गंगा दशहरा के बहाने दामोदर की कहानी

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उत्तम मुखर्जी

धर्म-ज्ञान के जानकार कहते हैं कि शिवजी की जटा से ही तो निकली है हर-हर गंगे, लेकिन मैं चर्चा करूंगा दामोदर नदी की। आज आपको सुनाऊंगा एक सिसकती नदी की कहानी। जिस तरह सांप के लिए उसका बहुमूल्य मणि अभिशाप बन जाती है, उसी तरह धरा की कोख पर अकूत खनिज़ सम्पदा ने दामोदर को तबाह कर दिया है।क्या नहीं है इसके तट पर? कोयला, लोहा, तांबा, मैगनीज़, बालू….सबकुछ। बड़े भू-भाग को यह नदी सिंचित भी करती है।अब तो विदेशियों की नज़र पड़ गई है दामोदर पर। दर्द और ज़ख्म से कराह रही सबसे अधिक मिनरल्स संभालकर रखी एक असहाय, उपेक्षित नदी। सहम सी गई है दामोदर, जिसके रौद्ररूप से कभी दुनिया सहमती थी।
दामोदर ‘नदी’ नहीं है। यह नद है।पौरुषता इसकी पहचान है। इसे ‘देवनद’ भी कहा जाता है। जानकार कहते हैं कि भगीरथ पवित्र गंगा का आवाहन धरा पर करने के पहले इसी देवनद का चरण स्पर्श करने आए थे।
कहा तो यहां तक जाता है कि सनातन, बौद्ध, जैन के साक्ष्यों को नदी तट के इलाके आज भी संभालकर रखे हैं। जल,जंगल, ज़मीन के लिए संघर्षरत वन-बंधुओं के विरोध के स्वर को आदिकाल से सींचती रही है यह नदी। पत्थरों में गुफाएं बनाकर चट्टानों को चीरती हुई यह नदी पलामू से होकर बंगाल की हुगली नदी तक लम्बा सफ़र तय करती है। मानभूम (बंगाल के पुरूलिया, झारखण्ड के धनबाद, बोकारो को मिलाकर एक बड़ा जिला पहले था) में ही आदि जैनियों का निवास रहा है। पुरूलिया के बलरामपुर से लेकर धनबाद के कतरास तक जैनियों की एक लम्बी श्रृंखला थी। दामोदर के तट पर रह रहे अहिंसा की राह पर चलनेवाले इस समुदाय को सराक कहा जाता है। संस्कृत के श्रावक अर्थात ‘आस्था रखनेवालों’ से संभवत: सराक शब्द की उत्पत्ति हुई है, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। पुरूलिया जिले का तेलकुप्पी इस समुदाय का मुख्य केंद्र रहा है।इस समाज के लोग शुरू से ही मास्क लगाते हैं। मांसाहार से दूर रहते हैं।रात को भोजन के साथ कीड़े मकोड़े की भी हत्या न हो जाए इसलिए सूर्यास्त के बाद वे भोजन भी नहीं करते हैं। अपनों के बीच दूरी बनाकर रखते हैं और समय-समय एकांतवास में रहते हैं। उस समय पढ़ते हैं। ज्ञान अर्जित करते हैं। तीर्थंकर का ध्यान करते हैं। मेटालिस्टिक वर्ल्ड से कुछ समय तक खुद को अलग कर लेते हैं। आज जो मास्क, सोशल डिस्टेंस, क्वारेण्टाइन, आइसोलेशन का हौवा पूरी दुनिया में दिख रहा है और लोग आतंकित भी हैं, कभी दामोदर के तट पर हमारे ही किसी समुदाय के लिए यह परम आनन्द प्राप्ति का उत्सव था।
