नरेंद्रभाई मोदी महज अटल बिहारी वाजपेयी का विस्तार हैं………..और ऐतिहासिक परिणति भी। इस वाक्य से आप चौंक सकते हैं और इसे खारिज़ भी कर सकते हैं, लेकिन शुद्ध तार्किक और बौद्धिक तौर पर अगर बात करें, तो मोदी को लेकर छाती पीटने और मर्सिया पढ़नेवाले लोग बिना किसी आधार के और ऐतिहासिक बोध से शून्य होकर ही ऐसा कर रहे हैं।
ज़रा, पहली नज़र उस नारे पर डालिए, जिसको लेकर वाम-दक्षिण-कांग्रेस के तमाम विद्वान हायतौबा मचा रहे हैं। आखिर, ‘अबकी बार, मोदी सरकार’…नारे में बीजेपी के खत्म होने, उसके सघनतम रूप से व्यक्तिवादी हो जाने, पार्टी के व्यक्ति में और व्यक्ति के पार्टी में बदल जाने का दावा करनेवाले विद्वान और क्रांतिकारी बौद्धिक मायोपिया से कैसे ग्रस्त हैं, इसकी पड़ताल तो ज़रूरी है। पहली बात, तो यह कि इस नारे में कुछ भी मौलिक नहीं है, कुछ भी नया नहीं है। यह नारा ‘अबकी बारी, अटल बिहारी’ से प्रेरित है, तो क्या ये सारे विद्वान यह मानने को तैयार होंगे कि वाजपेयी ने 1996 में पार्टी को ‘हाइजैक’ कर लिया था। याद रखिए, 96 और उसके बाद के सारे चुनाव (2009 के पहले तक) वाजपेयी के ही इर्द-गिर्द लड़े गए थे। इस पंक्ति के लेखक को दरभंगा में उनका चुनाव प्रचार अब भी याद है, जब उन्होंने मौजूद भीड़ से कहा था, ‘अटल को ‘कीर्ति’वान (सांसद प्रत्याशी कीर्ति झा) बनाइए।’ उन्होंने भाजपा को कीर्तिवान बनाने को नहीं कहा था।
दरअसल, वाजपेयी का कद भारतीय राजनीति में इतना बड़ा हो गया, कि अमूमन हम सभी उसी मायोपिया के शिकार हो जाते हैं, जैसे प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू का आकलन करने में होते हैं। ध्यान रखने की बात है कि वाजपेयी खुद ‘पॉलिटिशियन’ नहीं रहे, वे ‘स्टेट्समैन’ हो गए, लेकिन अपवाद तो नियम को सिद्ध करता है, खुद नियम तो नहीं बन जाता। इतिहास अपने बांट-बखरें में बड़ा निर्मम होता है, इसीलिए वाजपेयी का वह जब भी आकलन करेगा, तो रंजन भट्टाचार्य और प्रमोद महाजन के लिए सफे में जगह ज़रूर छोड़ेगा।
भाजपा का पितृ संगठन आरएसएस है, और वाजपेयी के समय इस ‘सांस्कृतिक’ संगठन के हाथों से भाजपा की बागडोर ढीली हुई थी। इसके एक नहीं, कई सारे कारण थे। शायद, इसके मुखिया उतने कद्दावर नहीं थे, या फिर वाजपेयी का विशाल व्यक्तित्व ऐसा छाया कि आरएसएस के मुखिया तक को किनारे होना पड़ा, या फिर पांच दशकों से सत्ता के लिए तरसते दक्षिणपंथ को वे सारे समझौते मंजूर हो गए, जो अमूमन वह कभी भी नहीं करता। सत्ता तक पहुंचने की ललक या हड़बड़ी इतनी थी कि 13 दिनों की सरकार के बाद दो दर्जन से अधिक पार्टियों वाली गठबंधन सरकार के लिए, भाजपा ने अपने सारे मुद्दे ताक पर रख दिए और ‘संघ’ को भी इससे गुरेज न हुआ (जिनको याद आ सकता है, वह कृपया 13 दिनी सरकार के मुखिया के तौर पर वाजपेयी का संसद में दिया भाषण याद कर लें, उपर्युक्त संदर्भों में)। क्या यह भी कहने की बात है कि वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में ‘संघ’ और उसके आनुषंगिक संगठनों की बोलती बंद थी, कम-अज़-कम वाजपेयी के सामने तो बिल्कुल ही। कुल मिलाकर, यह बिल्कुल ही राजनीतिक फैसला था, इसका उग्र या नर्म हिंदुत्व से कोई लेना-देना तो नहीं ही था।
इस मसले पर देखें, तो वाजपेयी के बाद भाजपा में कोई नेता ऐसा नहीं रहा, जो अपने पितृ-संगठन को नकार सके, तो इसमें भला ‘संघ’ की क्या गलती है? यहीं ज़रा यह भी देख लीजिए कि पार्टी में वाजपेयी के पूरक आडवाणी ने जब अपनी छवि बदलनी चाही, खुद को समन्वयवादी, उदार, नर्म हिंदुत्व के वाहक के तौर पर पेश करना चाहा, तो कैसे खुद का ही ‘केरिकेचर’ बनकर रह गए। संदर्भः जिन्ना की पाकिस्तान में जाकर बड़ाई, उसके बाद ‘संघ’ का कड़ा रुख और आडवाणी की मजबूत स्थिति का क्षरण।
आडवाणी की गलती के बाद, जसवंत सिंह ने भी वही गलती की और 2004 की हार के बाद पार्टी में ऐसी हताशा पनपी कि ‘संघ’ के पास कमान अपने हाथ में लेने का स्वर्णिम मौका था। इतिहास की निर्ममता या त्रासदी कहिए कि भाजपा जैसी पार्टी का अध्यक्ष एक ऐसे नितिन गडकरी को बना दिया गया, जिसका योगदान बस इतना ही था कि वह ‘नागपुर’ की पसंद था। गडकरी का भाजपा अध्यक्ष बनना कुछ वैसा ही था, जैसे प्रतिभा देवीसिंह पाटिल का भारत का राष्ट्रपति बन जाना। आडवाणी को यह स्थिति इसलिए स्वीकार करनी पड़ी कि पीएम इन वेटिंग की शानदार स्थिति को वह बनाए ही रखना चाहते थे। राजनीतिक तौर पर आडवाणी से गणना में यहीं चूक हो गयी। ‘सांस्कृतिक’ संगठन ‘संघ’ अब राजनीति को केवल दर्शक बनकर नहीं देखना चाहता था, वह अब इसे दिशा भी देना चाहता था, उसे अब ‘शेर का हिस्सा…’ भी चाहिए था।
‘काडर’ आधारित पार्टियों की एक मजबूरी होती है। उन्हें सेवक चाहिए, चिंतक नहीं। कम्युनिस्ट पार्टियां हों या भाजपा की तरह का दक्षिणपंथी (नाम का ही सही) दल। उसमें एक ऐसी पुरोहिताई (हाइरार्की) होती है, जिसमें प्रश्न पूछना मना होता है। नरेंद्रभाई मोदी प्रश्न नहीं पूछते हैं, वह संघ की पूरी परिकल्पना को पूरा करने के लिए जी-जान से काम करते हैं, इसलिए वह स्वाभाविक पसंद हैं। यह बात दीगर है कि साध्य हासिल हो जाने पर वह अपने पितृ-संगठन को भी धता बता सकते हैं, लेकिन यह तो राजनीति का हिस्सा ही है। ‘परिषद’ का प्रतिबद्ध कार्यकर्ता होने के नाते इस लेखक को पता है कि ‘संघ’ में सवाल पूछना बुरी बात मानी जाती है- आप केवल दायित्व का निर्वहन करते हैं।
‘संघ’ ने वाजपेयी-युग में भी अपनी स्थिति सहेज कर रखी थी। उस युग के बाद तो सारी बिसात ही उसने ले ली। भाजपा में दूसरी पीढ़ी के नेताओं में नरेंद्रभाई ही ऐसे थे, जो ‘संघ’ के हिसाब से परिपूर्ण थे। याद रखिए, लौहपुरुष आडवाणी जी को संघ ने जिन्ना पर की गयी टिप्पणी के लिए माफ किया ही नहीं था। वाजपेयी ने राह दिखायी थी, उसे अब पूरा करने की बारी थी और उसका पथिक नरेंद्रभाई मोदी से बेहतर कौन हो सकता था?
