मंदिर राग के प्रलाप का औचित्य

shri-ram-mandirप्रमोद भार्गव

ऐसा लगता है राम मंदिर निर्माण का राग अलाप कर भाजपा अपने अजेंडे को आगे बढ़ा रही है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन यह विवादित मामला सुलट नहीं जाता तब तक निर्माण की प्रक्रिया कैसे आगे बढ़ेगी,यह समझ से परे है ? इसलिए फिलहाल तो ऐसा लगता है कि भाजपा सुब्रमण्यम स्वामी के जरिए इस मुद्दे को हवा महज इसलिए दे रही है, जिससे एक तो अगले साल उत्तर-प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में हिंदू मतदाताओं को धु्रवीकृत किया जा सके, दूसरे उसकी अपनी कमजोरियों पर पर्दा डला रहे। क्योंकि भाजपा जब से केंद्र में सत्तारूढ़ हुई है,वह कुछ भी ऐसा अनूठा नहीं कर पाई है,जिससे उसके घोषणा-पत्र में शामिल बुनियादी मुद्दों के आगे बढ़ने का रास्ता प्रशस्त होता है। मंहगाई और बेरोजगारी की तो छोड़िए,आतंकवाद अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण करके जिस तरह से सेना के ठिकानों पर कहर ढा रहा है,वह मोदी की छप्पन इंची छाती को नए ढंग से चुनौति देता लग रहा है। बावजूद पाकिस्तान नीति का स्पष्ट न होना,देश को गुमराह करने जैसा है।

ऐसी विकट परिस्थिति में राममंदिर के मुद्दे पर परिचर्चा और मुगलकाल में ध्वस्त किए गए 40 हजार मंदिरों के बदले में अयोध्या,मथुरा और काशी के मंदिरों की मांग का प्रलाप संघ के अजेंडे को आगे बढ़ाने के साथ जनता को मूल मुद्दों से भटकाने का बहाना लग रहा है। हालांकि इस परिचर्चा का जिस तरह से दिल्ली विश्वविद्यालय के कांग्रेस और वामपंथी छात्र संगठनों ने विरोध किया,उसका भी कोई औचित्य नहीं था। जब विवि परिसर में कश्मीर के अलगाववादी कश्मीर को भारत से पृथक करने के राष्ट्रविरोधी विषय पर चर्चा कर सकते हैं,तो राम मंदिर पर बातचीत से ऐतराज क्यों ? वैसे भी राम मंदिर कोई एक स्थल से जुड़ा मुद्दा नहीं है,बल्कि संस्कृति को पुनर्जागरण से जोड़ने वाला मुद्दा है। जिसका समाधान जरूरी है। यह अलग बात है कि राष्ट्र की संस्कृति से जुड़ा अहम् मुद्दा होने के बावजूद भाजपा ने अब तक केवल इसे अपने वर्चस्व के लिए भुनाने का काम ही किया है,जबकि वह कांग्रेस ही है,जिसने क्रमानुसार ‘रामलला‘ को विवादित ढ़ांचे से मुक्त करने की जरूर कोशिशें की हैं। इसलिए भाजपा के लिए यह एक ऐसा अनुकूल समय है,जिसमें वह मंदिर निर्माण का हल्ला मचाने की बजाय,कारगर नीतिगत उपाय करके मंदिर निर्माण की बाधाएं दूर कर सकती है। यदि वह ऐसा करने में स्वयं को अक्षम अनुभव कर रही है तो अच्छा है वह अदालत के फैसले का इंतजार करे और शांत बैठे।    दरअसल,अयोध्या विवाद से जुड़े जितने भी प्रमुख घटनाक्रम हैं,उनका वास्ता कांग्रेस नेताओं से रहा है। लेकिन कांगे्रसियों को श्रेय मिलना तो दूर की कौड़ी रहा,जलालत जरूर झेलनी पड़ी है। इस विवाद के इतिहास की शुरूआत स्वंतत्र भारत में 22-23 दिसंबर 1949 की मध्यरात्रि में राम-दरबार से जुड़ी मूर्तियों के प्रगटीकरण से हुई। ये मूर्तियां कैसे अवतरित हुईं,तमाम जांचों के बाद यह तथ्य आज भी अज्ञात है। इस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के गोविंद वल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे। केंद्र सरकार में सरदार वल्लभभाई पटेल गृह मंत्री थे। तय है,कांग्रेस-राज में मूर्तियां प्रगट हुईं और अपनी जगह बनी रहीं। यहीं से विवाद पैदा हुआ। मामला अदालत पहुंचा और मंदिर में ताला डलवा दिया गया। सुन्नी बोर्ड आॅफ वक्फ ने मामला दायर किया था। 1961 में इस मुकदमे से हामिद अंसारी भी एक वादी के रूप में जुड़ गए थे।

