विश्ववार्ता

पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की दयनीय हालत

अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के मानवाधिकारवादी हों या ऐसी ऐजेंसियाँ और स्वयंसेवी संस्थाएं जो भारत में अल्पसंख्यकों को लेकर जब-तब यह आरोप लगाती रही हैं कि वह हिन्दुस्तान में सुरक्षित नहीं। बहुसंख्यक समाज से उन्हें खतरा है, क्योंकि उनके द्वारा अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन होता है। इसके ठीक विपरीत भारत के पडोसी देश पाकिस्तान में अल्पसंख्यक समुदाय की क्या स्थिति है, न तो इस विषय पर किसी अंतर्राष्ट्रीय नेता या एजेंसी का कोई सख्त बयान सुनने में आता है न ही कोई मानवाधिकारवादी-स्वयंसेवी संस्था उनकी स्थिति सुधारने तथा पाक सरकार को कठधरे में खडा करने के लिए कोई ठोस प्रयत्न करते हुए दिखाई दे रही है।

शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहाँ अल्पसंख्यक समुदाय को भारत के समान भाषा, भूषा, धर्म, मान्यता और आर्थिक सहयोग की सुविधा केंद्र व राज्य सरकारों से मिली हो। उसके बाद भी सदैव हिन्दुस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर बदनाम करने की कोशिश ही की जाती रही है।

पाकिस्तान या बांग्लादेश को लेकर तथाकथित धर्मनिरपेक्षवादी अथवा मानवाधिकारवादी कोई बोलने को तैयार नहीं! आखिर क्या कारण हैं इसके पीछे ?जब कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यक कितने असुरक्षित हैं यह आज किसी से छिपा नहीं है। इन देशों में स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि भारत-पाक विभाजन सन् 1947 में जितनी हिन्दू-सिख आबादी पाकिस्तान में बची थी उसकी तुलना में आज केवल तीन प्रतिशत ही अल्पसंख्यक पाकिस्तान में बचे हैं जो कि भयक्रांत हो जीवन जीने को विवश हैं।

इससे बेहतर स्थिति बांग्लादेश की हो ऐसा नहीं है। वहाँ भी लगातार अल्पसंख्यक हिन्दू लाखों की संख्या में पलायन कर रहे हैं। हजारों की संख्या में बांग्लादेशी हिन्दू भारत व अन्य निकटवर्ती देशों के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी जमीन और संपत्ति छोडकर शरणार्थी का जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं। इसके अलावा लगभग चार करोड बांग्लादेशी घुसपैठिए आज हिन्दुस्तान के सीमांत इलाकों में किसी मजबूरी या परेशानी में आकर नहीं बसे, बल्कि उनकी मंशा भारत की सीमाओं के जनसंख्यात्मक संतुलन को बिगाडकर आगे जनसंख्या के दबाव और आपसी सहमति के आधार पर बांग्लादेश में मिलाने का रास्ता प्रशस्त करना है। यह बात अलग है कि भारत में चल रहे इतने बढे षड्यंत्र के बावजूद बोट बैंक की खातिर केन्द्र सरकार कुछ बोलना नहीं चाहती।

पाकिस्तान में तालिबानी दहशतगर्दों से खौफजदा सिंध प्रांत के 9 हजार से ज्यादा परिवार आज यहाँ से भागना चाहते हैं।यह वह संख्या है जो पलायन के लिए बीजा का इंतजार कर रही है। सिर्फ सिंध प्रान्त के 30 लाख हिन्दू-सिख परिवार पाकिस्तान छोडने की आशा में जी रहे हैं। यहाँ सिख और हिन्दू परिवारों से जबरन जजिया वसूलने, बच्चियों और महिलाओं का अपहरण और लूटपाट आम बात है। अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएँ तो इतनी असुरक्षित हैं कि उनका घर से निकलने के बाद कब दिनदहाडे अपहरण हो जाएगा यह वे सपने में भी नहीं सोच सकतीं। केवल घर से निकलने की ही बात नहीं है मनचले, रंगदार एवं ताकतवर जब चाहे तब अपनी हवश पूरी करने के लिए अल्पसंख्यक महिलाओं को उठाकर ले जाते हैं। जबरन हिन्दू-सिख लडकियों से लव-जिहाद या भय का सहारा लेकर विवाह किये जा रहे हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि अल्पसंख्यकों के बीच बिगडते जनसंख्यात्मक असंतुलन के कारण कई हिन्दू युवक बिना शादी के अपना पूरा जीवन बिताने को मजबूर हैं।

