डा. विनोद बब्बर
नवरात्र ‘शक्ति-जागरण‘ पर्व है। पुराणों में शक्ति उपासना के अनेक प्रसंग हैं। भगवान राम ने रावण को पराजित करने से पूर्व शक्ति की उपासना थी तो श्रीकृष्ण ने योगमाया (देवी कात्यायनि) का आश्रय लेकर ही विभिन्न लीलाएं की। नवरात्र भारतीय गृहस्थ के लिए शक्ति-पूजन, शक्ति-संवर्द्धन और शक्ति-संचय के दिन हैं। नवरात्र में शक्ति की आराधना व्रतादि के द्वारा हम त्रिविध शक्ति का संचय कर भाव जीवन-यात्रा के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। वर्ष में दो बार 9 दिन ‘नवरात्र’ आते हैं, एक चैत्र वासन्तिक नवरात्र और दूसरे आश्विन में शारदीय नवरात्र। वास्तव ये अवसर ऋतु परिवर्तन के है। चैत्र में ग्रीष्म ऋतु आती है तो आश्विन में शरद का आगमन निकट होता है। क्या वृक्ष, लता, गुल्मादि वनस्पति, क्या जल, क्या आकाश और वायु-मण्डल सभी में परिवर्तन होने लगता है।
दोनो ही नवरात्रों के अवसर पर प्रकृति अपने यौवन पर होती है, अर्थात् धरती पर वृक्षों, लताओं, वल्लरियों, पुष्पों एवं मंजरियों पर हर तरफ हरियाली से साक्षात्कार होता है। खेत खलिहान लहलहाते हैं क्योंकि खरीफ और रबी की फसलें तैयारी की ओर होती है। जब प्रकृति अपनी सुगन्ध समीर का प्रसार करती है, उसी समय गली-गली शक्ति स्परूपा मां भगवती की उपासना के नौ दिनों हर तरफ उत्सवी माहौल रहता है।
यह समय जब न अधिक गर्मी है, न अधिक सर्दी है. मनुष्य शरीर को कष्ट दिये बिना सहजता से उपासना, व्रत कर सकता है। नौ दिन उपवास करना केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं बल्कि स्वास्थ्य रक्षा का आवश्यक अवसर भी है। तुलसी दास ने भी श्री रामचरितमानस में उपवास के बारे में कहा है- भोजन करिउ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।
हमारे ऋषियों की देन विश्व की श्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में भी उपवास का विस्तृत उल्लेख मिलता है। नवरात्र जैसे ऋतु संधि के अवसर पर इसे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए बहुत लाभदायक बताया गया है। आयुर्वेद में कहा गया है- ‘आहारं पचति शिखी दोषनाहारवर्जितः।‘ अर्थात् जीवनी-शक्ति भोजन को पचाती है। यदि भोजन न ग्रहण किया जाए तो जीवनी-शक्ति शरीर से विकारों को निकालने की प्रक्रिया में लग जाती है।
ऋतु संधि के अवसर पर लगभग प्रत्येक व्यक्ति का शरीर प्रभावित होता है। कारण है ऋतु-परिवर्तन मानव शरीर में छिपे हुए विकारों एवं ग्रंथि-विषों को उभार देता है। यह उसी का स्वाभाविक परिणाम होता है कि हम अक्सर सर्दी जुकाम, बुखार, पेचिश, मल, अजीर्ण, चेचक, हैजा, इन्फ्लूएंजा आदि रोगों के प्रभाव में आ जाते हैं। अतः यह उचित समय है जब हम उपवास द्वारा शरीर के रसायनों को संतुलित कर जीवनी-शक्ति को बढ़ाते है। यह बात विशेष रूप से समझने की है कि सामान्य उपवास और ऋतु संधि अर्थात् नवरात्र पर किये गये उपवास में अंतर है। नवरात्र में जब चहुँ ओर वातावरण विशेष ऊर्जा और उत्साह लिए होता है, हम उपवास के माध्यम से संयम, ध्यान और भक्ति को उनके वास्तविक अर्थों में समझ और अनुभव कर सकते हैं। यह अवसर हमारे शारीरिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास का महत्वपूर्ण काल होता है।
यह विशेष स्मरणीय है कि उपवास का हर धर्म, सम्प्रदाय में महत्व है। उपवास को वैज्ञानिक व्यवहार भी कहा जा सकता है जबकि नवरात्र उपवास को आध्यात्मिक स्पर्श देते हुए ऋतु परिवर्तन की इस बेला पर अंग-प्रत्यंग को ऊर्जा प्रदान करते हुए मन- मस्तिष्क को नवउत्साह और आनंद से सराबोर करता है।