अब, ज़रा संघ के नज़रिए से मोदी के पक्ष की चीजें देख लीजिए- उन्होंने गुजरात को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बना दिया था, लगातार तीन बार से गुजरात को थाल में परोसकर भाजपा के लिए ला रहे थे, तमाम राजनीतिक हमलों के बीच डटे हुए थे और सबसे बड़ी बात- ‘संघ’ के साथ उनके रिश्ते बेहद खुशगवार थे। मोदी इसलिए भी जरूरी थे कि वाजपेयी का सर्व-समन्वयवाद भी भाजपा को अकेले 200 के पार नहीं ले जा सका था, फिर अपने मुख्य मुद्दों को छोड़ने की फजीहत जो थी, सो अलग, जिससे कट्टर काडर बिदक रहा था, तो फिर मोदी को ही क्यों न आगे किया जाए, जो पूरे चुनाव को ध्रुवीकृत करने का माद्दा रखते हैं।
अब, ज़रा देखिए कि मोदी किस तरह से वाजपेयी का विस्तार हैं? प्रथमतः और अंततः वाजपेयी भी ‘संघ’ के स्वयंसेवक थे और मोदी भी। आखिर, मोदी से समस्या क्या है? गुजरात दंगों का दाग़ ही तो। तो, राजनीति में भला कौन दाग़दार नहीं और ऐसा दाग तो अच्छा ही है, जो मतदाताओं को ध्रुवीकृत कर सके। जनसंहार, massacre, pogrom, genocide….आदि-इत्यादि शब्दों के थोड़ा पार जाकर देखें, तो वह भी महज एक दंगा था, जैसा कि इस देश में बहुत बार हो चुका है। उस दंगे के भी दोनों पक्ष हैं, और हरेक पक्ष खुद को सही ठहरा रहा है। मोदी पर खुद उंगलियां उठी हैं, मामले न्यायालय में हैं और उनको क्लीन चिट भी मिली है। अगर आप केवल उन दंगों पर ही रुक जाते हैं, तो यह लेख आपके लिए नहीं हैं, लेकिन अगर आप कुछ देर के लिए ठहरकर मोदी की पूरी राजनीति और राजनीति की मजबूरी को समझना चाहते हैं, तो आगे बढ़ें।
जो लोग मोदी को कट्टर बता रहे हैं, उन्हें ज़रा वाजपेयी की कुछ कविताओं को फिर से पढ़ना चाहिए, पुराने भाषणों को फिर से सुनना चाहिए, यह भी याद करना चाहिए कि राम जन्मभूमि के चरम पर वह अयोध्या में मौजूद थे, ढांचा (या बाबरी मस्जिद) गिराए जाने के गवाह थे, और नरेंद्रभाई मोदी को केवल ‘राजधर्म’ का पाठ देकर चुप रह गए थे, चाहे जिस भी वजह से हो, पर मोदी की सरकार को बर्खास्त नहीं किया था। ज़रा इन लाइनों पर गौर फरमाइएः-
अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र ना खोदो, अपने पैरों आप कुल्हाडी नहीं चलाओ।
ओ नादान पडोसी अपनी आँखे खोलो, आजादी अनमोल ना इसका मोल लगाओ।
पर तुम क्या जानो आजादी क्या होती है? तुम्हे मुफ़्त में मिली न कीमत गयी चुकाई ।
अंग्रेजों के बल पर दो टुकडे पाये हैं, माँ को खंडित करते तुमको लाज ना आई ?
ये वाजपेयी जी की कविता की पंक्तियां हैं…..और, ये भी…..
अमरीकी शस्त्रों से अपनी आजादी को दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो ।
दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली बरबादी से तुम बच लोगे यह मत समझो ।
धमकी, जिहाद के नारों से, हथियारों से कश्मीर कभी हथिया लोगे यह मत समझो ।
हमलो से, अत्याचारों से, संहारों से भारत का शीष झुका लोगे यह मत समझो ।
अब, ज़रा यह बताइए कि शब्दाडंबर (rhetoric) के मामले में मोदी भला वाजपेयी के सामने कहां ठहरते हैं। वैसे भी, प्रसून जोशी से उधार लेकर बोले शब्दों से भला वाजपेयी की वाक्पटुता का क्या मुकाबला हो सकता है? ये पंक्तियां उद्धृत करने का एकमात्र मतलब है कि यह समझना होगा कि rhetoric एक बिल्कुल अलग चीज़ है, और शासन चलाना एक बिल्कुल अलग ही बात है। पाकिस्तान को खुली धमकी की कविता लिखनेवाले वाजपेयी अगर लाहौर तक बस लेकर जा सकते हैं, तो नरेंद्रभाई से क्यों उम्मीद करें कि वह पाक अधिकृत कश्मीर (के आतंकी शिविरों) में बम गिरा आएंगे?
