बुज़ुर्गों की दयनीय स्थिति चिंताजनक

देवेंद्रराज सुथार
बुज़ुर्गों का उत्पीड़न घर से शुरू होता है और इसे अंजाम वे लोग देते हैं जिन पर वह सबसे ज्यादा विश्वास करते हैं। इस वर्ष, दुर्व्यवहार को अंजाम देने वाले लोगों में सबसे पहले बेटे हैं, उसके बाद बहुएं हैं। इस बात का खुलासा सामाजिक संस्था ‘हेल्पेज इंडिया’ ने किया है। हाल में इस संस्था ने देश के 23 शहरों में सर्वे कराया है, जिसमें पाया गया कि बुज़ुर्गों के साथ सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार मैंगलोर (47 फीसदी), उसके बाद अहमदाबाद (46 फीसदी), भोपाल (39 फीसदी) अमृतसर (35 फीसदी) और दिल्ली (33 फीसदी) में होता है।

बुज़ुर्गों के साथ भेदभाव होना आम बात है लेकिन वे शायद ही कभी इसकी शिकायत करते हैं और इसे सामाजिक परिपाटी मानते हैं। इस भेदभाव से सुरक्षा के बारे में वे बहुत कम जागरूक होते हैं। पारिवारिक दुर्व्‍यवहार से बुज़ुर्गों को संरक्षण देने वाला ‘सीनियर सिटीजन्स एक्ट-2007’ मौजूद होने के बावजूद ज्यादातर बुज़ुर्गों को इसकी जानकारी नहीं है और न ही वे यह जानते हैं कि अपना अधिकार पाने के लिए वे क्या कर सकते हैं और इस कानून के लागू होने के बाद से अब तक बहुत कम लोगों ने ही इसका इस्तेमाल किया है। इस कानून के अंतर्गत दोषी को 3 मास कैद की भी व्यवस्था है। अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ बुज़ुर्ग अपने परिजनों द्वारा भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं तथा नि:संतान बुज़ुर्ग अपने उन रिश्तेदारों पर भरण-पोषण का दावा भी कर सकते हैं जिन्होंने उनकी सम्पत्ति पर कब्जा कर रखा हो या जो उन्हें विरासत में मिलने वाली हो। इस कानून के अंतर्गत पीड़ित बुज़ुर्ग के लिए भोजन, कपड़ा, आवास, चिकित्सा और गुजारे के लिए अधिकतम 10,000 रुपए प्रति मास गुजारा राशि भी प्राप्त कर सकने तक का प्रावधान है। बहरहाल, इस संबंध में जो सांत्वनादायक बात सामने आई, वह यह है कि अपने माता-पिता द्वारा परिवार के बुज़ुर्गों से किए जाने वाले दुर्व्‍यवहार के संबंध में बताने के लिए अब कहीं-कहीं उनके पोते-पोतियां ही आगे आने लगे हैं। 

निस्संदेह भौतिकवादी सभ्यता और महानगरों में पनपे-पले हुए समाज में लोगों की आँखें चकाचौंध से चौंधिया गई हैं, इस बारे में कहीं कोई दो राय नहीं है। आज बुज़ुर्गों की स्थिति दिन प्रति दिन दयनीय होती जा रही है। लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है। क्या हमने कभी सोचा है। शायद आदमी सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझता। जब कभी कहीं बात उठती है तो दो-चार शब्दों में वक्तव्य, टिप्पणियाँ, आलोचना और विवेचना के ज़रिए दुख व्यक्त कर लिया जाता है। आज इसके लिए आदमी में संस्कारों और अपनी परंपराओं निरंतर होते ह्रास को सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है। आधुनिक भारत ने लोगों की सोच में बदलाव लाने के साथ-साथ अपने बुज़ुर्गों के प्रति आदर का भाव भी ख़त्म कर दिया है। आधुनिक समाज उन्हें घर में रखना कूड़े के समान समझता है और उन्हें वृद्धाश्रम में धकेल दिया जाता है। या फिर वे घर में इतने प्रताड़ित किए जाते हैं कि ख़ुद ही घर छोड़ कर चले जाते हैं। क्या यही हमारी परंपरा और संस्कृति है।

