केरला स्टोरी के राजनीतिक पक्ष  

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केयूर पाठक

सतीश सी.

“कोई कला गैर-राजनीतिक नहीं होती”. यह पंक्ति है एस.एम्. एसेंसटीन की. ऐसे में कठिन होता है वैसे फिल्मों की समीक्षा करना जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से प्रभावित हो चुका हो. समीक्षा के आधार पर “इस” या “उस” विचारधारा का मान लिए जाने का खतरा रहता है. लेकिन, इसका मतलब यह भी नहीं कि उन विषयों पर चुप रहा जाए जिसपर पूरी दुनिया अपनी प्रतिक्रिया दे रही हो. ‘केरला स्टोरी’ के साथ भी ऐसा ही कुछ है. दो धाराएँ हैं- एक इसे प्रोपेगेंडा और राजनीतिक बता रही, और दूसरा इसे एक क्रूर सामाजिक सच्चाई[1]. धाराओं से दूर हम किनारे के लोग हैं- चीजों पर अपनी राय अपने अनुभवों और अपनी समझ से ही देते हैं. हम इसे कितना भयावह सामाजिक सच्चाई माने यह बहश तो वाजिब है, लेकिन एक सिरे से इसे प्रोपेगेंडा घोषित करना अपने आप में ही एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा की तरह है. फिल्म मेकर का दावा है कि उसने सच्ची घटनाओं के आधार पर इस फिल्म को बनाया है, तो ऐसी स्थिति में जबतक देश की शीर्ष आधिकारिक संस्थाओं के द्वारा इसपर आपत्ति दर्ज कर बैन नहीं किया जाता तबतक इसके तथ्यों को पूरी तरह से आधारहीन नहीं माना जा सकता. देश के “प्रतिष्ठित” अंग्रेजी अख़बारों और अन्य श्रोतों को देखने से भी ऐसे मामलों के होने से इंकार नहीं किया जा सकता, बल्कि फिल्म मेकर के अधिकांश तथ्यों में सत्यता ही नजर आती है. केरल से लड़कियों के आईएसआईएस में जाने की कुछ ख़बरें उनमें आसानी से देखी जा सकती है[2]. इसलिए इस फिल्म में दिखाए गए तथ्यों की आलोचना कोई बड़ा मसला नहीं रह जाता है. तथ्यात्मक रूप से इसकी आलोचना इसके आंकड़ों के सन्दर्भ में निश्चित रूप से की जा सकती है न कि ऐसी घटनाओं को झूठी खबर बताकर.

हाँ, इसके राजनीतिक निहितार्थों पर चर्चा स्वाभाविक है- यह कितना राजनीति से प्रेरित है या राजनीति कितना इससे प्रभावित हो रही है. एक जगह मेघनाद देसाई लिखते हैं- “राजनीति सिनेमा के सहारे समझना चाहिए”. निस्संदेह  फ़िल्में गैर-राजनीतिक नहीं होती. यह राजनीति से प्रेरणा पाती है और राजनीति सिनेमा का अपने हिसाब से प्रयोग करती है. प्रसिद्ध फिल्म मेकर जॉन लुक गोडार्ड ने तो यहाँ तक कहा था कि वे ‘पोलिटिकल फिल्म’ नहीं बल्कि फिल्म को ‘पॉलिटिकली’ बनाना चाहते हैं (Mazierska, 2014). भारत में भी फिल्म निर्माण का इतिहास कुछ ऐसा ही रहा है. आज मोदी के लिए सलमान और अक्षय का जो महत्व माना जाता है वही महत्व नेहरु के लिए दिलीप कुमार, शोहराब मोदी, महबूब खान, ए. के. अब्बास और पृथ्वीराज कपूर आदि का हुआ करता था (Ghosh, 2019). दिलीप कुमार तो नेहरु के लिए चुनावी प्रचार भी किया करते थे. पृथ्वीराज कपूर ने नेहरु के विचारों को ध्यान में रखकर कई फ़िल्में बनाई जिस कारण उन्हें राज्यसभा में भेजा गया. केरला स्टोरी या कश्मीर फाइल्स जैसी मूवी अगर वर्तमान सत्ता के हितों से जुडी तो इससे पूर्व की सत्ता ने भी सिनेमा की अपनी राजनीति की थी- यह अतीत की पुनरावृति मात्र है. हिंदी सिनेमा में 1950 का युग तो नेहरूवियन युग ही था. उनके दर्शन और विचारों का सिनेमा पर पूरा प्रभाव था. आजादी के शुरुआत के बीस वर्षों में भारतीय फिल्म विभाग ने करीब 1742 डाक्युमेंट्री का निर्माण कराया जिसका मकसद नेहरु के विकास कार्यों का प्रचार-प्रसार करना था (Ghosh, 2019). सत्ताएं सिनेमा के प्रभाव और विस्तार को समझती है, इसलिए दुनियाभर में सिनेमा निर्माण में सत्ता का हस्तक्षेप होता रहा है- शीत युद्ध के समय यूएसएसआर पर एक हमला अमेरिकन लॉबी ने फिल्मों के द्वारा भी किया था. इसलिए अगर सिनेमा में राजनीति है या सिनेमा की राजनीति की जा रही है तो केवल उसी आधार पर उसका बहिष्कार नहीं किया जा सकता. यह सार्वभौमिक है. सिनेमा महज मनोरंजन नहीं, यह राजनीति, संस्कृति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक ‘विजुअल-एंट्री’ की आधुनिक तकनीक भी है.  

