सेमेटिक चिंतन का ही विस्तार है इस्लाम, ईसाइयत एवं साम्यवाद

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गौतम चौधरी

समाजवाद का सिध्दांत रॉवट ओवेन एवं सेंट साईमन ने दिया। मेकाइबर और पेज नामक समाज विज्ञानी ने समाज को परिभाषित किया। पश्चिम में समाज की संरचना का जो क्रमिक विकास हुआ है वह संघर्ष और विखंडन के सिध्दांत पर आधारित है। इसलिए वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तक कार्ल मर्क्स को दुनिया का इतिहास संघर्ष से भरा पडा दिखा। जो लोग यूरोप की सभ्यता को यूनानी सभ्यता का विस्तार मानते हैं वे भ्रम में हैं। आज का यूरोप यूनान का नहीं अपितु आद्य अरब सभ्यता का विस्तार है। भारत में शुक्राचार्य नाम के एक चिंतक हो गये हैं। उन्हें दानवों के गुरू के रूप जाना जाता है। दानव यानि भौतिक और जडवादी चिंतन को मानने वाला। शुक्राचार्य के पौत्र का नाम हर्ब था। जिसका अपभ्रंश अरब हो गया। इस बात में कितनी सत्यता है, उसके लिए तो शोध की जरूरत है, लेकिन एक यह भी दृष्टिकोण है जिसे दुनिया में समाज की संरचना को समझने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।

कहा जाता है कि सेमेटिक विचार को मानने वाले पहले मिश्र में रहते थे। वहां के राजा को उन लोगों ने छल से मार कर रातों रात निकल गये और मध्य पूरव के समुद्री किनारे पर अपना स्थाई आवास बनाया। यही हजरत इब्राहिम और हजरत ईसा नामक दो चिंतक पैदा हुए जिन्होंने दुनिया को दो अभिनव चिंतन से अवगत कराया। हजरत ईसा ने ईसाइयत का कनसेप्त दिया और और हजरत इब्राहिम ने इस्लाम का। ये दोनों यहूदी थे इसलिए आज भी ईसाइयत और इस्लाम में यहूदी मान्यताओं की झलक मिलती है। इससे यह साबित होता है कि यूरोप का सांस्कृतिक विस्तार यूनानी नहीं सेमेटिक है। सेमेटिक चिंतन को दानवी चिंतन से जोडकर देखा जाना चाहिए,तब बातें समझ में आएगी। इस चिंतन के असली प्रणेता शुक्राचार्य को ही माना जाना चाहिए। यूनान के चिंतन को तो सेमेटिकवादियों ने जड मूल से समाप्त कर दिया। हां थोडी बहुत भाषा बची हुई है। सेमेटिक चिंतन के मानने वालों ने दुनिया में उत्पात भी खूब मचाया है। जिस प्रकार इस्लाम के मानने वालों ने अपने चिंतन की स्थापना के लिए खून बहाए, उसी प्रकार ईसाई धर्मावलंवियों ने भी जबरदस्त रक्तपात किये। सेमेटिक उत्पात के कारण ही संपूर्ण यूरोप के सहअस्ततित्ववादी मारे गये।

