भ्रम पैदा करते ये ‘नामुराद फ़तवे’

0
327

                                                                                        तनवीर जाफ़री 

 इतिहास इस बात का गवाह है कि अपने उद्भव काल से ही इस्लाम को जितना नुक़सान स्वयं को मुसलमान कहने वाले इस्लाम परस्तों से पहुंचा है उतना ईसाईयों,यहूदियों या किन्हीं अन्य धर्मावलम्बियों से नहीं पहुंचा। पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद के देहांत के फ़ौरन बाद ही इस्लाम व शरीयत को लेकर अलग अलग व्याख्यायें की जानें लगीं। मोहम्मद के घराने के ‘वास्तविक इस्लाम’ व इस्लामी आदर्शों को छोड़ मौलवी मुल्लाओं द्वारा थोपा गया इस्लाम प्रचलन में आने लगा। धर्म व सत्ता का धालमेल शुरू हो गया। अतिवादी कट्टरपंथियों ने इस्लाम को कुरूपित करना शुरू कर दिया। परिणाम स्वरूप करबला जैसा दर्दनाक वाक़्या पेश आया। करबला की घटना में मुहम्मद साहब के नवासे हज़रत इमाम हुसैन व उनके अनेक परिजनों व सहयोगियों को बेरहमी से क़त्ल करने वाले,उनके तंबुओं में आग लगाने वाले,उनकी लाशों पर घोड़े दौड़ाने वाले केवल साधारण मुसलमान ही नहीं बल्कि बड़ी बड़ी दाढ़ियां रखने वाले,नमाज़,रोज़े और हज के पाबंद लोग थे। इनमें क़ुरआन पढ़ने वाले हाफ़िज़,क़ारी और मौलवी भी शामिल थे। बहरहाल,इस्लाम के 1450 वर्षों से भी लंबे कालखंड में स्वयं को मुसलमान बताने वाले अलग अलग लगभग 73 वर्ग सक्रिय हैं। और यह सभी वर्ग स्वयं को ही इस्लाम का वास्तविक प्रतिनिधि बताते हैं। इनमें से अनेक ने अपने इस्लामी सिद्धांत गढ़ रखे हैं। हर वर्ग जन्नत का दावेदार है,इन सभी की नज़रों में अन्य वर्गों के मुसलमान वास्तविक मुसलमान नहीं। बल्कि कुछ वर्ग तो एक दूसरे को काफ़िर और मुशरिक तक बताते हैं।

                                         और इन्हीं अंतरविरोधों के परिणाम स्वरूप अनेक वर्गों के नमाज़ पढ़ने के तरीक़े अलग हैं,अज़ान में अंतर है,रोज़ा रखने व इफ़्तार के वक़्त में फ़र्क़ है,दाढ़ी कैसी रखी जानी चाहिये इनकी मान्यतायें भिन्न हैं। परदे व हिजाब की परिभाषायें अलग हैं। और हद तो यह है कि तमाम धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं को लेकर गहरे मतभेद हैं। और समय समय पर ऐसे ही मौलवी मुल्लाओं द्वारा जारी किये जाने वाले तथाकथित ‘फ़तवों’ में इन्हीं अंतर्विरोधों की झलक साफ़ तौर पर दिखाई देती है। पिछले दिनों गुजरात में अहमदाबाद की जामा मस्जिद के शाही इमाम ने कहा कि इस्लाम,मुस्लिम महिलाओं को चुनाव में टिकट देने वालों के ख़िलाफ़ हैं। शाही इमाम ने कहा, “जिन्हें मस्जिद और मज़ार में जाने की इजाज़त नहीं, वो असेंबली में कैसे जा सकती हैं। मुस्लिम महिलाओं को चुनावी टिकट देने वाले इस्लाम के ख़िलाफ़ हैं, वो मज़हब को कमज़ोर कर रहे हैं और यह धर्म से बग़ावत है। क्या कोई आदमी नहीं बचा है, जिसे चुनाव में टिकट दिया जा सके?” यदि शाही इमाम को याद हो तो दुनिया की पहली महिला शासक का नाम ही रज़िया सुल्तान था। अपने पड़ोसी देशों में पाकिस्तान की बेनज़ीर भुट्टो से लेकर बांग्लादेश की बेगम ख़ालिदा ज़िया,शेख़ हसीना तक सभी मुस्लिम घरानों से संबद्ध थीं और हैं। यदि मौलवियों की मानें फिर तो उनका चुनाव लड़ना ग़ैर इस्लामी हुआ और फिर तो उनकी सत्ता और उसके सभी फ़ैसले भी ग़ैर शरई व ग़ैर इस्लामी हुये ?

