रैगिंग पर रोक सामाजिक जरूरत

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योगेश कुमार गोयल

            सुप्रीम कोर्ट के सख्त दिशा-निर्देशों के बावजूद देशभर के कॉलेजों में रैगिंग के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे। पिछले महीने 20 अगस्त को इटावा के सैफई मेडिकल कॉलेज में वरिष्ठ छात्रों द्वारा रैगिंग के नाम पर करीब 150 जूनियर छात्रों के जबरन सिर मुंडवा दिए गए थे और मुख्यमंत्री के आदेश पर जिला प्रशासन द्वारा कराई गई शुरूआती जांच में यह भी साबित हो गया कि सैफई विश्वविद्यालय के कुलपति तथा रजिस्ट्रार ने इस मामले में लापरवाही बरती। उस मामले की जांच चल ही रही थी कि देखते ही देखते उसके बाद के एक सप्ताह के भीतर कई और कॉलेजों से भी रैगिंग की घटनाएं सामने आ गई, जो वाकई शर्मसाार कर देने वाली हैं। पिछले दिनों सहारनपुर में शेखुल हिन्द मौलाना महमूद उल हसन मेडिकल कॉलेज, देहरादून के राजकीय दून मेडिकल कॉलेज, हल्द्वानी राजकीय मेडिकल कॉलेज, राजस्थान में चूरू के पं. दीनदयाल उपाध्याय मेडिकल कॉलेज, कानपुर के चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय इत्यादि से भी सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर जूनियर छात्रों की रैगिंग किए जाने के मामले सामने आए।

            करीब एक दशक पहले रैगिंग के ऐसे दो मामले सामने आए थे, जिनका सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा संज्ञान लिया था और बहुत कड़े दिशा-निर्देश तय किए थे लेकिन उसके बावजूद जिस प्रकार हर साल कॉलेजों में नए सैशन की शुरूआत के बाद कुछ माह तक रैगिंग के नाम पर जूनियर छात्रों के साथ मारपीट तथा अमानवीय हरकतों की घटनाएं सामने आती रही हैं, उससे स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षण संस्थान अपने परिसरों में रैगिंग की घटनाओं को रोकने के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने और पर्याप्त कदम उठाने में कोताही बरत रहे हैं। 8 मार्च 2009 को देश के अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले राज्य हिमाचल प्रदेश में कांगडा स्थित डा. राजेन्द्र प्रसाद मेडिकल कॉलेज में रैगिंग के चलते प्रथम वर्ष के छात्र 19 वर्षीय अमन सत्य काचरू की मौत और उसके 4 दिन बाद आंध्र प्रदेश में गुंटूर के बापतला स्थित कृषि इंजीनियरिंग कॉलेज की एक प्रथम वर्ष की छात्रा की कुछ सीनियर छात्राओं द्वारा की गई अभद्र रैगिंग के चलते उक्त छात्रा द्वारा आत्महत्या के प्रयास ने बुद्धिजीवियों सहित आम जनमानस को भी झकझोर दिया था और देश की सर्वोच्च अदालत को रैगिंग को लेकर कठोर रूख अपनाने पर विवश किया था। वैसे उससे चंद दिन पूर्व ही 11 फरवरी 2009 को भी सुप्रीम कोर्ट ने कठोर रवैया अपनाते हुए रैगिंग में ‘मानवाधिकार हनन की गंध आने’ जैसी टिप्पणियां करते हुए रावघन कमेटी की सिफारिशों को सख्ती से लागू करने का निर्देश दिया था।

            यह विड़म्बना ही है कि सुप्रीम कोर्ट के कड़े रूख के बावजूद पिछले कुछ वर्षों में रैगिंग के चलते देशभर में कई दर्जन छात्रों की मौत हो चुकी है। आंकड़ों देखें तो पिछले सात साल के दौरान ही रैगिंग से परेशान होकर 54 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया जबकि रैगिंग की कुल 4893 शिकायतें सामने आई। शिक्षण संस्थानों में खौफनाक रूप धारण कर उद्दंडतापूर्वक विचरण करते रैगिंग रूपी दानव के चलते अनेक छात्र मानसिक रोगों तथा शारीरिक अक्षमताओं के भी शिकार हो चुके हैं। रैगिंग के दौरान जूनियर छात्रों को कपड़े उतारकर नाचने के लिए बाध्य करना तो आज एक मामूली सी बात लगती है। कुछ कॉलेजों में तो इतनी भद्दी व अश्लील रैगिंग की जाती है कि छात्र रैगिंग से बचने के लिए होस्टलों की पहली या दूसरी मंजिलों से कूदकर भाग जाते हैं और इस भागदौड़ में कुछ अपने हाथ-पैर भी तुड़वा बैठते हैं तो कुछ को अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। कुछ वर्ष पूर्व ऐसे ही कुछ मामले हरियाणा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में भी सामने आए थे। रैगिंग से शारीरिक व मानसिक तौर पर प्रताडि़त होने वाले छात्रों में आत्महत्या जैसे हृदयविदारक कदम उठाने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है। रैगिंग के दौरान सीनियरों के अमानवीय व अश्लील आदेशों का पालन न करने वाले नए छात्रों की हत्या किए जाने के मामलों ने तो रैंगिंग के औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