इसके बाद इंग्लैंड नामक द्वीप पर फ्रांसिस बैकन नामक एक चिंतक पैदा हुआ। जिसने कहा कि प्रकृति एक स्त्री के समान है, जिसके बाहों को मरोडने से वह अपने रहस्यों को उगल देगी। बैकन के उस सिध्दांत से यूरोप में प्रकृति के खिलाफ संघर्ष का श्रीगणेश हो गया जो आज तक चल रहा है। इस चिंतन की मिमांशा से स्पष्ट हो जाता है कि जिस संघर्ष में सेमेटिक चिंतन को मानने वाले विश्वास करते थे उस बात को ही बैकन ने फिर से परिभाषित कर दिया। बैकन का चिंतन कार्ल मार्क्स के चिंतन से मिलता है और कार्ल मार्क्स का चिंतन शुक्राचार्य के चिंतन से मिलता है। दानव गुरू शुक्राचार्य भी संघर्ष और बलात आधिपत्य पर विश्वास करते थे। प्रकृति के खिलाफ संघर्ष की घोषणा उन्होंने ही सबसे पहले की और प्रकृति पर आधिपत्य के लिए उन्होंने कई सिध्दांत भी गढे। यहां एक पैराणिक कथा का उल्लेख यहां करना ठीक रहेगा। देव दानव की लडाई में इन्द्र ने छल से रंभ नामक दानव की हत्या कर दी। इस घटना की जानकारी जब शुक्राचार्य को हुई तो उन्होंने रंभ के मृत्य देह से वीर्य निकाल एक भैंस के गर्भ में प्रतिस्थापित कर दिया और उससे महिशासुर नामक दानव का निर्माण किया। शुक्राचार्य यही नहीं रूके उन्होंने महिशासुर की मृत्यु के बाद उसके वीर्य को हथनी के गर्भ में प्रतिस्थापित कर हथासुर नामक दानव पैदा कर दिया। शुक्राचार्य अपने इस अभियान में कितना सफल हुए यह तो पता नहीं लेकिन इससे प्रकृति के खिलाफ संघर्ष के इतिहास का पता चलता है। इस कथा के उल्लेख से यह साबित होता है कि जिस चिंतन को आज इस्लाम, ईसाइयत और साम्यवादी स्थापित करने में लगे हैं उसके प्रवर्तक शुक्राचार्य को ही माना जाना चाहिए। शुक्राचार्य, कार्ल मार्क्स और बैकन में समानता दिखती है। इसलिए यूरोप को यूनान की सभ्यता का विस्तार मानना भ्रम है। आज के पूरे खुराफात की जड सेमेटिक चिंतन में ही है।

इधर भरत में चार्वाक की एक संपुष्ट धारा रही है। जिसने मात्र चार तत्वों की ही प्रधानता दी और घोषित कर दिया कि जन्म से पहले तथा मृत्यु के बाद का सारा विधान, साहित्य कपोल कल्पना है एवं पंडितों ने अपने व्यापार के लिए बनाया है। बुध्दकालीन चिंतक पूरणकस्यप ने तो कर्म के सिध्दांत को ही नकार दिया और कहा कि कोई कर्म न तो शुभ होता है और न ही अशुभ। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि कर्म का कोई फल नहीं होता है। चार्वाक दार्शनिक पुरंदर ने कहा कि शरीर से आत्मा को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। इन तमाम चिंतकों के चिंतन का उल्लेख करने का कारण यह है कि अब दुनिया जिस दिशा की ओर जा रही है वह दिशा निहायत भौतिकवादी है तथा इस मार्ग में संघर्ष एवं विखंडन को ही केन्द्र में रखा गया है। सबसे बडी बात यह है कि दुनिया जिस ओर जा रही है वहां केवल संघर्ष और भौतिकता का ही मतलब रह जाएगा। कुल मिलाकर संयुक्त राज्य अमेरिका भी उसी सेमेटीजम का विस्तार है जिस चिंतन को भयानक रक्तपात के बाद स्थापित किया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के चिंतकों ने अपने ढंग के नये विश्व की कल्पना की है। यूरोप के ईयाई जब अमेरिकी महाद्वीप पर पहुंचे तो वहां की भौतिक समृध्द को देखकर वे प्रभावित हुए। वहां की समृध्दि ने उन्हें आकर्षित किया। इस आकर्षन के कारण यूरोपियों ने अमेरिका की सभ्यता को समाप्त कर दिया। अब अमेरिकी महाद्वीप में यूरोपिये ईयाई के साथ एक बडी समस्या सामने आयी। वे लोग जिस सभ्यता को स्थापित करना चाहते थे उसके वे दास थे लेकिन जिस सभ्यता के साथ उनकी लडाई थी अब वे उनके मालिक थे। इस द्वंद्व ने अमेरिका में आए यूरोपियों को नया सिध्दान्त गढने के लिए मजबूर कर दिया। उसी द्वंद्व का ही प्रतिफल है कि यूरोपिये अमेरिकियों ने पोस्ट मॉडर्न विश्व का कन्सेप्ट दिया। उत्तर आधुनिक शब्द यूरोपिये अमेरिकी ईसाई के द्वंद्व का परिनाम है। अमेरिका पहुंचे ईसाइयों का ऐसा कोई इतिहास नहीं है जिसपर अमेरिकी गर्व कर सकें। इसलिए अमेरिकी ईसाइयों ने इतिहास और संस्कृति का मजाक उडाया। यही तो भौतिकवादी चाहते हैं और यही मार्क्सवादी भी चाहते हैं। अब दुनिया जिस ओर बढ रही है उसमें तीन चिंतन का समावेश है। पहला जडवाद एवं भौतिकवाद, दूसरा संघर्ष और तीसरा उत्तर आधुनिकता। आने वाला विश्व इन्ही तीन चिंतनों का विस्तार होगा। जिसका स्वरूप दिखने लगा है। यानि प्रकृति को पराजीक करने का संघर्ष, बस शरीर ही सबकुछ है और इतिहासा कुछ नहीं होता। संस्कृति, मान्यता, धर्म, सभ्यता, परिवार, समाज, भाषा आदि का कोई मतलब नहीं है। बस जीवन को जीना है और जीना है तो ऐश करना है।

