भीड़ का नफा भी भगदड़ का कारण होता है

जयसिंह रावत

मौनी अमावस्या के महापर्व पर प्रयागराज महाकुम्भ में अखिर जो डर था, वही हुआ। इतने स्नानार्थियों की मौत और उससे कहीं अधिक लोगों का घायल हो जाना बहुत ही दुखद स्थिति है लेकिन इस बेशुमार और अनियंत्रित महारेले में और भी अधिक भयावह स्थिति पैदा हो सकती थी। इस हादसे के लिये मानवीय भूल और भीड़ नियंत्रण की विफलता को तो जिम्मेदार माना ही जायेगा। चूंकि सरकार इतनी अधिक भीड़ जुटाने का श्रेय ले रही थी, इसलिये हादसे का अपयश भी स्वीकार करना ही चाहिये.  प्रशासन तंत्र की मशीनरी तो सीधे तौर पर हादसे के लिये जिम्मेदार मानी ही जायेगी लेकिन हादसे के पीछे एक और महत्वपूर्ण कारण भी है जिस पर कभी सवाल नहीं उठता। दरअसल यह कारण है धार्मिक आयोजनों में अधिक से अधिक भीड़ जुटा कर श्रेय लेने की होड़। जितनी अधिक भी भीड़ जुटेगी, उतना ही अधिक उस आयोजन का महत्व बढ़ जाता है। इसीलिये धार्मिक आयोजनों में बार-बार हादसे होते हैं लेकिन भीड़ का आकर्षण कम होने के बजाय बढता ही जाता है।

अभी कुछ ही समय पहले तिरुपति में भी तो भगदड़ हादसा हुआ था। पिछले ही साल उत्तर प्रदेश के हाथरस के धार्मिक समागम की भगदड़ में 121 लोग मारे गये थे। उससे भी पहले वैष्णो देवी का हादसा हो चुका था। महाकुम्भ का तो भगदड़ों का लम्बा इतिहास है। इससे पहले 1840, 1906, 1954, 1986, 2003, 2010 और 2013 में भी कुम्भों में भगदड़ों का इतिहास उपलब्ध है। सन 1954 के प्रयागराज महाकुम्भ की भगदड़ के हताहतों की सही संख्या सामने नहीं आयी। किसी ने 350 तो किसी ने 800 तक हताहतों की संख्या का आंकलन किया था। फिर भी कुंभ के ज्ञात इतिहास का उसे सबसे बड़ा भगदड़ हादसा माना जाता है। हरिद्वार के 2010 कुम्भ हादसे को राज्य सरकार ने भगदड़ मानने से इंकार कर दिया था और केवल 7 लोगों को हताहत बताया था लेकिन कुम्भ के बाद गंगा नदी के बैराज पर तीन दर्जन से अधिक शव अटके हुये मिले थे हालांकि जरूरी नहीं कि सारे शव भगदड़ हताहतों के रहे हों।

प्रयागराज महाकुम्भ के भगदड़ हादसे के कारणों की जांच के लिये कमेटी का गठन हो चुका है और आफिशियली उन कारणों का खुलासा कुछ दिन बाद ही होगा लेकिन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री स्वयं कह चुके हैं कि हादसे का असली कारण अत्यधिक भीड़ थी। इससे पहले सरकार की ओर से प्रचारित किया जा रहा था कि धरती के इस महाआयोजन में 45 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के पहुंचने की आशा है। हर रोज स्नानार्थियों के आंकड़े सरकारी तौर पर भी प्रचारित होते रहे और राज्य सरकार असीमित भीड़ के पहुंचने से गदगद होती रही जबकि दो महीनों के अन्दर एक छोटे से स्थान पर 45 करोड़ लोगों का एकत्र होना बहुत भारी जोखिम की बात थी और इसके लिये भीड़ नियंत्रण और प्रबंधन के पहले ही पुख्ता इंतजाम होने चाहिये थे।