यही दामोदर आज तबाह है। तड़प रही है झारखण्ड-बंगाल की लाइफलाइन। झारखण्ड के लोहरदगा जिले के कुडू प्रखण्ड स्थित सलगी के दुर्गम जंगल के चूल्हापानी से 610 मीटर पहाड़ियों की ऊंचाई से यह नदी निकल रही है। गंगा दशहरा के अवसर पर उद्गम स्थल पर आज पूजा भी हो रही है। तकरीबन 600 किलोमीटर के आसपास की दूरी तय करती है यह नदी। झारखण्ड में 290 किलोमीटर का सफ़र करने के बाद पड़ोसी राज्य बंगाल में भी यह नदी 240 किलोमीटर की दूरी तय करती है। फ़िर हुगली नदी में विलीन हो जाती है। बंगाल के आसनसोल, रानीगंज, बांकुड़ा की सीमारेखा भी यह नदी तय करती है।
सन 1730 में दामोदर के रौद्ररूप से पूरी दुनिया थर्रा उठी थी। फ़िर तो इस नदी का कहर लगातार जारी रहा। वर्ष 1943 में दामोदर के बाढ़ ने बंगाल को तबाह कर दिया।उस समय इस नदी को ‘बंगाल का शोक’ कहा जाता था। प्रथम प्रधानमंत्री नेहरूजी ने इस पर दुनिया के एक्सपर्टों से मदद मांगी। बंगाल के गवर्नर ने वर्दमान के महाराजा की अध्यक्षता में दामोदर को लेकर एक कमिटी बनाई जिसमें मशहूर वैज्ञानिक डॉ मेघनाद साहा को भी सदस्य बनाया गया था। डब्ल्यू एल बुड़ुइन ने इस पर एक रिपोर्ट सौंपी। अमेरिका के टेनेसी नदी घाटी पर बने प्रोजेक्ट के अनुरूप हमारे देश में भी दामोदर वैली कॉर्पोरेशन बना। बांध बना। जलविद्युत का उत्पादन शुरू हुआ। अमेरिका की ‘टेनेसी वैली ऑथोरिटी (टीवीए) की तर्ज़ पर ही हमारे यहां दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) बना।
देश की सभ्यता, संस्कृति, प्रचूर खनिज़ सम्पदा को संभालकर रखी यह नदी आज उपेक्षित है।हर पल सरकार की, उद्यमियों की अंततः हमारी भी ज्यादती बर्दाश्त करती रहती है। उद्गमस्थल से कल कल बहकर उत्सव का गायन गाती पत्थरों का सीना चीरकर यह नदी निकलती है, लेकिन औद्योगिक शहरों में घुसते ही यह नदी कराह उठती है। अनगिनत कोलियरियां, वाशरी,ताप बिजली घर, छोटे-मोटे उद्योग सभी नदी की धारा में ज़हर घोलने की प्रतिस्पर्द्धा में लगे हैं। दामोदर के तट पर कुल दस थर्मल पावर प्लांट हैं, जहां से रोज 24 लाख मीट्रिक टन ज़हरीला कचड़ा दामोदर में जाता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 94 यूनिटों की पहचान की थी, जहां से 65 करोड़ टन गंधक पानी में मिलकर तेज़ाब बनाता था। एकसमय ऐसा आया था जब जानवर भी दामोदर के पानी पर मुंह नहीं लगाते थे। इसके साथ ही दामोदर बेसिन आज भयावह संकट में है। राजनीतिक संरक्षण प्राप्त माफ़िया गैरकानूनी तरीके से बालू की लूट मचाकर रखे हैं।
दामोदर आज है तो महानगर जगमग है। हम, आप रौशन है। यह इलाका 8,768 मेगावाट बिजली देश को देता है। फ़िर भी दामोदर का गला घोंटने की होड़ मची हुई है।