केरल जैसे शिक्षित माने जाने वाले राज्य में अगर ऐसी घटनाएं घट रही हैं तो यह आश्चर्यजनक है. उत्तर के अनेक राज्यों में ऐसी चीजों के लिए आर्थिक विषमता और अन्य प्रशासनिक कारणों का हवाला दिया जा सकता है. लेकिन केरल का मामला कत्तई आर्थिक विपन्नता का मामला नहीं है. कई बार सैमुअल हटिंगटन की कल्चरल-थेयरी यहाँ सच जैसी प्रतीत होती है- संस्कृति का प्रश्न आर्थिक प्रश्न से बड़ा हो जाता है. कई सवाल सामने आते हैं- जैसे क्या वामपंथ की “तार्किक” शिक्षा के सामने मजहबी कट्टरता अधिक प्रभावी हो चुकी है! क्या विकास के आगे मजहबी प्रश्न अधिक मुखर है! पिछले कुछ दशकों में केरल से बड़ी संख्या में लोगों का खाड़ी के देशों में रोजगार के सिलसिले में जाना हुआ है. खाड़ी के देशों में जाने के बाद उनमें मजहबी झुकाव अधिक पैदा हुआ है. ये देश कोई लोकतान्त्रिक और आधुनिक विचारों वाले देश नहीं, ऐसे में उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का प्रभाव केरल के प्रवासी लोगों पर भी पड़ा है. केरल से खाड़ी की तरफ लोगों का पलायन मजहबी दुराग्रह के आगमन की तरह भी देखा जा रहा है.

केरला स्टोरी का विषय गंभीर है. लेकिन इसे इस्लामोफोबिया नहीं कहा जा सकता, बल्कि यह वैश्विक मजहबी आतंकवाद के एक भयावह पक्ष को भी दर्ज करती है. इसके अलावा यह फिल्म दो समस्याओं का मुख्य रूप से चित्रण करती है- पहला पुरुषवादी सत्ता का और दूसरा मजहबी कट्टरता का. और इसमें महिलाएं दोहरा मार झेलती हैं. कई बार यह फिल्म एस्केप फ्रॉम तालिबान (2003) की भी याद दिलाती है. इस फिल्म को देखने का सबसे बेहतरीन तरीका नारीवादी दृष्टिकोण हो सकता है- जिसमें स्त्री ही तमाम मजहबी और राजनीतिक उथल-पुथल का शिकार होती है. लेकिन साथ ही फिल्मांकन के समय अतिरंजना से भी इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि सिनेमा का एक पक्ष सौंदर्यबोधात्मक भी होता है- सौन्दर्य सत्य को विकृत भी कर देती है.  

फिल्म से भाजपा को राजनीतिक फायदे मिलने की उम्मीदें थी लेकिन कर्नाटक चुनाव ने साबित किया कि केवल फिल्मों के सहारे राजनीतिक सफलता अर्जित नहीं की जा सकती, सफलता के लिए अन्य मोर्चों पर भी कार्य करने की जरुरत होती है. फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि फिल्म ने दक्षिण के समन्दर की सतह पर लहरों को तेज कर दिया है.

Reference

  1. Ghosh, S. Partha (2019). Nehruvian Cinema and Politics, India International Centre Quarterly 46(2). AUTUMN.
  2. Mazierska, Ewa (2014). Introduction: Marking Political Cinema, Framework: The Journal of Cinema and Media, Vol 55(1).

[1] https://www.aljazeera.com/news/2023/5/4/kerala-story-film-on-alleged-indian-isil-recruits-gets-pushback  12. 05.2023

[2] https://www.thehindu.com/news/national/india-unlikely-to-allow-4-kerala-women-who-joined-is-to-return/article60677651.ece   12. 05. 2023


[i] केयूर पाठक और सतीश सी दोनों ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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