कल शर्मा जी के घर गया, तो वहां असम के वन विभाग में कार्यरत उनके एक पुराने मित्र वर्मा जी भी मिले, जो अपने 12 वर्षीय बेटे के साथ आये हुए थे। बेटे का पूरा नाम तो मनमोहन था; पर वर्मा जी उसे मन्नू कहकर बुला रहे थे।
उन्होंने बताया कि वे अपने बेटे को नेताओं और धनपतियों के बच्चों की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध ‘दून स्कूल’ में भर्ती कराना चाहते हैं। दून स्कूल में प्रवेश सरल नहीं है, इसलिए दिल्ली से कुछ बड़े लोगों के सिफारिशी पत्र लेकर फिर उनका देहरादून जाने का कार्यक्रम था।
शर्मा मैडम घर में नहीं थी, इसलिए गपशप के बीच शर्मा जी ने ही तीन कप चाय बनाई। चाय पीकर हमनें सोचा कि थोड़ी देर पार्क में टहलकदमी कर लें।
हम चलने ही वाले थे कि दूध वाला आ गया। शर्मा जी ने रसोई से भगोना निकाल कर एक लीटर दूध लिया और उसे चूल्हे पर चढ़ा दिया। उनकी इच्छा थी कि दूध उबल जाए, तभी चलेंगे; पर वर्मा जी इसकी जिम्मेदारी अपने बेटे पर डाल दी।
– बेटा मन्नू, हम तीनों बाहर टहलने जा रहे हैं। घंटे भर में आ जाएंगे। तुम दूध को देखते रहना।
– अच्छा पापा।
जब हम लौटे, तो रसोई का बुरा हाल था। सारा दूध उबलकर गिर चुका था। लगातार गैस जलने से भगोना तपकर लाल हो रहा था और मन्नू हाथ में कागज कलम लिये कुर्सी पर आराम से बैठा था।
वर्मा जी यह देखते ही क्रोध से उबलकर मन्नू को पीटने पर उतारू हो गये; पर शर्मा जी ने उन्हें रोक दिया। फिर उन्होंने गैस बंद कर भगोने में पानी डाल दिया और मन्नू से बातकर यह जानने का प्रयास करने लगे कि वह अपने पिताजी की बात को ठीक से नहीं समझा या वर्मा जी ही अपनी बात ठीक से नहीं समझा सके।
– क्यों बेटा मन्नू, हम तुम्हें क्या कह कर गये थे ?
– अंकल, आपने कहा था कि दूध को देखते रहना।
– फिर ?
– फिर क्या, मैंने उसे देखने के लिए कुर्सी रसोई में डाल ली और गौर से देखता रहा। इतना ही नहीं, मैंने पूरा विवरण मिनट-मिनट के हिसाब से इस कागज में लिख भी लिया है।
– क्या लिखा है, जरा बताओ बेटा ?
– छह बजे आपने गैस जलाकर दूध उबलने रखा और टहलने चले गये। 6.10 पर दूध खुदबुद-खुदबुद करने लगा। 6.15 पर वह बाहर निकलने लगा। 6.20 पर पूरा दूध बाहर गिर गया। कुछ दूध गैस के बर्नर में गिरा है, इसलिए जलने की दुर्गन्ध आ रही है। अब आग की गर्मी से भगोना लाल होने लगा है..।
इतना बताकर मन्नू ने बड़े भोलेपन से वह कागज शर्मा जी के हाथ में थमा दिया। अब तक भगोना भी कुछ ठंडा हो चुका था, इसलिए शर्मा जी ने ठंडे होने में ही भलाई समझी।
पाठक मित्रो, हमारे देश के स्वनामधन्य प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी चिरकुट मंडली का भी देश की समस्याओं के बारे में यही दृष्टिकोण है। अधिकांश मंत्रियों के चेहरे पर लगा भ्रष्टाचार का कीचड़ हो या अन्न की बरबादी; रुपये का लगातार हो रहा अवमूल्यन हो या उत्तराखंड में ध्वस्त व्यवस्था; बेरोजगारी हो या बढ़ती महंगाई; सरकार बहादुर के पास ‘हर मर्ज में अमलतास’ की तरह हर प्रश्न का एक ही स्थायी उत्तर है कि जनता घबराए नहीं, हम परिस्थिति को अच्छी तरह देख रहे हैं।
