घुप अंधेरे में टिमटिमाया दीपक,रौशनी की आसार!

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2020 के बिहार विधान सभा चुनाव में इस बार देश का मुख्य मुद्दा बहुत ही मजबूती के साथ उठाया गया यह एक बहुत बड़ा कदम है क्योंकि जाति और धर्म की परिकरमा करती हुई सियासत की दशा और दिशा जिस तरह से नौकरी एवं रोजगार की ओर मोड़ने का प्रयास किया गया वह देश के मूल ढ़ांचे में सुधार हेतु बहुत बड़ा संकेत है। खास बात यह है कि इस बार के बिहार विधान सभा के चुनाव में नौकरी और रोजगार मुख्य चुनावी मुद्दा रहा। इस मुद्दे को किस राजनीतिक पार्टी ने पहले उठाया और किसने बाद में यह सियासत का विषय है परन्तु देश हित का विषय यह है कि अगर यह मुद्दा धरातल पर अपने मूल अस्तित्व में आ गया और अपने पैर पसार लिए तो देश की तस्वीर बदल सकती है। क्योंकि जीवन-यापन के लिए आर्थिक सशक्तिकरण बहुत ही आवश्यक है। जिससे की देश का विकास होना तय है।

बता दें कि राज्य की नई एनडीए सरकार ने कार्यभार संभालते ही रिक्त पदों को भरने एवं सरकारी नौकरी देने की कार्रवाई शुरू कर दी है। सामान्य प्रशासन विभाग ने सभी विभागों से उनके यहां के खाली पड़े पदों का ब्योरा मांगा है। इस बारे में सभी विभागों के प्रमुखों को भेजे गए पत्र में कहा गया है कि वह जानकारी उपलब्ध कराएं कि उनके यहां स्वीकृत पदों पर संविदा या नियोजन द्वारा कितने लोग काम कर रहे हैं? पहले से नियुक्त लोगों के अलावा कितने पद खाली पड़े हैं जिन पर संविदा के आधार पर नियुक्ति की जानी है? संविदा या नियोजन के लिए प्रक्रियाधीन पदाधिकारियों और कर्मियों की संख्या कितनी है? सरकार ने अपने सभी विभाग के अधिकारियों से कहा है कि रिटायर कर्मियों का संविदा नियोजन छोड़कर अन्य सभी पदों का ब्योरा सर्वोच्च प्राथमिकता देकर तुरंत उपलब्ध कराएं।

सरकार का यह कदम बेरोजगार नौजवानों के लिए घुप अंधेरे में उम्मीद की किरण का आभास होने जैसा है क्योंकि कोरोना के कारण लॉकडाउन ने जिस प्रकार से देश की आर्थिक स्थिति को धाराशायी किया है। उससे देश की 85 प्रतिशत आबादी पूरी तरह से भुखमरी के कगार पर आ गई साथ ही बेरोजगार नौजवानों की खस्ता हालत ने देश को भारी नुकसान पहुँचाया। भुखमरी के कगार पर पहुँच चुके देश की तस्वीर किसी से भी छिपी हुई नहीं है। परन्तु अबतक शासन और सत्ता ने इस ओर देखना भी उचित नहीं समझा था। आँख मूँदे हुए सियासत की तस्वीर पूरे देश के सामने है। पूरे देश में जिस प्रकार से भुखमरी फैली है आज लोग दो जून की रोटी के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे हैं। देश की यह स्थिति किसी से भी छिपी हुई नहीं है। देश की इतनी बदतर हालत कैसे हो गई…? यह बड़ा सवाल है। क्या यह स्थिति एक दो दिन में अथवा एक दो साल में उत्पन्न हो गई…? नहीं ऐसा कदापि नहीं है। यह कोई जादू नहीं है जोकि तुरंत अपना रूप बदलकर सामने आकर खड़ा हो गया। देश की भुखमरी की समस्या स्वतंत्रता के बाद से ही देश के ढ़ांचे के साथ लिपटी हुई है। ऐसा क्यों है…? यह बड़ा सवाल है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि विधानसभा से लेकर लोकसभा तक फर्राटा भरने वाली सियासत लगातार कुर्सी की परिकरमा करती रही। जो भी राजनेता सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हो जाता वह कुर्सी को मजबूती के साथ पकड़कर कुर्सी से चिपके रहने के लिए पूरी कोशिश करता रहता। यदि शब्दों को सरल करके कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि देश की सत्ता पर विराजमान जिम्मेदारों ने सत्य में भुखमरी की ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी। गरीबी और भुखमरी के मुद्दे को चुनाव के समय ही अलादीन के चिराग से जिन की भाँति निकाल लिया जाता रहा और चुनाव समाप्त होते ही फिर इस मुद्दे को संभालकर उसी बोतल नुमा चिराग में आगामी चुनाव के लिए रख दिय़ा जाता रहा। इसी कारण देश में इस मुद्दे पर मजबूती के साथ कार्य नहीं हो पाया इस कारण आज देश की तस्वीर इतनी दयनीय हो गई। देश का मध्यक्रम नया गरीब हो गया और जो पहले से गरीब था वह और गरीब हो गया।

इसका मुख्य कारण एक यह भी है कि जाति और धर्म की परिकरमा करती हुई सियासत ने देश के वास्तविक मुद्दे का गला ही घोंट दिया जिससे कि वास्तविक मुद्दे की साँसे थम गईं। जाति-धर्म का मुद्दा जोरो पर पूरे देश में फैलने लगा। जिससे नेताओं को इच्छानुसार खुला मैदान मिल गया। फिर क्या था देश के राजनेताओं ने जनता को अपने सियासी जाल में फंसाकर उलझा दिया जिससे कि देश की जनता धर्म और धार्मिक स्थानों में फंसकर रह गई और आर्थिक मुद्दे से भटक गई जिससे की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती चली गई।

अतः राजनीति की बदलती हुई दिशा देश के भविष्य के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है इसलिए कि जिस कार्य को सदियों पहले किया जाना चाहिए था उस कार्य को किया ही नहीं गया। जबकि देश के ढ़ांचे को मजबूती के साथ खड़ा करने के लिए आर्थिक सशक्तिकरण होना बहुत जरूरी है। इतिहास साक्षी है विश्व के मानचित्र में कुछ देश ऐसे भी हैं जोकि भारत के बाद स्वतंत्र हुए परन्तु आज आर्थिक स्थिति में वह विश्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं जोकि हमारे लिए बहुत शर्म की बात है। जबकि हम ऐसा कर पाने में पीछे रह गए जोकि चिंता का विषय है। हमारे देश के नीतिकारों को इस ओर ध्यान देने की बहुत सख्त जरूरत है। कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। अगर हमारे जिम्मेदार अभी भी जाग जाएं और अपनी आंखें खोल कर देश की वास्तविक समस्या को देख लें और धर्म जाति के चक्र से बाहर निकलकर आर्थिक नीति को चुनावी आधार बनाकर कार्य किया जाए तो देश के थके और हाँफते हुए प्राण को बड़ी संजीवनी प्राप्त हो सकती है।   

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