जिस प्रकार से हम नौकरी के चलते अपने आने वाले समय के बारे में सोचकर योजनाए बना लेते हैं उसी प्रकार से हमें बुज़ुर्गों के लिए भी इंसानियत और फर्जों की पूंजी में निवेश करना होगा। क्योंकि यह वक़्त हर किसी को देखना है। दूसरी तरफ़ हमारी सरकारें अक्सर विदेशों की बहुत सी नीतियों का अनुसरण करतीं हैं तो सरकार को विदेशों की तरह ऐसे कड़े नियम और कानून बनाने चाहिए ताकि हमारे देश के वरिष्ठ नागरिकों के स्वावलंबन और आत्मसम्मान किसी प्रकार की ठेस न पहुंचे और वे किसी के हाथों की कठपुतली न बनें। आवश्‍यकता इस बात की है कि‍ परि‍वार में आरंभ से ही बुज़ुर्गों के प्रति‍ अपनेपन का भाव वि‍कसि‍त कि‍या जाए। संतानों को भी चाहिए कि जो फ़र्जों की दोशाला ओड़े बैठें हैं उसका निस्वार्थ, छल-कपट रहित निर्वाह करें। वि‍श्‍व में भारत ही ऐसा देश है जहां आयु को आशीर्वाद व शुभकामनाओं के साथ जोड़ा गया है। जुग-जुग जि‍या, शतायु हो जैसे आर्शीवचन आज भी सुनने को मि‍लते हैं। ऐसे में वृद्धजनों की स्‍थि‍ति‍ पर नई सोच भावनात्‍मक सोच वि‍कसि‍त करने की जरूरत है ताकि‍ हमारे ये बुज़ुर्ग परि‍वार व समाज में खोया सम्‍मान पा सकें और अपनापन महसूस कर सकें। बालगंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि ‘तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है।’ अंत में- ‘फल न देगा न सही, छाँव तो देगा तुमको पेड़ बूढ़ा ही सही आंगन में लगा रहने दो।’

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  1. भारत जैसे पारंपरिक राष्ट्र में जब कोई दूसरा अपने माता-पिता व गाय की अवहेलना करते दिखाई देता है तो मन में एक अजीब सी खीज उठती है क्योंकि परिस्थिति से अनभिज्ञ हम केवल जो देखते हैं उसी पर अपनी सहानुभूति प्रकट कर अंत में हाथ पर हाथ धरे रह जाते हैं| कुछ कर नहीं पाते| पाश्चात्य देशों में केवल सहानुभूति नहीं बल्कि मन में परानुभूति के भाव से समाज के अग्रणी किसी भी स्थिति को पूर्णतया समझ कोई न कोई चिरस्थाई आर्थिक व सामाजिक समाधान निकाल ही लेते हैं| वृद्धावस्था में कई प्रकार की परिस्थितियाँ उठ खड़ी होती हैं जिनमें उलझे बिना उन्हें समझ पाना कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है| तिस पर आज के वैश्विक व उपभोक्तावादी समाज में किन्हीं की व्यक्तिगत परिस्थितियों में उलझना उनके जीवन में असभ्य हस्तक्षेप माना जाता है| तो क्यों न समाज के अग्रणी ऐसी संस्थाओं की स्थापना करें जो औरों की कठिनाइयों को दूर करने में तत्पर रह पाएं! जब कभी जानी-मानी संस्था का प्रतिनिधि किसी परिवार में अभाग्यपूर्ण स्थिति को जानने व उनकी कठिनाई का निवारण करने हेतु वहां जाता है तो अच्छे परिणाम देखने को मिलते हैं| पड़ोस में रहते युवा बच्चे अथवा उच्च-विद्यालयों के विद्यार्थी ऐसी संस्थाओं में स्वेच्छाकर्मी बन कई रूप में सहायक हो सकते हैं| किसी एक मोहल्ले में स्थिति का अवलोकन कर ऐसा नक्शा बनाया जा सकता है जिसको आधार मान शासकीय व अशासकीय सहभागिता द्वारा जरूरतमंद लोगों की सहायता की जा सकती है|

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