कारगिल, कंधार अपहरण और संसद पर हमला- वाजपेयी के ही काल में हुआ था। लगभग छह महीनों तक उन्होंने सेना को बॉर्डर पर भी लगा दिया था, लेकिन उसके बाद? तो, प्रिय पाठक, राजनीति में जो कहा जाता है, वही किया भी जाता है- ऐसा बिल्कुल नहीं है। और, बारहां, तो वही किया जाता है, जो कहा नहीं जाता है। नरेंद्रभाई मोदी अभी किसी टीवी चैनल के कार्यक्रम या चुनावी रैली के भाषण में भले ही कट्टरता की प्रतिमूर्ति नज़र आ जाएं, लेकिन प्रधानमंत्री (अगर वह खुदा न खास्ता बन गए तो) बनने के बाद वह वही सारे काम कर भी देंगे, इसकी आशंका कम से कम मुझे तो नहीं ही है। आखिर, अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित विचारों का पथ-प्रदर्शक होता है (साभार, प्रेमचंद)।
आर्थिक मसलों में भी मोदी महज वाजपेयी का विस्तार भर ही हैं। ध्यान रहे, वाजपेयी के समय स्वदेशी जागरण मंच के काफी प्रदर्शन वगैरह हुआ करते थे, लेकिन क्या वाजपेयी ने उदारीकरण की नीति को पीछे कर लिया। नहीं न। उसी तरह मोदी की भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में एफडीआई की मंजूरी दे ही दी है। अभी रिटेल को उससे अलग रखा गया है, तो वह भविष्य की बात है। विदेश और अर्थनीति में अगर नरेंद्रभाई को वाजपेयी की (या कहें, केंद्र के शासन की) ही नीति आगे बढ़ानी है, तो फिर गृह के मसले पर इतना गुलगपाड़ा करने की क्या ज़रूरत है। वाजपेयी के शासनकाल में भी नक्सली अपनी जगह पर मौजूद थे, देश में बेरोजगारी थी, कृषि की दुर्दशा हो रही थी और इनमें कोई परिवर्तन नहीं आया था। किसी खास समुदाय को निशाना बनाकर देश से निकाला नहीं गया था (याद कीजिए, गोविंदाचार्य का वह बयान- आखिर 16-17 करोड़ मुसलमानों को आप हिंद महासागर में तो नहीं डुबो सकते न!) और नरेंद्रभाई मोदी भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकते। इसे उनकी मजबूरी आप कहना चाहें, या इरादे- कोई फर्क नहीं पड़ता।
स्वीकार्यता के मामले में नरेंद्रभाई तो वाजपेयी से शायद आगे ही चले जाएं। आखिर, चुनाव के पहले ही 25 दल (बकौल, राजनाथ सिंह) एनडीए की छतरी तले आ चुके हैं, तो चुनाव के बाद के समीकरण में पांच-सात दल नहीं आ जाएंगे, इसकी भला क्या गारंटी और उदासी है?
दरअसल, चाणक्य हों या मैकियावेली, हरेक राजनीतिक चिंतक और पंडित ने कहा है कि राजनीति का अंतिम दांव सत्ता और केवल सत्ता है। अभी, भाजपा में बूढ़ों (आडवाणी वगैरह) की तथाकथित ‘दुर्दशा’ पर रोनेवालों को यह भी समझना चाहिए कि आडवाणी ने भी अंतिम स्थिति तक लड़ाई की ही थी। भाजपा के गोआ अधिवेशन से रूठ जाना हो, या भोपाल की इच्छा व्यक्त करना, उन्होंने भी अपने पत्ते खेले ही। हां, एक अच्छे राजनीतिज्ञ की तरह जब देखा कि सामनेवाले (नरेंद्र मोदी) के पत्ते उनसे बेहतर हैं, तो उसे फेंक देना ही बेहतर समझा। मुरली मनोहर से लेकर लालजी टंडन तक सब इसी पांत में हैं। जसवंत सिंह चूंकि फौजी दिमाग से काम लेते हैं, इसलिए फंस गए। एक बात और याद रखने की है कि ‘काडर’ आधारित पार्टी में आपका महत्त्व तभी तक है, जब तक आप पार्टी में हैं। उससे बाहर निकलने के बाद आप कल्याण सिंह, उमा भारती और गोविंदाचार्य बन जाते हैं।
दरअसल, मोदी का हौआ बनानेवाले यह नहीं समझ रहे हैं कि वह उनका ही भला कर रहे हैं। फासीवाद के घर तक आने की घोषणा करनेवालों को समझना चाहिए कि यह महज राजनीतिक समीकरणों के सही-गलत होने का मसला है। नरेंद्रभाई मोदी के सर्वोच्च पद पर जाने की स्थिति में भी इस देश की राजनीतिक स्थिति में भले ही शायद कुछ परिवर्तन हो जाएं, आर्थिक-सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं होनेवाला है।
वैसे, मोदी का विरोध करनेवालों पर वह मन ही में मुस्कुरा ही रहे होंगे। आखिर, ध्रुवीकरण का प्रति-ध्रुवीकरण नाम की भी चीज़ होती है, साहब!
व्यालोक
सही, सटीक और तर्कसंगत विश्लेषण पर आधारित निष्कर्ष है।
समीचीन आकलन, दरअसल भविष्य का डर दिखा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं सब।