आज के विश्व की सामाजिक और राजनीतिक – आर्थिक व्यवस्था एवं संरचना निःसंदेह कार्ल मार्क्स के सिध्दांन्तो के चारो ओर भ्रमण कर रहा है। मार्क्स भौतिक तत्वों से दुनिया के निर्माण के सिध्दांत में विश्वास करते हैं। मार्क्स यह भी मानते हैं कि दुनिया संघर्षों का इतिहास है। केवल मार्क्स ही नहीं आईन्स्टाईन एवं मनोवैज्ञानिक फ्रायड भौतिक जगत के स्वरूप को ही सबकुछ मानते हैं। मार्क्स के सिध्दांत को राजनीतिक और व्यवस्थात्मक स्वरूप लेनिन ने दिया और उसने पृथ्वी पर स्वर्ग की कल्पना कर दी। लेनिन मार्क्स के सिध्दांतों पर चल कर रसिया के राजनीतिक विस्तार वाले स्थान पर स्वर्ग नहीं ला सके। उलटे रसिया नर्क में बदलता चला गया। सच पूछो तो स्वर्ग की कल्पना सामंती सोच पर आधारित कल्पना है। इससे यह साबित होता है कि मार्क्स अपने चिंततन में समानता के सिध्दांतों की बात तो करते हैं लेकिन जीवना में उन्हें भी सामंती सुख चाहिए। स्वर्ग में अप्सराओं के नृत्य की कल्पना की गयी है। स्वर्ग में वे सारे सुख होंगे जिसकी कल्पना की जा सकती है।