साक्ष्य मौजूद हैं कि हालात से मजबूर होकर सिर्फ प्रतिमाह सैकडों की संख्या में लोग भारत आ रहे हैं इसके अलावा अन्य देशों में जाने वालों की संख्या अलग है। तालिबानी आतंक इन हिन्दू-सिख परिवारों पर इस तरह छाया हुआ है, कि भयभीत स्थिति में आज यह अपने घर छोडकर स्वातघाटी से दूर-दराज के क्षेत्रों चांगली, जहांगी, गोगा, गहूर, गोस्टी, सांबरी, कोहाट आदि में टेंट लगाकर जीवनयापन करने को मजबूर हैं। गुरू द्वारा पंजा साहिब में सैकडों हिन्दू-सिख शरण लिए हुए हैं। आज पाकिस्तान में इसे लेकर न कोई मानवाधिकारवादी आवाज उठा रहा है न सरकार का इस ओर कोई ध्यान है कि अल्पसंख्यक भी पाकिस्तान के उतने ही अहम नागरिक हैं जितने कि वहाँ के बहुसंख्यक समाज के लोग।

हां! इसे लेकर अमेरिका में सिख समुदाय की संस्था काउंसिल ऑफ रिलीजियस एण्ड एजूकेशन तथा समय-समय पर विश्व हिन्दू परिषद् जरूर अपना विरोध जताती रही हैं। लेकिन इस बार काउंसिल ऑफ रिलीजियस एण्ड एजूकेशन ने अपनी आपत्ति साक्ष्यों के साथ सार्वजनिक करते हुए हिन्दू-सिखों की जानमाल की रक्षा हेतु पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने की मांग की है।

लगातार पाकिस्तानी राष्टन्पति आसिफ अली जरदारी से यह मांग की जा रही है कि वह अपने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा और भयमुक्त माहौल प्रदान करने की व्यवस्था करें। किन्तु पाकिस्तान की वर्तमान परिस्थितियाँ यही बता रहीं हैं कि स्वयं जरदारी की इस कार्य में कोई रूचि नहीं कि वे अपने देश के अल्पसंख्‍यकों की ओर ध्यान दें। वस्तु: इस विकट परिस्थिति में सिर्फ अमेरिका से किसी संस्था के आवाज उठाने से काम नहीं चलने वाला। हिन्दू-सिख बहुसंख्यक समाज के अनेक संगठन और स्वयंसेवी संस्थाएँ भारत सहित अनेक देशों में फैली हुई हैं। आखिर इतने बडे मुद्दे पर वह क्यों चुप बैठी हैं? धर्म और जाति के नाम पर उनके सहोदरों को अनेक कठिनाईयाँ उठानी पड रहीं हैं तब यह संस्थाएँ खुलकर उनके समर्थन में स्वतंत्र भारत तथा अन्य देशों में अपनी आवाज बुलंद क्यों नहीं करतीं?

जब डेनमार्क में किसी पत्रकार द्वारा मोहम्मद साहब के चित्र के साथ छेडछाड की गई, तब विश्वभर के देशों में एक समुदाय विशेष ने इसके विरोध में बडे-बडे जुलूस निकाले थे, जिनमें से अनेक स्थानों पर उन्होेंने हिंसा का रूप भी लिया। लज्जा उपन्यास में बांग्लादेशी हिन्दू अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों की सच्चाई लिखी गई तो उपन्यासकारा लेखिका तस्लीमा नसरीन के विरूध्दा जिहादी शक्तियों ने मौत का फरमान जारी कर दिया था। जिसके बाद से लगातार यह महिला अपने देश से दूर निवार्सित जीवन जीने को मजबूर है, इनके निवार्सित जीवन को लेकर जिस प्रकार भारत सहित अन्य देशों में आवाज बुलंद की गई, परिणामस्वरूप बांग्लादेश सरकार पर तस्लीमा की सुरक्षा सम्बन्धी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने दबाव बनाया था ठीक उसी प्रकार आज इस बात की जरूरत है कि भारत सहित विश्व के अनेक देशों में रह रहे हिन्दू-सिख अपने धर्मभाईयों पर हो रहे पाकिस्तानी अत्याचार के खिलाफ एकजुट होकर आवाज बुलंद करें। क्या पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए हिन्दू और सिख एक शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय मंच खडा नहीं कर सकते हैं?

-मयंक चतुर्वेदी