मृत्यु होने पर जीवात्मा की स्थिति व गति पर विचार

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-मनमोहन कुमार आर्य

हमें अपने एक विभागीय अधिकारी के परिवारजन की मृत्यु होने पर अन्त्येष्टि में सम्मिलित होने श्मशान घाट जाना पड़ा। वहां हमारे अनेक मित्र भी उपस्थित थे। हमारे साथ दो मित्र बातें कर रहे थे कि मरने के बाद कुछ दिन तक आत्मा परिवारजनों के साथ व आसपास ही रहती है। श्मशान में मृतक शरीर के साथ उसकी आत्मा अन्तिम संस्कार को भी देखती है। अन्त्येष्टि हो जाने पर वह अत्यन्त दुःखी होकर वहां से चली जाती है। हमने एक बार दूरदर्शन पर एक अत्यन्त प्रभावशाली पौराणिक विद्वान वक्ता का प्रवचन सुना जिसमें उन्होंने कहा था कि मृत्यु होने पर मृतक की आत्मा शरीर के बाहर उसके आसपास इर्द-गिर्द मण्डराती रहती है। उन्होंने तर्क दिया था कि आत्मा का अपने शरीर से मोह व लगाव होता है जिससे वह उसके निकट ही रहती है। हमारे साथ के एक मित्र कह रहे थे कि मृतक के परिवारजनों को रोना नहीं चाहिये इससे मृतक आत्मा को दुःख होता है। हम यह सभी बातें सुन रहे थे। हमने उनसे एक प्रश्न किया और कहा कि जीवित अवस्था में जब हम आंखें बन्द कर लेते हैं तब हमारी आंखे आसपास की किसी भी वस्तु को देख नहीं पाती। देखने का काम हम आंखों से करते हैं। आत्मा आंखों से ही देखती है और आंखें बन्द हों तो देख नहीं सकती। आंखें देखने के उपकरण हैं। बिना उपकरण के उपकरण का कार्य नहीं कर सकते अर्थात् अन्धा व्यक्ति देखने की तीव्र इच्छा रखते हुए भी देख नहीं सकता। जब मृत्यु होती है तो आत्मा स्वेच्छा से नहीं निकलती अपितु एक अदृश्य सत्ता, वह सत्ता सर्वव्यापक ईश्वर होती है, उसकी प्रेरणा व बल से बाहर निकलती है। आत्मा के साथ हमारे प्राण आदि जो सूक्ष्म शरीर का भाग होते हैं, वह भी शरीर से पृथक हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में जो आत्मा शरीर में रहकर भी देख नहीं सकती थी, उसके लिए अपने शरीर और वहां उपस्थित परिवारजनों को देखना और शरीर की शवयात्रा में श्मशान तक जाना और वहां उपस्थित लोगों को देखना यदि सम्भव है तो वह कैसे सम्भव है? हमनें उनसे पूछा कि यदि आपके पास इसका कोई तार्किक उत्तर है तो बतायें? इसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया और विषय परिवर्तन कर दिया। हमारे मित्र जो योग, ध्यान व उपासना का अभ्यास करते हैं, उन्होंने कहा कि इस विषय पर भी आप कोई लेख लिखें। हमने मृतक की आत्मा द्वारा शरीर को छोड़कर बाहर निकल जाने पर अपने पूर्व शरीर को न देख पाने की जो युक्ति दी है, वही हमें उचित लगती है। मृतक का आत्मा शरीर से पृथक होने पर न तो स्वयं के पूर्व शरीर को और न अन्य वस्तुओं को देख सकता है। वह अन्य इन्द्रियों के कार्य भी नहीं कर सकता, अर्थात् देख, सुन, सूंघ, स्पर्श आदि नहीं कर सकता, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

 

दूसरी बात यह कही जाती है कि आत्मा कुछ समय या एक दो दिनों तक अथवा दाहसंस्कार होने तक शरीर के आसपास व चारों ओर मण्डराती रहती है या घूमती रहती है। यह बात भी हमें अज्ञान व अविवेकपूर्ण प्रतीत होती है। महर्षि दयानन्द ने शरीर त्याग के बाद जीवात्मा की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि शरीर से निकलकर जीवात्मा सूक्ष्म शरीर सहित वायु वा आकाश में रहता है। जीवात्मा का जहां जन्म होना होता है, ईश्वर की प्रेरणा से जीवन वहां जाकर पहले पिता के शरीर में प्रवेश करता है और गर्भाधान की क्रिया में पिता के शरीर से माता के गर्भ में जाकर दस मास बाद जन्म लेकर संसार में आता है। इस वर्णन में ऋषि दयानन्द ने ऐसा कुछ नहीं लिखा कि जिससे यह अनुमान किया जा सके कि जीवात्मा मृत्यु के बाद शरीर के आसपास रूकता है व अन्त्येष्टि पर्यन्त उसके निकट मण्डराता है। इससे तो यही ज्ञात होता है कि आत्मा मृतक शरीर से निकल कर वायु वा आकाश में रहता है और ईश्वर की प्रेरणा से अपने कर्मानुसार भावी माता-पिता की ओर गति कर पिता के शरीर में जाकर गर्भ स्थिति होने तक वहां रहता है। महर्षि दयानन्द की बात इसलिए प्रामाणिक है कि वह वेदज्ञ, आप्तपुरुष, ऋषि एवं योगी थे। सम्पूर्ण वेद व अन्य सत्य शास्त्र भी उन्हें उपस्थित थे।

