
जिन्होंने राजधानी पाटलि से वैशाली लाए कुछ काल के लिए!
शिशुनाग के उत्तराधिकारी क्रमशः काकवर्ण,क्षेमधर्मन,क्षेमजित थे
नन्दिवर्द्धन काकवर्ण कालाशोक ने तीन सौ तिरासी ईसा पूर्व में
मगध की नव राजधानी वैशाली में कराई द्वितीय बौद्ध संगीति,
जिसमें बौद्ध धर्म बंटा महासांघिक प्राकृत व स्थविर पालि भाषी,
ईसा पूर्व दो सौ पचास में पाटलि में अशोक ने तृतीय संगीति की,
जिसमें सिर्फ स्थविरों ने थेरवाद/विभज्यवाद को मानी बुद्ध वाणी!
महापद्मनंद के राज्यकाल में जैनाचार्य स्थूलिभद्र ने पाटलिपुत्र में
प्रथम जैन वाचना तीन सौ अड़सठ ईसा पूर्व में किया था नेतृत्व,
द्वितीय जैन वाचना मथुरा में आर्य स्कंदिल ने कराई आयोजित,
तृतीय व चतुर्थ वाचना नागार्जुन व क्षमाश्रमण ने की वल्लभी में!
अस्तु हर्यक से मौर्यवंश तक मगध का राजधर्म जैन व बौद्ध रहा,
अगर चाणक्य ब्राह्मण धर्मी थे तो शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य जैन क्यों?
मौर्य के बाद ब्राह्मण धर्मा शुंग कण्व सातवाहन ब्राह्मण सम्राट हुए,
गुप्त वैष्णव थे मगर हर्ष पाल सेन वंश वैदिक नहीं बुद्ध वादी थे!
गुप्त सम्राट कुमारगुप्त ने नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध विहार बनाए,
पाल उदंतपुरी बौद्ध विहार विक्रमशिला विश्वविद्यालय के स्थापक थे,
हर्षवर्धन ने सभी बौद्ध विहार विश्वविद्यालयों को प्रचुर अनुदान दिए,
ऐसे में ब्राह्मण धर्म को सर्वाधिक प्राचीन धर्म कोई कह सकता कैसे?
प्रश्न अनुत्तरित है पर ब्राह्मणवाद शास्त्रों में प्रक्षिप्त किए गए लगते!
वस्तुत:ब्राह्मण वैदिक कर्मकांडी बलिप्रथा समर्थक वर्णवादी पुरोहित थे,
भारत आक्रांता यवन शक हूण पह्लव कुषाण के साथी याजक वर्ग के,
महाभारत कालीन युधिष्ठिर-अर्जुन प्रपौत्र क्षत्रिय शासक जनमेजय से
अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ तक वैदिक कर्मकाण्ड पशुबलि यज्ञ बंद थे,
प्रथम ऐतिहासिक ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग का मगध विजय से
एक सौ छियासी ईसा पूर्व में पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेध यज्ञ किए थे!
हरिवंश पुराण कथन‘औद्भिज्जो भविता कश्चित्सेनानी: काश्यपो द्विजः
अश्वमेधं कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति’ यानि औद्भिज्ज/शुंग वंश में
काश्यप गोत्री ब्राह्मण सेनानी कलियुग में पुनः अश्वमेध याज्ञिक होंगे
महाभारत आदिपर्व में वर्णित यूनानी शासक दत्तमित्र या दिमित्रियस ने
पुष्यमित्र शुंग पर आक्रमण किए गंधर्व देश/गांधार व सौवीर जीत के!
पुष्यमित्र शुंग ने दत्तमित्र को पराजित कर दूसरा अश्वमेध यज्ञ किया
शुंगवंशी कोशलाधीष धनदेव ने अयोध्या अभिलेख में ये उल्लेख किया
‘द्विरश्वमेध याजिनः सेनापते: पुष्यमित्रस्य’, जिसमें ऋत्विज बने थे
संस्कृत वैयाकरण पतंजलि ‘इह पुष्यमित्रं याजयामः’महाभाष्य में लिखे!