इधर भारत में स्वर्ग के कनसेप्त के बाद एक नया चिंतन सुराज का आया। जिसे गांधी से जोड कर देखा जाना चाहिए। महात्मा गांधी ने सुराज को राम राज से जोडा और तुलसी के उस पद को अपने चिंतन का आधार बनाया जिसमें तुलसी कहते हैं कि राम राज दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों को समाप्त करने वाला राज्य होगा। मार्क्स की परिकल्पना सुराज की परिकल्पना से हट कर है । सुराज में सामंती सोच नहीं है लेकिन वर्ग विहीन राज्य व्यवस्था में सामंती सोच साफ दिखती है। मार्क्स की व्यवस्था को प्राप्त करने का मतलब है एक निहायत फिजूलखर्ची वाली व्यवस्था खडी करना, बावजूद इसके कुछ सिरफिरे चिंतकों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर मार्क्स के चिंतन को स्थापित किया है। जिसका परिनाम रूस में तो दिखा ही आज चीन में भी दिख रहा है। आज चीन हो अया फिर अमेरिका या कोई अन्य देश वहां के राज व्यवस्था के चिंतन का आधार मार्क्स का भौतिक चिंतन ही है । कुछ भी कह लें लेकिन आज मार्क्स का चिंतन दुनिया का एक ध्रुव तो हो ही गया है। ईसाइयत अपनी पूरी लडाई हार चुका है। संपूर्ण व्यवस्था के केन्द्र में आज मार्क्स आ गये हैं। जो लोग मार्क्स के चिंतन को समाप्त हो गया मानते हैं वे भ्रम में हैं। अब मार्क्स का चिंतन नये स्वरूप में लोगों के सामने है। मार्क्स का भौतिकवाद और अमेरिका का उत्तरआधुनिकतावाद के आपस में मिल जाने से दुनिया में एक नये युग का श्रीगणेश होने वाला है। यह युग पूरे पूरी सेमेटिक चिंतन के आधार पर खडा होगा। मार्क्स को किसी राज्य व्यवस्थ के केन्द्र में रखकर नहीं देखें। उसके सामाजिक संरचना के चिंतन को देखें तो आज का विश्व मार्क्स के चिंतन का ही विस्तार दिखेगा। सेमेटिक चिंतन को अब इस्लाम या फिर ईसाइत में रूचि नहीं है। ईसाइयत को मार्क्स के चिंतन ने अपने में पचा लिया और अब इस्लाम को निगलने की योजना में है। इस्लाम को अमेरिका और चीन दोनों अपने अपने तरीके से निगल रहा है। समय के साथ इस्लाम और ईसाइयत दोनों एक ही खोल में समा जाएगंगा और तीन बातों सामने आगएी पहला पीछे कुछ भी नहीं है, दूसरा संघर्ष करना है और तीसरा यह भौतिक संसार तथा अपना शरीर ही सब कुछ है। वही टिकेगा जो संघर्ष में रहेगा। इस प्रकार के चिंतन का स्वरूप व्यापक होने वाला है।

इसलिए जो लोग इस्लाम, ईसाइयत और साम्याद को अलग अलग करके देखते हैं वे भ्रम में जी रहे हैं। इन तीनों को एक ही चिंतन ने खडा किया है। और इन तीनों की मान्यता एक जैसी है। इस्लाम में एक भगवान की कल्पना है। ईसाइयत में भी एक ही भगवान की कल्पना है। मार्क्स का चिंतन कहने के लिए निरिश्वरवादी है लेकिन एक शक्ति में वह भी विश्वास करता है। ईसाई, इस्लाम और मार्क्सवादी अपने पुराने पहचान को मिटाना चाहते हैं। विखंडन और संघर्ष में तीनों विश्वास करते हैं। तीनों के पास एक एक कानून की संहिता है तथा सिध्दांतों का एक एक किताब है। तीनों के साथ एक विडंबना यह भी है कि इनके चिंतन का कोई विरोध करे उन्हें बरदास्त नही। वे लोग उसकी हत्या तक कर सकते हैं। इस प्रकार ऐसा कहा जा सकता है कि ईसाई, इस्लाम और साम्यवाद, यहूदी सेमेटिक चिंतन का ही तीन फेज है। इन तीनों के अलावे विश्व में आज जो भी दिखता है देर सबेर उसी सेमेटि सागर का अंग बनने वाला है। लेकिन दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं हो सकती है। इसलिए दुनिया को विकल्प देने के लिए दुनियाभर के सहअस्तित्ववादियों को आगे गाना चाहिए।

वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उस चिंतन से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता है जिसमें परम वैभव और महाशक्ति की कल्पना की गयी है। सच तो यह है कि भारत के लागों को आने वाले समय के 200 सालों में जो मानवता का अहित होने वाला है उससे दुनिया को आगाह करना चाहिए। भारत के पास दुनिया को विकल्प देने की क्षमता है लेकिन उस क्षमता को और ज्यादा परिष्कृत करने की जरूरत है। क्योंकि जब सेमेटिक चिंतन के महासागर में झंझावात पैदा होगा तो उसे बचाने की क्षमता और किसी के पास नहीं होगी। उस झंझावात को शांत करने की ताकत शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु के वंशज के पास ही है। इसलिए विष्णु के वंशजों को जिन्दा रहना जरूरी है।