लगभग 25 वर्ष पूर्व हमारे देश में राजीव बोफोर्स गांधी नामक एक हवाई प्रधानमंत्री हुआ करते थे। छींका टूटने से बिल्ली का भाग्योदय भले ही हो जाए; पर पूरे परिवार की तो हानि ही होती है। रा.बो.गांधी के समय में यही हाल भारत का भी हुआ था। उनके मुखारविन्द से समय-समय पर प्रकट होने वाले ‘हमने देखा है, हम देख रहे हैं, हम देखेंगे’ जैसे हास्यास्पद वाक्य उन दिनों खूब प्रसिद्ध हुए थे।
अब रा.बो.गांधी तो नहीं रहे; पर उनके खानदानी चम्पू आज भी सत्ता में हैं। मनमोहन सिंह, चिदम्बरम्, सुशील कुमार शिंदे, मनीष तिवारी, जर्नादन द्विवेदी आदि इसी श्रेणी के जीव हैं। ये सब देश में रहते हुए, तो राहुल बाबा विदेश में छुट्टियां मनाते हुए देश की हालत को गौर से देख रहे हैं; और शायद तब तक देखते रहेंगे, जब तक पूरा दूध उबलकर बाहर नहीं गिर जाता।
कुछ लोगों का कहना है कि दिन भर हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद रात में एक गिलास लालपरी की संगत बुरी बात नहीं है। ऐसे ही कुर्सी के लिए जो मंत्री साल भर जोड़तोड़ करते रहते हैं, उनका मई-जून की भीषण गर्मी में, बीमारी के नाम पर कुछ दिन आराम करने के लिए ठंडे देशों में जाने का हक तो बनता ही है।
इसीलिए छत्तीसगढ़ में कांग्रेस यात्रा पर हमले के समय शिंदे साहब विदेश में अपने दांत के दर्द का इलाज कराते रहे। अब उत्तराखंड में विनाश हुआ है, तो राहुल बाबा अपना जन्मदिन मनाने के बहाने, न जाने किस दर्द की दवा कराने विदेश चले गये।
आप चाहे जो कहें साहब; पर मैं उन्हें दोषी नहीं मानता। असल में उनका दिल विदेश जाकर ही किसी के लिए ठीक से धड़कता है। आखिर उनके दिल में पचास प्रतिशत विदेशी तत्व तो हैं ही। इसलिए हो सकता है इस बार भी दिल-विल का ही कुछ चक्कर हो।
खैर अब आप वर्मा जी की बात सुनें। वे देहरादून गये; पर कई असली और नकली सिफारिशों के बाद भी ‘दून स्कूल’ वालों ने उन्हें घास नहीं डाली। देहरादून को जानने वाले बताते हैं कि वहां हर गली में अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर कुछ दुकानें खुली हैं, जिन्हें स्कूल कहा जाता है। वर्मा जी ने ऐसी ही एक दुकान में अपने मन्नू को भर्ती करा दिया और दिल्ली वापस आ गये।
लौटने पर शर्मा जी ने पूछा, तो उन्होंने कहा कि हम तो असम में जाकर सबको यही कहेंगे कि मन्नू दून स्कूल में पढ़ता है। इससे बिरादरी और दफ्तर में हमारी नाक सबसे ऊंची हो जाएगी।
– पर वर्मा जी, यह तो झूठ हुआ ?
– शर्मा जी, आप भी बहुत भोले हैं। हजारों कि.मी. दूर रहने वालों के लिए देहरादून का हर स्कूल ‘दून स्कूल’ ही है। अब भला असम से कौन देखने आ रहा है कि मन्नू ‘दून स्कूल’ में है या ‘मकदून स्कूल’ में ?
शर्मा जी चुप रह गये। कहते हैं कि राजीव गांधी भी दून स्कूल में पढ़े थे और उनके लाड़ले राहुल बाबा भी।
जिस तरह उन्होंने ‘देखा’ और जिस तरह ‘ये देख रहे हैं’, उससे मुझे तो संदेह हो रहा है कि कहीं वे भी….।
बहुत अच्छी तरह बयां कर दी आपने देश की हालत,सोचे भी तो क्या?अब क्या होगा?ये राजनितिक जोंकें मुल्क का सब कुछ चूस कर ही पीछा छोड़ दे तो गनीमत है.
क्या बात है बहत अच्छा व्यंग, व्यंग क्या हक़ीक़त है।