इसमें संदेह नहीं कि इस महाकुभ में बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ के जुटने की सम्भावना को देखते हुये उत्तर प्रदेश सरकार ने व्यापक तैयारियाँ की थी। मेला क्षेत्र को लगभग 40 वर्ग किलोमीटर तक विस्तारित कर 25 सेक्टरों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक सेक्टर में आवास, सड़कें, बिजली, जल आपूर्ति और संचार टावर की सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं। यह विस्तार 2019 के कुंभ की तुलना में 800 हेक्टेयर अधिक है, जो इस आयोजन के विशाल स्तर को दर्शाता है। लेकिन मेला क्षेत्र को जितना चाहो उतना फैला दो मगर स्नान घाट या गंगा तट की लंम्बाई तो गंगा नदी की लम्बाई सीमित ही रहेगी। उस पर भी लोग धार्मिक महत्व की परिकल्पना से कुछ खास घाटों पर ही स्नान करना चाहते हैं, जिससे कुछ खास स्थानों पर भीड़ का दबाव और भी असहनीय हो जाता है। इसलिये उन घाटों की क्षमता के हिसाब से ही भीड़ का प्रबंधन होना चाहिये था। हरिद्वार में भले ही लोग हरि की पैड़ी पर स्नान करने की लालसा रखते हैं फिर भी वहां संगम नहीं है और गंगा का तट काफी लम्बा है जहां लोग कहीं भी स्नान कर सकते हैं। हरिद्वार महाकुम्भ में भी कई किमी अलकनन्दा और भागीरथी के संगम देवप्रयाग तक कुम्भ क्षेत्र घोषित किया जाता है मगर स्नान तो हरिद्वार के घाटों पर ही होते हैं।

विज्ञान और प्रोद्योगिकी के इस युग में भी एक ही स्थान पर चलते हुसे करोड़ों नरमुंडों की सटीक गिनती करना संभव नहीं है। फिर भी जमा हुये करोड़ों लोगों की गिनती का आंकड़ा जारी कर दिया जाता है। ऐसा केवल प्रयागराज में ही नहीं बल्कि हरिद्वार, नासिक और उज्जैन के कुम्भों में भी आंकड़े जारी कर दिये जाते हैं। वर्ष 2010 के हरिद्वार महाकुंभ में उत्तराखण्ड सरकार ने अपने अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र के माध्यम से सेटेलाइट इमेजरी से गिनती करा कर 9 करोड़ लोगों के गंगा घाटों पर स्नान करने का आंकड़ा जारी किया था। दरअसल सरकारें भीड़ के उफान को अपनी कामयाबी का पैमाना मान लेती हैं। कुम्भ ही क्यों? उत्तराखण्ड की चारधाम यात्रा के भीड़ अर्जन की भी यही कहानी है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सन् 2000 में चाधाम यात्रा पर कुल 12,92, 411 तीर्थयात्री पहुंचे थे जिनकी संख्या 2024 में 45,44, 975 तक पहुंच गयी और यात्री संख्या में इस भारी उछाल को सरकारें अपनी उपलब्धि मान रहीं हैं। जबकि सरकार द्वारा इतनी भारी भीड़ का पूरे संसाधन झोंकने पर भी सही प्रबंधन नहीं हो पाता। और पर्यावरणीय हानि तो गिनती में ही नहीं है।

सरकारें तो फिर भी अपनी भारी भरकम मशीनरी के जरिये काफी हद तक भीड़ प्रबंधन कर लेती हैं लेकिन धार्मिक संस्थाओं के लिये इतनी अधिक भीड़ को प्रबंधित करना आसान नहीं होता और वे फिर भी दोगुनी और चौगुनी भीड़ की अपेक्षा करती हैं चाहे उनके पास उतने संसाधन हों या न हों। जितनी अधिक भीड़ आती है, उतना ही अधिक उस धर्मस्थल का महात्म्य और प्रसिद्धि प्रचारित कर दी जाती है ताकि अगली बार और अधिक भीड़ जुटने के साथ ही राजस्व भी जमा हो सके। विख्यात धर्मस्थलों के अलावा संत महात्मा, अध्यात्मिक गुरू भी अपने प्रवचनों और सन्त समागमों के लिये भीड़ जुटाते रहते हैं। पिछले ही साल हाथरस में भोले बाबा के धार्मिक समागम में हुयी भगदड़ में 121 श्रद्धालुओं की जानें चलीं गयीं थी। ऐसी भी एक भगदड़ 9 नवम्बर 2011 को हरिद्वार के शांतिकुंज के समागम में हुयी थी।

जयसिंह रावत

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