संसार के अधिकांश रोगी इन दोनों मासों में या तो शीघ्र अच्छे हो जाते हैं या मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए वेदों में -‘जीवेत् शरदः शतम्’- प्रार्थना करते हुए सौ शरत् काल पर्यन्त (वर्षाकाल पर्यन्त नहीं) जीने की प्रार्थना की गई है। उसमें वसन्त की अपेक्षा शरद् कुशलता से बीत जाए तो वर्ष भर जीने की आशा बंध जाती है इसी कारण वर्ष का अपर नाम ही ‘शरत्’ पड़ गया।
शास्त्रकारों ने सन्धिकाल के इन मासों में शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिए नौ दिन तक विशेष व्रत का विधान किया है। घर में भगवती की आराधना के लिय जौं बोये जाते हैं इनको गर्मी पहुँचाने के लिए आक धतूरा आदि के पत्ते चाहिए, पूजन के लिए फूल भी आवश्यक है, अतः वैसे आप चाहे भ्रमण के लिए न जाते हों, पर इनको लाने के लिए तो आपका प्रातः उठकर वन की ओर जाना ही होगा। प्रातःकालीन प्राणपद वीरवायु का सेवन स्वास्थ्य के लिए अमित गुणकारी होता है। फूल और पत्तों के संग्रह के बहाने यह भ्रमण-‘वसन्ते भ्रमणं पथ्यम्’ -के अनुसार शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अतीव उपयोगी सिद्ध होगा। इस दिन तक निरन्तर जाने से अब भ्रमण में कुछ आनन्द-सा आने लगा, अब आप बिना किसी के उठाए स्वयं प्रबुद्ध होकर भ्रमणार्थ जा सकते हैं। गृहकोण स्थित भगवती के मण्डप के सामने अहर्निश जलते हुए धृत और तेल के दीपों का सुस्निग्ध धूम और पूजन के समय जलाए जाने वाले धूप, अगर बत्ती, कर्पूरादि सुगान्धित पदार्थों का धूम इस सन्धिकाल में उत्पन्न होने वाले सभी कीटाणुओं का विनाश कर स्वयं हमें और हमारे परिजनों को में कीटाणुओं से होने वाले रोगों से मुक्ति का उपाय करता है।
नवरात्रों का समय शारीरिक-शक्ति का संवर्द्धक हैं, वहां मानसिक- शक्ति-संचय के लिए भी नवरात्र महत्वपूर्ण अवसर है। भगवती जगदम्बिका के सामने सप्तशती, देवी-भागवत, वाल्मीकि -रामायण, रामचरितमानस या इसी प्रकार के -सुप्त आत्माओं के प्राण फूँक देने वाले उदात्त चरित्रों के पारायण करने से आपकी मानसिक-शक्ति का विकसित होना निश्चित् ही हैं.
नवरात्र पूजन के अंतिम दिन कन्या पूजन का धार्मिक कारण यह है कि कुंवारी कन्याएं माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती हैं।
मां दुर्गा उस पर अपनी कृपा बरसाती हैं। वैसे भी ‘सप्ताशती‘ के अनुसार ‘स्त्रियः समस्तास्तव देवि भेदाः।‘ अर्थात विश्व की सभी नारियाँ‘ भगवती के भेद या प्रकार है।
नव रक्त-संचारी वसन्त का प्रभाव शेष होने के कारण तन-मन में मादकता की तरंगे उठेंगी, परंतु संयम को अधिमान देते हुए इन दिनों व्रती रहना चाहिए। कहा भी गया है- ‘स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु’ – के अनुसार विश्व की सम्पूर्ण स्त्रियों को जगदम्बा का ही रूप समझते हुए वीर वीरांगनाओं के चरित्र-परायण द्वारा वह मानसिक बल सम्पादन करना है कि काम क्रोधादि तुच्छ शत्रु आपके मन पर विजय न पा सकें। इस प्रकार नवरात्र के अनुष्ठान का अध्यात्मिक महत्व होने के साथ-साथ शक्तिवर्द्धक होना तय है। ‘तज्जपस्दर्थभावनम्’ अर्थात् किसी भी ग्रंथ अथवा मंत्र का पारायण करते हुए उसके अर्थ को हृदयंगम करने, उसके गुणों को धारण करने से आत्मिक शक्ति विकसित होती हैं।
डा. विनोद बब्बर