                           एक चुनाव ही नहीं बल्कि जीवन के ऐसे सैकड़ों पहलू जिनसे इंसान, विशेषकर महिलाओं का जीवन व तरक़्क़ी सीधे तौर पर जुड़ी हुई है वहाँ भी ‘फ़तवाइयों ‘ का पूरा दख़ल रहता है। कुछ समय पूर्व एक फ़तवा यह आया था कि मुस्लिम लड़कियों को बैंक में कार्यरत लड़कों से शादी नहीं करनी चाहिये। कारण यह बताया गया कि बैंक कर्मचारी की कमाई नाजायज़ है। बैंक कारोबार सूद ब्याज़ पर आधारित है जोकि ग़ैर इस्लामी है। अब इसी फ़तवे के सन्दर्भ में यह जानना भी ज़रूरी है कि ख़ान बहादुर हाजी अब्दुल्लाह हाजी क़ासिम साहेब बहादुर ने 12 मार्च 1906 को उडप्पी में 5000 रूपये की पूँजी से जिस बैंक की स्थापना की थी आगे चलकर वही कॉर्पोरेशन बैंक भारत के राष्ट्रीयकृत बैंकों में एक प्रमुख बैंक बना। इसके संस्थापक मुसलमान तो थे ही साथ ही हाजी भी थे। क्या यह बैंक शुरू कर उन्होंने कोई ग़ैर इस्लामी काम किया ? एक अकेले हाजी अब्दुल्लाह ही नहीं भारत सहित दुनिया के अनेक देशों में ख़ासकर मुस्लिम बाहुल्य देशों में अनेक बैंक मुस्लिम लोगों द्वारा संचालित हैं। इनमें तमाम मुस्लिम अधिकारी व कर्मचारी कार्यरत हैं। यदि ‘फ़तवाइयों’ की बातों पर अमल करें तो किसी भी बैंक कर्मचारी को ब्याह के लिये लड़की ही नसीब न हो ? 

                           कभी दारुल उलूम मुस्लिम महिलाओं के चुस्त व चमक-दमक वाले बुर्क़े पहनने को गुनाह और नाजायज़ बताता है। कभी औरतों का बिना मर्द के हज और उमरा पर जाना ग़लत बताया जाता है। कभी मुस्लिम औरतों के मज़ार व मस्जिद दोनों ही जगहों पर जाने की मनाही का फ़तवा दे दिया जाता है। कभी कोई ‘फ़तवाई’ मुस्लिम औरतों को केवल बच्चा पैदा करने का साधन मात्र बताकर इस्लाम में औरत के बराबरी के सिद्धांत का मज़ाक़ उड़ाता है। तो कभी शादी या अन्य समारोह में मुस्लिम महिलाओं व पुरुषों के एक साथ खाने पीने को ग़ैर इस्लामी क़रार दे दिया जाता है। कभी औरतों के लिये मर्दों का फ़ुटबाल का खेल देखना ग़ैर इस्लामी बता दिया जाता है। गोया फ़तवों और प्रतिबंधों की ज़्यादातर तलवारें मुस्लिम महिलाओं पर ही लटकती हैं? औरत का पर्दा इसलिये ताकि किसी मर्द की बुरी नज़र न पड़े। तो यहाँ क़ुसूरवार बुरी नज़र डालने वाला मर्द हुआ न की कोई औरत ? संस्कार और नैतिक शिक्षा की ज़रुरत मर्द को है न कि औरत को ? ऐसा तो नहीं हो सकता कि औरत पर बुरी नज़र डालना मर्द का जन्म सिद्ध अधिकार है और इससे बचने का एकमात्र रास्ता बुर्क़ा,हिजाब या पर्दा ही है ? ये ‘फ़तवाई’ कभी कभी अपनी रूढ़िवादी सोच में इतना डूब जाते हैं कि विज्ञान को भी कोसने लगते हैं। और इनमें दोहरापन इतना कि स्वयं अपनी ज़रुरत की प्रत्येक वैज्ञानिक सामग्री भी ज़रूर इस्तेमाल करते हैं।

                                            ‘फ़तवाइयों’ को चाहिये कि समय और काल के अनुसार धर्म को परिभाषित करें। आज की महिला अपने परों से आसमान छूना चाहती है। उसके परों को काटने की नहीं बल्कि उसे मज़बूती देने की ज़रुरत है। इन्हें याद रखना चाहिये कि स्वयं हज़रत मुहम्मद की पत्नी ख़दीजा उस दौर की अरब की सबसे बड़ी व्यवसायी थीं। इस्लाम के शुरुआती विस्तार में उन्हीं की दौलत ख़र्च हुई थी।आज की भी औरत बड़े से बड़े पद पर बैठने को आतुर है। परन्तु उसे अपने ही परिवार व समाज व ‘फ़तवाईयों ‘ से मुक्ति की दरकार है। एक शिक्षित व योग्य महिला ही अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा व संस्कार दे सकती है। जबकि ये नामुराद ‘फ़तवे’ समाज में हमेशा भ्रम ही पैदा करते रहेंगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here