इस विवाद से जुड़ी दूसरी महत्वपूर्ण तरीख 1 फरवरी 1986 है। इस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मंदिर के पट में पड़ा ताला खुलवा दिया था। राजीव गांधी के कहने पर ही मंदिर निर्माण का शिलान्यास हुआ। इस दौरान नारायणदत्त तिवारी मुख्यमंत्री थे। यह शिलान्यास विश्व हिंदू परिषद् की सहमति से हुआ था। यही नहीं 1991 में राजीव गांधी ने लोकसभा चुनाव अभियान की शुरूआत भी अयोध्या से की थी। जाहिर है, राजीव गांधी मंदिर निर्माण में दिलचस्पी ले रहे थे। राजीव इस दिशा में कोई और पहल कर पाते,इससे पहले उनकी हत्या हो गई।

कांगे्रसी पीवी नरसिम्हा राव देश के ऐसे प्रधानमंत्री थे,जिन्हें पंजाब से उग्रवाद खत्म करने का श्रेय जाता है। भारत की समृद्धि के लिए आर्थिक उदारवाद की नीतियों का सफल क्रियान्वयन भी उन्हीं के कार्यकाल की देन है। लेकिन सोनिया गांधी के दरबार में हजिरी नहीं लगाने के कारण कांग्रेस और भारतीय राजनीति के विश्लेशकों ने उनका सही मूल्याकांन नहीं किया। राव ने मंदिर निर्माण का भी संकल्प प्रधानमंत्री बनने के साथ ही ले लिया था। इस दिशा में गोपनीय किंतु सार्थक पहल की शुरूआत भी उन्होंने की थी। इस सच्चाई का उद्घाटन राव के मीडिया सलाहकार रहे पीवीआरके प्रसाद की पुस्तक ‘व्हील्स बिहाइंड द वेल‘ में हुआ है। दरअसल, इस मुद्दे का हल निकालकर राव एक तीर से दो निशाने साधना चाहते थे। एक तो वे भाजपा से हमेशा के लिए इस मुद्दे को छीनना चाहते थे,दूसरे हिंदू मानस की आकाक्षांओ को हमेशा के लिए तुश्ट करना चाहते थे। राव की इस पवित्र भावना और अंतर्वेदना को पुस्तक में दर्ज इस कथन में समझा जा सकता है,‘वे ;भाजपाद्ध अयोध्या में राम मंदिर बनवाने पर अडे़ हुए हैं। क्या भगवान राम सिर्फ उनके हैं,जिन्हें पूरा हिंदू समाज पूजता है ? वे मंदिर निर्माण का ऐसा अभियान चला रहे हैं,मानो हम मंदिर विरोधी हैं। हम उनको सीधा जवाब देंगे और भिन्न तरीके से मंदिर बनवाएगें।‘ राव का दूसरा कथन देखिए,‘भगवान राम सबके हैं। हमारे भी हैं। हमारी पार्टी मंदिर बनवाने के लिए प्रतिबद्ध है,क्योंकि राजीव गांधी ने इसका शिलान्यास किया था।‘

