जनता को भरोसे में लेने की चुनौती

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lalu and nitishलालू प्रसाद यादव ने नीतीश के नेतृत्व में साथ मिलकर चुनाव लड़ने की हामी भर दी है। यह दीगर है कि उन्होंने यह निर्णय मन से लिया है या मजबूरी में या इसके पीछे उनकी कोई सुनियोजित रणनीति है। पर कुटनीतिक बिसात पर नीतीश ने उन्हें पहली ही चाल में पटकनी दे दी है। पछाड़ खाए लालू अब कह रहे हैं कि सांप्रदायिकता के फन कुचलने के लिए कोई भी जहर पीने को तैयार हैं। पर वे इससे अंजान भी नहीं कि राजनीति में बीते हुए की कुर्बानी आने वाले कल के सुनहरे भविष्य की गारंटी नहीं होती। विचार करें तो लालू के पास नीतीश को अपना नेता मानने के अलावा फिलहाल कोई चारा भी नहीं था। वे अदालती फैसले की वजह से चुनाव लड़ने के योग्य नहीं थे। अगर वे अपने किसी परिजन को मुख्यमंत्री पेश करते तो न सिर्फ उनकी जगहंसाई होती बल्कि पार्टी में भी तूफान उठता। हालांकि लालू ऐसे सियासतदानों में से नहीं हैं जो आसानी से हार मान जाए। पहली नजर में वे भले ही इस सियासी खेल में मजबूर और हारे नजर आ रहे हों पर उनकी सियासत को समझने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे नुकसान में भी रहकर सियासी फायदा उठा लेने में माहिर हैं। अगर उन्होंने धुर विरोधी नीतीश को अपना नेता माना है तो वे इसकी भरपाई के लिए कील-कांटा भी तैयार कर लिया होगा। उनकी कोशिश होगी कि नीतीश को नेता मानने से होने वाले संभावित राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए सीट बंटवारे के तहत अधिक से अधिक सीटें झटक लें ताकि जेडीयू के बनिस्बत विधानसभा में उनके विधायक ज्यादा नजर आएं। पता नहीं दोनों दलों के बीच इस तरह का कोई समझौता हुआ है या नहीं। पर स्वाभाविक रुप से दोनों दलों में से जिस दल के सर्वाधिक विधायक चुनकर आएंगे वहीं सिकंदर होगा। साथ ही चुनाव पूर्व नेता स्वीकारने का कोई मतलब भी नहीं रह जाएगा। हो सकता है कि लालू इसी रणनीति के तहत नीतीश को अपना नेता स्वीकारे हो। पर उनका सपना पूरा होगा कि नहीं यह कहना अभी कठिन है। ऐसा नहीं है कि नीतीश लालू के इस रणनीति से वाकिफ नहीं होंगे। वे लालू की हर चाल को अच्छी तरह समझते हैं। वे तभी सतर्क हो गए जब लालू ने पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को महागठबंधन में शामिल करने का राग अलाप उन्हें अर्दब में लेने की कोशिश की। पर लालू अपनी कुटनीति को परवान चढ़ाते उससे पहले ही नीतीश ने दिल्ली में राहुल गांधी से मुलाकात कर उनकी रणनीति को भोथरा कर दिया। हालांकि लालू ने दस जनपथ से गुहार लगाने की कोशिश की लेकिन उनकी आवाज नहीं सुनी गयी और दरवाजा बंद मिला। कहते हैं न कि राजनीति मौके की मोहताज होती है। अब कांग्रेस के लिए लालू फायदे का सौदा नहीं रहे। अब कांग्रेस बिहार में नीतीश की सवारी करना चाहती है। नीतीश को नेता चुने जाने के बाद अब सबकी निगाह जेडीयू-राजद के बीच होने वाले सीट बंटवारे पर होगी जब दोनों दल एकदूसरे से अधिक सीटें झटकने की दांव चलेंगे। चूंकि इस गठबंधन में कांग्रेस का शामिल होना तय है और राहुल गांधी और नीतीश के बीच आपसी समझ भी बन गयी है, के अलावा बिहार कांग्रेस इकाई भी राजद के बजाए जेडीयू से मिलकर चुनाव लड़ने को इच्छुक है ऐसे में उम्मीद कम ही है कि नीतीश कुमार सीट बंटवारे के सवाल पर लालू के दबाव आने वाले। अब दबाव लालू यादव को सहना होगा। इसलिए और भी कि नीतीश की रणनीति है कि अगर सीट बंटवारे को लेकर लालू से तालमेल नहीं बैठता है तो वे राजद को ज्यादा सीट देने बजाए कांग्रेस, वामदलों और एनसीपी के साथ मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ेंगे और लालू को अकेले कर देंगे। लालू भी नीतीश के दांव को समझ रहे हैं। यही वजह है कि वे नीतीश को नेता मानकर अनुकूल परिस्थितियों का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि सच यह भी है कि अगर जेडीयू राजद को पर्याप्त सीटें नहीं देती है तो उसका महागठबंधन से अलग होना तय है। फिर लालू अन्य विकल्प पर विचार करेंगे। उनकी प्राथमिकता में पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के नई-नवेली पार्टी हिंदुस्तान अवाम पार्टी हो सकती है। मांझी की भी इच्छा है कि वे बिहार में किसी बड़े राजनीतिक दल से हाथ मिलाकर इतनी सीटें जीत लें ताकि चुनाव बाद सरकार के गठन में उनकी भूमिका प्रभावी हो। राजद के भी कई बड़े नेता जेडीयू के साथ जाने के बजाए मांझी के साथ चुनावी गठबंधन के पक्ष में हैं। इसकी मुख्य वजह बिहार में दलितों की 16 फीसदी आबादी है जिस पर सभी राजनीतिक दलों की निगाह जीम है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि जो कोई भी दल मांझी की हिंदुस्तान अवाम पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन करेगा वह फायदे में रहेगा। बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद दलितों का एक बड़ा वर्ग मांझी के साथ है और नीतीश के विरुद्ध। गौर करें तो जेडीयू के बनिस्बत बिहार में राजद का संगठन मजबूत है और कार्यकर्ता सक्रिय हैं। मुस्लिम-यादव वर्ग पर लालू की पकड़ भले ही पहले जैसी नहीं रही लेकिन उतनी कमजोर भी नहीं हुई है। ऐसे में अगर मुसलमान-यादव और दलितों की युगलबंदी होती है तो इससे लालू और मांझी दोनों की ताकत बढ़ेगी। लेकिन यह काफी कुछ इस पर निर्भर करेगा कि जेडीयू-राजद सीट बंटवारे में लालू यादव को इच्छा मुताबिक सीटें मिलती हैं या नहीं। हालांकि नीतीश राजद की झोली में अधिक सीटें गिराकर लालू को मजबूत करने वाले नहीं। उन्हें पता है कि लालू का मजबूत होने से उनकी स्थिति कमजोर होगी। जेडीयू की रणनीति है कि अगर सीट बंटवारे के मसले पर लालू गठबंधन से अलग होते हैं तो भी उसे नुकसान नहीं पहुंचने वाला। उसे भरोसा है कि कांग्रेस के साथ आने से अल्पसंख्यक वर्ग जो आज लालू के साथ है वह उसके साथ आ जाएगा। बहरहाल दोनों दल मानकर चल रहे हैं कि उनके बीच सीट बंटवारे को लेकर किसी तरह का मतभेद नहीं होगा। लेकिन उन्हें एक चिंता जरुर सताए जा रही है कि अगर उनके हिस्से में पर्याप्त सीटें नहीं आयी तो पार्टी में बगावत को रोकना आसाान नहीं होगा। चूंकि जेडीयू को सत्ता का भोग लगाते डेढ़ दशक हो गए ऐसे में कोई भी मंत्री या विधायक अपनी सीट राजद को देना पसंद नहीं करेगा भले ही बगावत का झंडा क्यों न उठाना पड़े। कुछ ऐसी सीटें हैं भी जहां हर विधानसभा चुनाव में जेडीयू और राजद के बीच कांटे का मुकाबला रहा है और महज कुछ वोटों से जीत-हार हुई है। संभव है कि इन सीटों पर दोनों दल अपनी दावेदारी पेश करें और तल्खियां बढ़े। सीट बंटवारे के अलावा दोनों दलों के लिए जनता को विश्वास में लेना भी बड़ी चुनौती है। उन्हें जनता को समझाना होगा कि कल तक ज वे एकदूसरे को कोसते थे वे आज बगलगीर क्यों हैं? नीतीश कुमार को जवाब देना होगा कि जिस लालू के राज को वे जंगलराज करार देते थे अब उन्हीं के साथ गलबहियां कर बिहार को किस तरह सुशासन देंगे? बहरहाल नीतीश और लालू दोनों के लिए जनता को विश्वास में लेने की बड़ी चुनौती है। लेकिन इस युगलबंदी ने बिहार में भारतीय जनता पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी है।

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