कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पर, दो पल मिलते हैं साथ साथ चलते हैं,जब मोड़ आये तो ,बच के निकलते हैं । बहुचर्चित चलचित्र पेज-३ का ये गीत मानों वर्तमान सियासी परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखकर ही लिखा गया हो । राजग गठबंधन में चल रही खींचतान का निर्णायक परिणाम आखिरकार हम सभी के सामने आ ही गया । भाजपा और जद-यू के बीच का १७ वर्ष पुराना दोस्ताना आखिरकार स्वार्थ और महत्वाकांक्षा की वेदी पर बली चढ़ गया । हां किस्सागोई की कुछ बातें लाल किले पर परचम लहराने के कसमे वादे अब चर्चाओं के लिए शेष हैं । जद-यू इसे भाजपा का सिद्धांतों से विचलन बता रही है तो भाजपा ने इसे विश्वासघात की संज्ञा दी है । जहां तक हकीकत का प्रश्न है तो इससे हम सभी वाकिफ हैं । हांलाकि इस पूरे घटनाक्रम में भाजपा से पल्ला झाड़ने का एक भी स्पष्ट कारण जदयू के पास नहीं था । वैसे ये बातें तो दलों और नेताओं के विशेषाधिकार की हैं । इससे आम आदमी का क्या प्रयोजन । इस मामले में जद-यू नेताओं का सबसे हास्यास्पद तर्क ये है कि बिहार में कार्यरत भाजपा मंत्रियों ने काम पर आना बंद कर दिया था और भाजपा मूल सिद्धांतों से भटक गई है ।
आखिर क्या हैं वे सिद्धातं जिनको ध्यान में रखकर जदयू ने भाजपा से नाता तोड़ा ? सबसे महत्वपूर्ण बात अवसरवाद की गंगा में गोता लगाने वाली जद-यू और नीतीश क्या वाकई किसी सिद्धांत को मानते हैं ? सोचीये,जहां तक राजनीतिक गुणा गणित का प्रश्न है तो ये वाकई एक फ्रीस्टाईल कुश्ती के मैदान जैसी है । जहां कभी भी कैसे भी दांव लगाने की राजनेताओं को खुली छूट है । इस पूरे विवाद के परिणाम भले ही आज अस्तित्व में आये लेकिन इस घटनाक्रम की नींव नरेंद्र मोदी को बिहार में आने पर रोक लगाते समय ही पड़ गई थी । विश्लेषकों को हैरान करने वाला नीतीश का ये निर्णय क्या वाकई गठबंधन धर्म के अनुरूप कहा जा सकता था ? जहां तक अभी हालिया प्रसंगों में मोदी को बागडोर देने की बात है जो वो भाजपा का अपना निर्णय था । आखिर पार्टी के तौर भाजपा अपनी विचारधारा के अनुरूप कार्रवाई क्यों नहीं कर सकती ? या भाजपा ने कभी जद-यू के अंदरूनी मामलों में कभी दखल दिया हो ? ऐसा भी शायद कभी नहीं हुआ है । तो ऐसी क्या वजह है जो जदयू को इतना कठोर कदम उठाना पड़ा ? इस पूरे प्रकरण के मूल में है नीतीश की महत्वाकांक्षा वही जिसके नाम पर वो कभी पाकिस्तान की यात्रा करते हैं । कभी खुद के विकास माडल को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं । हांलाकि उनकी विचारधारा का खंडन कोई और वे स्वयं ही कर डालते हैं । एक ओर वे अपने माडल को सबसे बेहतर बताते हैं तो दूसरी ओर बिहार को पिछड़ा प्रदेश घोषित कराने मांग भी उठाते हैं ।
स्मरण रहे कि नीतीश जी ने राष्ट्रपति चुनाव के वक्त भी सेक्यूलर प्रधानमंत्री की वकालत भाजपा को सांसत में डाल दिया था । जहां तक वर्तमान संदर्भों का प्रश्न है तो भाजपा ने अभी भी आधिकारिक रूप से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है । ऐसे में नीतीश के दबाव में जदयू का ये निर्णय ईर्ष्या और कुत्सित विचारधारा के धरातल पर लिया गया ही लगता है । जहां तक जदयू के बिहार में दोबारा विश्वासमत प्राप्त करने का प्रश्न है तो इसमें उसे कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी । वो निर्दलीय अथवा कांग्रेसी विधायकों के समर्थन से आसानी से विश्वातमत के जादूई आंकड़े को प्राप्त कर लेगी । किंतु जहां तक इस घटना के दूरगामी परिणामों का प्रश्न है तो निश्चित तौर पर जदयू के लिए प्रतिकूल ही होंगे । इसकी बानगी हमें बिहार उप चुनाव में साफ दिख चुकी है ।
अंतिम बात इस पूरे घटनाक्रम और नीतीश की हालिया गतिविधियों को देखकर ये स्पष्ट हो जाता है कि उनकी निगाह मुस्लिम मतदाताओं के मतों के ध्रुवीकरण की है । हांलाकि इस दिशा में उन्हे राजद और कांग्रेस से भी कड़ी चुनौती मिलने की पूरी उम्मीद है । रही बात सेक्यूलरिज्म की तो उनका ये सिद्धांत तब कहां थे जब गोधरा दंगों के बाद भी उन्होने पूरे पांच वर्षों तक रेल मंत्री की कुर्सी पर कब्जा जमाये रखा या इस विवाद के बाद भाजपा के सहयोग से पूरे सात वर्ष तक बिहार की सत्ता पर काबीज रहे । सबसे बड़ी बात जिस मामले में न्यायालय एवं सीबीआई जैसी संस्थाएं मोदी को दोषी साबित नहीं कर सकी उस मामले को बेवजह तूल देने का प्रयोजन । जहां तक प्रश्न है दंगों का तो वो साल दर साल की दर से कभी आसाम कभी उत्तर प्रदेश में सिर उठा ही लेता है । तब कहां जाता है नीतीश का सेक्यूलरिज्म ? या अभी पाकिस्तान से आये हिंदुओं के मानवाधिकारों के हनन पर क्यों नहीं पसीजता नीतीश का दिल ? कई सवाल हैं जो नीतीश के पूरे वजूद को संदिग्ध बना देते हैं । ऐसे में जदयू का ये निर्णय कहीं न कहीं भविष्य में उसकी भयंकर भूल के तौर पर याद किया जाएगा ।
Niteesh के सामने कम कट्टर आर ज्यादा कट्टर में चुने कान विकल्प था.