 

जीवात्मा शरीर से निकल कर कुछ समय तक शव के निकट रहता है या नहीं एवं अन्त्येष्टि पर्यन्त शरीर के पास रहता है, इस विषय में वेद व प्रामाणिक ग्रन्थों में वर्णन नहीं मिलता। पुराणों की बातें, यदि उनमें इस विषयक कुछ वर्णन हो भी तब भी प्रामाणिक नहीं हैं। इसका कारण पुराणों का मनुष्य रचित होना है और मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अल्पज्ञ का ज्ञान भी भ्रान्तियुक्त होता है। पुराण वेद विरुद्ध होने से प्रामाणिक नहीं हैं। अतः पुराणों के आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

 

ऐसा प्रायः सभी स्थानों पर देखा जाता है कि मृतक के परिवानजन उसके लिए कुछ दिनों तक शोक करते हैं। गांवों में ऐसी बातें अधिक होती हैं। गांवों में व शहरों के पुराने लोगों को हमने देखा है कि मृतक के परिवार व संबंधी जन जो दूर दूर निवास करते हैं, तेरह दिनों तक जब जब आते रहते हैं, दोनों मिलकर कुछ देर जोर जोर चीखें निकालकर रोते हैं। ऐसा करना उचित प्रतीत नहीं होता। इसलिए कि यह सिद्धान्त है कि जन्म लेने वाला मनुष्य व प्राणी कालान्तर में अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होता है। यह भी निश्चित सिद्धान्त है कि जो मरेगा उसका पुनर्जन्म होगा। यदि आत्मा का पुनर्जन्म न होता तो हमें लगता है कि संसार में किसी भी दम्पत्ति के यहां सन्तानें जन्म न लेती। इसलिए न लेती कि जीवात्मा, ईश्वर व मूल प्रकृति अनादि, नित्य व अविनाशी है। ईश्वर जीवात्मा की जन्म व मरण की व्यवस्था तो कर सकता है, किसी नई जीवात्मा को बना नहीं सकता। जो भी मनुष्य जन्म लेता है वह आत्मा के अविनाशी होने तथा कर्मफल सिद्धान्त के कारण उससे पूर्व अवश्य कहीं मरता है। उसकी वह मृत्यु मनुष्य योनि सहित अन्य पशु आदि योनियों में भी हो सकती है। उन्हीं मृतक आत्माओं का जन्म शिशु रूप में माता-पिता से होता है। मृत्यु होने पर जिन आत्माओं के लिए शोक किया जाता है वह तो अपने कर्मानुसार दूसरे स्थानों पर जाकर जन्म प्राप्त कर लेती हैंं, पूर्व जन्म की बातों को भूल चुकी होती हैंं, अतः शोक करना उचित नहीं है। दूसरा कारण यह भी है कि इस जन्म में मृत्यु का कारण अति वृद्धावस्था, रोग व दुर्घटना आदि होते हैं। ऐसी अवस्था में यदि मृत्यु न हो तो वह जीवात्मा हमेशा कष्ट में रहेगा। मृत्यु से पूर्व व शरीर छोड़ते समय जीवात्मा को कुछ कष्ट तो होता है परन्तु उसके बाद उसे नये जन्म में जो सुख व उन्नति के अवसर मिलते हैं, उन पर विचार कर मृत्यु का दुःख आत्मा को प्राप्त होने वाले सुखों की तुलना में कम व हल्का प्रतीत होता है। अतः मृतक के लिए शोक न कर ईश्वर की व्यवस्था को समझना व विचार करना चाहिये। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना व सद्कर्मों को करके वियोग के दुःख को सहन कर अपने मन को दैनन्दिन आत्मोन्नति व सांसारिक उन्नति के कार्यों में लगाना चाहिये। इति ओ३म् शम्।

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