5 COMMENTS

  1. गौतम जी आपने गागर में सागर समेत दी है. चाहें तो इसमें चाँद शब्द और यु जोड़े जा सकते हैं. सभी भारतीय सम्प्रदाय सह अस्तित्व में विश्वास करते है. सभी सेमेटिक विचारधाराए असहमति रखने वाले के सम्पूर्ण विनाश में आस्था रखती है. सेमेटिक विचारधाराएँ और उनके विचार ग्रन्थ केवल वक्तव्यों और घटनाओं का एक असम्बद्ध संग्रह है. उनमें कोई तारतम्य या विचार दर्शन नहीं मिलता बस निर्देश और आस्थाएं मिलेंगी. इसके विपरीत भारतीय सभी सम्प्रदायों में आपको गहन जीवन दर्शन, इस लोक और परलोक के बारे में दार्शनिक विचार मंथन मिलेगा. अमूल्य निष्कर्ष है कि ये पश्चिमी दर्शन दानवी और सभी भारतीय दर्शन देव दर्शन है. त्रिपिटक, बौध दशन, गुरु ग्रन्थ साहिब, गीता, उपनिषद् , संत मत आदि सभी में अमूल्य दार्शनिक तत्व व जीवन के रहस्यों के उत्तर मिलेंगे. ऐसा उचक साहित्य विश्व में और कहीं उपलब्ध नहीं. प्रश्न हैं कि यदि ऐसा है तो भारत की दुर्दशा क्यूँ है. उत्तर बहुत सरल नै कि हीनता की ग्रंथि से ग्रसित हुए भारतीय अपने इस अमूल्य साहित्य भण्डार को पढ़ते ही नहीं. फिर उसे व्यवहार में कौन लाएगा ? उच्च वर्ग के कुपठित भारत वासियों ने केवल वह साहित्य पढ़ा है और वही पढ़ रहे हैं जो देश के शत्रुओं द्वारा विकृत करके लिखा गया है. उसे पढ़ कर गौरवशाली भारतीयों का पैदा होना असंभव तो नहीं पर कठिन बहुत है. अस्तु इस उत्तम ,विश्लेष्णात्मक लेख हेतु साधुवाद स्वीकार करें

  2. पाश्चात्य समाज में व्यवस्थित जीवन दर्शन के इतिहास का अभाव मिलता है . वहाँ की आदिम व्यवस्था ही, जो कि शक्ति के इर्द-गिर्द घूमती थी विभिन्न रूपों में पल्लवित पुष्पित होती रही. इसीलिये वहाँ का इतिहास खूनी संघर्षों और छीना-झपटी से भरा पडा है . आज पूरे विश्व में समाज और जीवन के सन्दर्भ में प्रचलित सभी दर्शन बीज रूप में भारत की देन हैं. उनमें परस्पर विरोध हो सकता है इसीलिये यहाँ दर्शनों का निरंतर शोधन-परिमार्जन होता रहा . विभिन्न दर्शनों को मानने वाले अपने-अपने तरीकों से समाज और जीवन का संचालन करना चाहते हैं ..संघर्ष यहीं से प्रारम्भ होता है. भारत में देव-दानवों के संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है . सम्यक एवं अंतर्विरोध रहित विकास चाहने वाले समाज को चाहिए कि अपने लिए उपयुक्त दर्शन का चयन कर ले. अब लाख टके का सवाल यह है कि वह उपयुक्त दर्शन है कौन सा ? तो इसका चयन व्यक्ति नहीं समाज कर सकेगा. समाज यदि भौतिकवाद चाहता है तो वैसी धारा चल पड़ेगी और यदि वह चेतनवाद चाहता है तो वैसी धारा चल पड़ेगी. अभी का विश्वमानव समाज तो भौतिकवाद ही चाहता है……जीवन में किसी भी तरह क्षणिक आनंद चाहता है …..कम से कम प्रयास में अधिक से अधिक उपलब्धि चाहता है. इसीलिये उपभोक्तावाद अपने शवाब पर है …कभी यह भी बिखरेगा ….और जब यह बिखरेगा तो चेतनवाद विकसित होगा. बस गीता के कर्म योग को बचाए रखना है. यह अलख जलती रहनी चाहिए.