            6 नवम्बर 1996 की एक अमानवीय घटना को तो कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। उस दिन अन्नामलाई विश्वविद्यालय में रैगिंग के दौरान घटी एक बेहद वहशियाना घटना के बाद हालांकि दोषी सीनियर छात्र डेविड को अदालत द्वारा उसके घृणित अपराध के लिए करीब 36 वर्ष तक की अवधि की तीन अलग-अलग सजाएं सुनाई गई थी लेकिन लगता है कि इस तरह की घटना के परिणामों से रूबरू होने के बाद भी छात्रों ने कोई सबक नहीं लिया। शायद यही वजह है कि अदालतों को ही रैगिंग को लेकर कड़े दिशा-निर्देश जारी करने पर बाध्य होना पड़ा लेकिन फिर भी अगर रैगिंग के मामले लगातार सामने आ रहे हैं तो यह बेहद चिंता की बात है।

            सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर कॉलेजों में रैगिंग रोकने के उपायों की निगरानी के लिए नवम्बर 2006 में गठित की गई आर. के. राघवन समिति द्वारा उच्चतर शिक्षण संस्थानों में रैगिंग रोकने हेतु कठोर कदम उठाने के लिए संबंधित नियामक इकाईयों यूजीसी तथा ऐसे ही अन्य संस्थानों को वर्ष 2008 में नए शिक्षा सत्र शुरू होने से ठीक पहले फिर से निर्देश दिए गए थे, जिससे पुनः स्पष्ट हुआ था कि सुप्रीम कोर्ट के तमाम दिशा-निर्देशों और जद्दोजहद के बावजूद रैगिंग की समस्या जस की तस है। शिक्षा संस्थानों में रैगिंग की घटनाओं से निपटने के तौर-तरीकों के बारे में अनुशंसा देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर सीबीआई के पूर्व अध्यक्ष आर के राघवन की अध्यक्षता में गठित समिति के सुझावों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खण्डपीठ ने रैगिंग के खिलाफ सख्त निर्देश जारी किए थे। राघवन समिति ने अपनी 200 पृष्ठों की रिपोर्ट ‘द मैनिस ऑफ रैगिंग इन एजुकेशनल इंस्टीच्यूट एंड मेजर्स टू कर्ब इट’ में रैगिंग रोकने के संबंध में करीब 50 सुझाव दिए थे लेकिन यह विड़म्बना है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बार-बार कड़ा रूख अपनाए जाने के बावजूद न ही छात्र और न ही कॉलेज प्रशासन इससे कोई नसीहत लेते नजर आ रहे हैं।

            कहना गलत न होगा कि पश्चिम की नकल के रूप में हल्के-फुल्के अंदाज में शुरू हुई रैगिंग रूपी यह परम्परा शिक्षण संस्थानों में एक ऐसे नासूर के रूप में उभरी है, जिसके चलते बीते कुछ वर्षों में बहुत से मेधावी छात्रों को शिक्षा बीच में छोड़कर अपने सपनों का गला घोंट वापस अपने घर लौट जाने का निर्णय लेना पड़ा, कुछ के समक्ष आत्महत्या जैसा कदम उठाने की नौबत आई तो कुछ छात्र रैगिंग के चलते मानसिक रोगी भी बन गए लेकिन स्थिति गंभीर होने के बाद भी जब न तो शिक्षा विभाग ने खौफनाक रूप धारण करती इस समस्या की ओर ध्यान दिया और न ही राज्य सरकारों या केन्द्र ने तो सुप्रीम कोर्ट को ही इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट के कड़े दिशा-निर्देशों के बावजूद देशभर में रैगिंग की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं तो स्पष्ट है कि न तो कॉलेज प्रशासन ऐसी घटनाओं को रोकने के प्रति गंभीर है और न ही संबंधित नियामक इकाईयां। राघवन कमेटी ने तो अपनी रिपोर्ट में रैगिंग से पीडि़त छात्रों के मामलों को दहेज पीडि़त महिलाओं के मामलों के समान देखने और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की सिफारिश भी की थी।

            सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले में कहा था कि रैगिंग के मामलों में दंड कठोर होना चाहिए ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। कोर्ट ने शिक्षण संस्थानों को अपनी विवरणिकाओं में यह स्पष्ट निर्देश शामिल करने को भी कहा था कि जो भी छात्र रैगिंग में लिप्त पाए जाएंगे, उनका प्रवेश रद्द कर दिया जाएगा और अगर सीनियर छात्र ऐसा करेंगे तो उन्हें निष्कासित कर दिया जाएगा। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि जो शिक्षण संस्थाएं अपने यहां रैगिंग रोकने में असफल रहेंगी, उन्हें सरकार की ओर से मिलने वाला अनुदान या अन्य आर्थिक सहायता रोक दी जाएगी। अगर रैगिंग पर अंकुश लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों और इसके लिए शिक्षा संस्थानों, प्रशासन व छात्रावास अधिकारियों की जिम्मेदारियां तय करने के बावजूद रैगिंग के मामले हर साल लगातार बढ़ते रहे हैं तो इसका सा अर्थ यही है कि न तो सरकारें ऐसे मामले सोशल मीडिया के जरिये वायरल होने तक इन पर लगाम लगाने के प्रति कृतसंकल्प दिखती हैं और न ही कॉलेज प्रशासन अपनी जिम्मेदारी ठीक प्रकार से निभा रहे हैं।

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