पतंजलि थे भाष्यकार पाणिनि कृत संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी के,
पाणिनि थे ईसा पूर्व तीन सौ चौंसठ से ईसा पूर्व तीन सौ चौबीस तक
मगध पाटलिपुत्र गद्दी के नंद शासक महापद्मनंद के दरबारी मित्र वे,
यही समय था यूनानी आक्रांता सिकंदर आक्रमण व मौर्यवंश उदय का,
यही काल था भारत भाल पर कौटिल्य नामक ब्राह्मण के कूटचाल का!
यही अवधि विश्व का प्रथम संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी सृजन का,
यही अवधि अशोक की प्राकृत छोड़ संस्कृत को राजभाषा प्रस्थापन का,
यही अवधि क्षत्रियों को शूद्र वृषल कहने का, ब्राह्मण महिमामंडन का,
यही अवधि जय भारत को एक लाख श्लोक का महाभारत बनाने का,
यही अवधि वाल्मीकि रामायण में बौद्ध चार्वाक को नीचा दिखाने का!
ये वही दौर था जब ऐतिहासिक शासकों की घृणित जातियां खोजी गई,
सर्वक्षत्रांतक नंद शासक महापद्मनंद को ‘उग्रः शूद्रासुते क्षत्रत्’ कहे गए,
जबकि उनके पिता क्षत्रिय मां शूद्र,पुत्र उग्र कैसे,जाति तो पिता से आती?
नंद जैन थे,जैन साहित्य क्षत्रिय कहता, ब्राह्मण ग्रंथों में शूद्र बताए गए
महानन्दिसुतश्चापि शूद्रायां कलिकांशजा उत्पत्स्यते महापद्मः (म पुराण)
वस्तुतः अंतिम शिशुनाग वंशी महानंदिन के पुत्र महापद्मनंद क्षत्रिय थे।
चाणक्य तीन सौ पचास से दो सौ तिरासी ईसापूर्व मध्य एक विचार था,
चाणक्य ‘कौटिल्य: कुटिलमति:’ अनेक नामों व लेखकों का समाहार था,
चाणक्य नाम से चाणक्य नीति,कौटिल्य से अर्थशास्त्र दण्डनीतिकार था,
कुटल,आंगुल,द्रामिल,पक्षिलस्वामी,मल्लिनाग, विष्णुगुप्त,चण्कात्मज और
वात्स्यायन नाम से कूटनीति स्वभाव से विपरीत कामसूत्र रचनाकार था,
चाणक्य जैन बौद्ध शासकों के दौर में ब्राह्मण वर्चस्व का हथियार था!
ब्राह्मण ग्रंथों में जोर शोर से कहा गया है कि कौटिल्य की कूटनीति से
भारत का यवन आक्रांता सिकंदर हारा और चंद्रगुप्त मौर्य मगधपति बने,
जबकि सिकंदर नंद की विशाल सैन्यसमुद्र से डरके हतोत्साहित हो भागे,
कहा गया है कि नंद ने चाणक्य को प्रधान पुरोहित नहीं बनाए जिससे
गुस्से में धनानंद को शूद्र कहकर मंत्र प्रहार से सात दिनों में मार दिए,
धनानंद-मुरा के पुत्र चंद्रगुप्त मौर्य को मगध सिंहासन पर आसीन किए!
सच ये है कि शकटार ने नंद के स्वाभाविक उतराधिकारी चंद्रगुप्त को
गद्दी पर अभिषिक्त किए जबकि चाणक्य चंद्रगुप्त को वृषल कहते थे,
क्या कोई सम्राट निर्माता अपने प्रिय सम्राट को वृषल संबोधित करेंगे?
अगर चाणक्य कूटनीतिज्ञ व पराक्रमी थे तो खुद सम्राट क्यों नहीं बने?
या निज पुत्र या चंद्रगुप्त को ही जैन से ब्राह्मण घोषित क्यों नहीं किए?
अस्तु ब्राह्मण कोई धर्म नहीं जाति बनी,जैन बौद्ध क्षत्रिय क्षय के लिए!
—विनय कुमार विनायक
दुमका,झारखंड-814101