    गौतम चौधरी जी का यह लेख बड़ा ही रोचक और शोधपरक बन पडा है. अच्छा हो यदि वे इसका और भी विस्तार कर सकें .

  3. गौतमजी आपने अपने लेख को इस तरह सवारा है की इसकी गिनती शोध पूर्ण लेखों में की जा सकती है,पर इस तरह के लेखों के लिए मेरा एक सुझाव है की इसके अंत में सन्दर्भ यानि रेफरेंस का उल्लेख होना चाहिए जिससे ऐसे लेखों पर प्रमाणिकता की मुहर लग जाती है.सन्दर्भ के अभाव में ऐसे लेख कल्पना की उडान लगने लगते हैं.तिवारीजी ने अपनी प्रतिक्रया में भारत के कुछ दार्शनिकों का जिक्र किया है पर भौतिकता पर आधारित जीवन दर्शन के प्रणेता केरूप में कपिल का भी नाम आता है और उनके उल्लेख के बिना भौतिकवादी जीवन दर्शन की चर्चा अधूरी सी लगती है.ऐसे मेरा मानना है की मनुष्य का स्वभाव ऐसा है की वह किसी एक जीवन दर्शन के साथ बहुत दिनों तक जुड़ा नहीं रह सकता अतः आज के बहु चर्चित और बहु प्रचारित जीवन दर्शन में भी परिवर्तन आना ही है.अगर हम उस परिवर्तन में भागीदार नहीं बन सकते तो उस परिवर्तन की प्रतीक्षा तो कर ही सकते हैं.

  4. अद्भुत लेख ……. भौतिवादी शुक्राचार्य यह सोचता है की वह अपनी सोच से सम्पुर्ण जगत को भली भांति समझता है. लेकिन हकिकत यह है की उसकी सोच की सीमा सिमित है….. ज्ञात से अज्ञात का क्षेत्र बडा है. उस अज्ञात के बारे मे एक झिनी सी तस्वीर कोई दे सकता है तो वह अध्यात्म है….. लेकिन आप भौतिक सोच के सहारे मी उस शुक्ष्म अध्यात्मिक सच्चाई तक पहुंच सकते है. उसी प्रकार अध्यात्मिक यथार्थ के सहारे भी उस स्थुल भौतिकता तक पहुंच सकते है. सफल वह होगा जो ईमान्दारी से आगे बढे.

    दुखः की बात यह है की अध्यात्मिक पक्ष का राजनैतिक झण्डा उठाने वाले लोग नकली लोग है. उनकी करनी और कथनी मे बडा अंतर है. अतः साम्यवाद के सहारे यदि मेरा अभिष्ट प्राप्त हो तो मुझे क्या ऐतराज हो सकता है ? साम्यवाद की विचार परम्परा गहरी है. अतः उनको इस प्रकार नकारने की भुल नही करनी चाहिए.

    हमे भौतिकता और अध्यात्म के मिलन का प्रयास करना चाहिए.

  5. आपने कोई नयी स्थापना प्रस्तुत नहीं की .सारी दुनिया ने माना है कि दर्शन के मामले में वो भारत का ऋणी है .बात मिथकों के हवाले से कि जाये या एतिहासिक द्वंदात्मक भौतिकवादी वैज्ञानिक सिद्धांत क नजरिये से यह तय है कि पूरा पूरा नहीं तो आंशिक ही सही मार्क्सवाद भारतीय चार्वाकों ,बौद्धों ,जैनियों और सांख्य दर्शन का ऋणी है .ऋषि कणाद .विश्वामित्र ,शुक्राचार्य से लेकर कार्ल मार्क्स तक कि चिंतन परम्परा में सिर्फ अर्थशाश्त्र ही सेमेटिक या यूनानी हो सकता है बाकि का सारा विशुध्ध भारतीय है ,इसीलिये कहा जाता है कि न केवल वसुधैव कुटुम्बकम अपितु ‘सबका सब है ‘का सिद्द्धंत याने साम्यवाद भी भारतीय दर्शन है .

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