देश में अन्य नदियों की तरह दामोदर पर ध्यान किसी भी सरकार का नहीं होता है। केंद्र सरकार ने महानदी रिवर बेसिन प्रोग्राम बनाया था। इसमें दामोदर का आच्छादन मात्र 0.18 प्रतिशत है। यह ऊंट के मुंह में ज़ीरा के समान है। इसी तरह एनजीटी (नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) को भी कभी दामोदर के मामले में अपेक्षित गंभीर नहीं देखा गया।कम से कम दामोदर को बचाने के लिए सरकार को कैम्पा फण्ड का सहारा लेना चाहिए, जहां तकरीबन पांच हज़ार करोड़ का कोष मौज़ूद है।
दामोदर को लेकर पूर्व मंत्री और वर्तमान विधायक सरयू राय हल्ला करते रहे हैं। उनका अभियान निरंतर जारी रहा। बाकी जनप्रतिनिधि हमारी जीवन-धारा को लेकर रहस्यमय चुप्पी साधे रहे। कुछ तो दामोदर की धारा में डुबकी लगाकर अब तक अकूत सम्पत्ति का मालिक भी बन चुके हैं। सरकार का दावा है कि इधर दामोदर पहले की तरह प्रदूषित नहीं है।
इधर नए सिरे से दामोदर पर बड़ा खतरा मंडरा रहा है। इस बार दुनिया के चर्चित खनन-दैत्यों के निशाने पर है दामोदर। भारत में कोयले पर शत-प्रतिशत एफडीआई लागू हो चुका है।अमरीकी और चीनी कम्पनियों की नज़र है हमारे कोयले पर।उनके लिए दरवाज़ा खुल गया है। भारत में करीब 319 बिलियन टन कोयले का भंडार है। इसमें 173 बिलियन टन में तुरन्त खनन सम्भव है। दुनिया में सबसे अधिक कोल रिज़र्व अमरीका के पास है। हमारा भंडार तो मात्र सात प्रतिशत है। हम भंडार के मामले में पांचवें स्थान पर हैं। जिन मुल्कों में कोयला अधिक है वे अगली पीढ़ी के लिए कोयला छोड़ दे रहे हैं। वे क्लीन एनर्जी के रास्ते पर चल पड़े हैं। ऐसे में वहां बेरोजगार हुई माइनिंग कम्पनियों के लिए हमारी माटी सबसे बेहतर साबित होती दिख रही है।सबसे कम भंडार होने के बावज़ूद हिंदुस्तान में कोयले का इस्तेमाल दुनिया में सबसे अधिक है। इसी से हमारा जीवन स्तर का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। फ़िर भी कोयले के लिए इतनी आपाधापी हैरत में डालनेवाली है।
दामोदर का दुर्भाग्य कहिये कि देश में सबसे अधिक कोयला तक़रीबन 80,716 मिलियन टन झारखण्ड में है। दामोदर के तट पर… धरा की कोख पर सुरक्षित यही कोयला दामोदर के लिए अभिशाप बननेवाला है।
एक नदी आज सिसक रही है। नेता मदमस्त हैं। उद्यमी खुद के दर्द से परेशान। मीडिया बेख़बर है। सर्वत्र दामोदर के प्रवाह को रोकने की कोशिशें जारी हैं। एक नदी की मौत…पूरी सभ्यता की मौत…संस्कृति का अंत। नमामि गंगे की तर्ज़ पर शायद दामोदर के लिए भी कोई रास्ता निकले। आनेवाली पीढ़ी के साथ यह बड़ा धोखा होगा। अमेरिका की टेनेसी के साथ दामोदर की तुलना होती है, लेकिन यहां रखवाले ही फंदा लेकर खड़े हैं। राजनीति से ऊपर उठकर दामोदर के दर्द को महसूसने की ज़रूरत है। इस देवनद का संरक्षण कर झारखण्ड से बंगाल तक एक इंडस्ट्रियल कॉरिडोर तो बनाया ही जा सकता है। एक नदी के बहाने कुबेर के ख़ज़ाने की लूट की तैयारी की यह अनकही कहानी है।

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