इस दिशा में उल्लेखनीय पहल करते हुए राव ने अयोध्या प्रकोष्ठ का गठन किया। विहिप और बाबरी एक्षन कमेटी से बातचीत की। विवादित ढांचे का विध्वंस और अस्थायी मंदिर का निर्माण उन्हीं के कार्यकाल में हुआ। विध्वंस के बाद केंद्र सरकार ने विवादित परिसर को अयोध्या आध्यादेश जारी करके  भूमि का अधिग्हण किया और इसके बाद 1995 में रामालय ट्रस्ट बनाया। इस पुस्तक में किए रहस्योद्घाटन से साफ होता है कि प्रक्रिया में राव का सबसे ज्यादा सहयोग करने वाले मध्यप्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे। उन्होंने ही अपने वाक्चातुर्य से द्वारिका पीठ के षंकाराचार्य स्वामी स्वरूपानंद और रामानंद संप्रदाय में श्री मठ के प्रमुख स्वामी रामनरेशाचार्य को न्यास में भागीदारी के लिए राजी किया था। राव इस मुद्दे की हल की दिशा में और भी आगे बढ़ते,लेकिन उनकी पार्टी को 1996 के लोकसभा चुनाव में पराजय का सामना करना पड़ा। बाद में सत्तारुढ़ हुई अटल बिहारी वाजपेयी और डाॅ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकारों ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। जबकि श्रेय लूटने में सबसे ज्यादा आगे भाजपा रही। अलबत्ता राव की गतिविधियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि विवादित ढ़ांचे का ध्वंस और अस्थायी मंदिर का निर्माण राव की मंशा का ही सुनियोजित हिस्सा थे। ऐसा करके वे संघ,विहिप और भाजपा का सक्रिय हस्तक्षेप हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहते थे। राजीव गांधी और फिर राव की मंदिर निर्माण से जुड़ी इन तथ्यात्मक कार्रवाईयों को कांगे्रस कभी भुना नहीं पाई। तुष्टिकरण के फेर में यह उसकी आश्चर्यजनक राजनीतिक नादानी रही है। जबकि राजीव और राव के सिलसिलेवार मंदिर निर्माण से जुड़े प्रयत्न सीधे-सीधे कांग्रेस के राजनीतिक लाभ और भाजपा से मंदिर मुद्दा छीनने के लिए किए गए थे।

लंबी राजनीतिक सुस्ती के बाद इस मुद्दे पर विषद चर्चा अक्टूबर 2010 में इलहाबाद उच्च न्यायालय के आए फैसले के समय हुई थी। और अब मंदिर स्थल पर पहुंच रही तराशे गए पत्थरों की खेप और स्वामी की इस परिचर्चा से हुई है। लेकिन इस चर्चा से मंदिर निर्माण को कोई नई दिशा नहीं मिली हैं। लिहाजा समाधान की दिशा में नए आयाम देने की जरूरत है न कि व्यर्थ के बयान देकर बखेड़ा खड़ा करने की ?

1 COMMENT

  1. राम मन्दिर का महत्व सिर्फ भौतिक स्तर पर नही है, बल्कि वैचारिक स्तर पर राम मन्दिर का और भी अधिक महत्व है। कांग्रेस चाहती है की भाजपा तत्काल राम मन्दिर निर्माण शुरू कर दे जिससे उन्हें मुसलमानो को भय दिखा कर अपने पक्ष में करने में आसानी हो। लेकिन भाजपा ऐसा क्यों करे जिससे विरोधियो को लाभ हो। भाजपा वैचारिक स्तर पर राम मन्दिर मुद्दे को और अधिक सशक्त बनाए यह अपेक्षित है। न्यायलय में विचारधीन मामले में सरकार कोई काम करेगी नही। सहमति के माध्यम से राम मन्दिर का भौतिक निर्माण काम तब आरम्भ हो जब हम वैचारिक सशक्तता पूर्णतया हासिल कर ले। आज मुस्लिम समाज भी राम मन्दिर निर्माण में साथ आता जा रहा है यह सुंदर बात है।

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