गुजरात में आदिवासी आन्दोलन क्यों?

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ललित गर्गः-

असंवैधाानिक एवं गलत आधार पर गैर-आदिवासी को आदिवासी सूची में शामिल किये जाने एवं उन्हें लाभ पहुंचाने की गुजरात की वर्तमान एवं पूर्व सरकारों की नीतियों का विरोध इनदिनों गुजरात में आन्दोलन का रूप ले रहा है। समग्र देश के आदिवासी समुदाय का नेतृत्व करने वाले गुजरात के आदिवासी समुदाय के प्रेरणापुरुष गणि राजेन्द्र विजयजी इस ज्वलंत एवं आदिवासी अस्तित्व एवं अस्मिता के मुद्दे पर सत्याग्रह कर रहे हैं। अनेक कांग्रेसी एवं भाजपा के आदिवासी नेता भी उनके साथ खड़े हैं। गुजरात के आदिवासी जनजाति से जुड़े राठवा समुदाय में उनको आदिवासी न मानने को लेकर गहरा आक्रोश है। इन विकराल होती संघर्ष की स्थितियों पर नियंत्रण नहीं किया गया तो यह न केवल गुजरात सरकार बल्कि केन्द्र सरकार के लिये एक बड़ी चुनौती बन सकता है।
इन दिनों समाचार पत्रों एवं टीवी पर प्रसारित समाचारों से यह जानकर अत्यंत दुख हुआ कि गुजरात में आदिवासी जनजाति के अधिकारों एवं उनके लिये बनी लाभकारी योजनाओं को किसी गैर आदिवासी जाति के लोगों को असंवैधानिक एवं गलत तरीकों से हस्तांतरित करना न केवल आपराधिक कृत है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है। आदिवासी जन-जाति के अधिकारों के हनन की इस तरह की घटनाएं राजनीति तूल पकड़ ही रही है, गुजरात की राजनीति में वहां के आदिवासी समुदाय की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका है, भाजपा के ही अनेक आदिवासी नेता नाराज है, यह नाराजगी गैरवाजिब नहीं है।
गुजरात के आदिवासी समुदाय की नाराजगी अनायास नहीं है। सन् 1956 से लेकर 2017 तक के समय में सौराष्ट्र के गिर, वरड़ा, आलेच के जंगलों में रहने वाले भरवाड़, चारण, रबारी एवं सिद्धि मुस्लिमों को इनके संगठनों के दवाब में आकर गलत तरीकों से आदिवासी बनाकर उन्हें आदिवासी जाति के प्रमाण-पत्र दिये जाने की घटना को लेकर गणि राजेन्द्र विजयजी ने आन्दोलन शुरु किया। उनका मानना है कि यह पूरी प्रक्रिया बिल्कुल गलत, असंवैधानिक एवं गैर आदिवासी जातियों को लाभ पहुंचाने की कुचेष्टा है, जिससे मूल आदिवासियों के अधिकारों का हनन हो रहा है, उन्हें नौकरियों एवं अन्य सुविधाओं से वंचित होना पड़ रहा है। यह मूल आदिवासी समुदाय के साथ अन्याय है और उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित करना है। पिछले 60 वर्षों से चला आ रहा मूल आदिवासी जाति के अधिकारों के जबरन हथियाने और उनके नाम पर दूसरी जातियों को लाभ पहुंचाने की अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को तत्काल रोका जाना आवश्यक है अन्यथा इन स्थितियों के कारण आदिवासी जनजीवन में पनप रहा आक्रोश एवं विरोध विस्फोटक स्थिति में पहुंच सकता है। गणि राजेन्द्र विजयजी न केवल गुजरात बल्कि देश में सर्वत्र आदिवासी समुदाय को उनके अधिकार दिलाने एवं उनके जीवन के उन्नत बनाने के लिये प्रयासरत है। ऐसे कार्यों की सराहना की बजाय विरोध एवं विध्वंस झेलना पड़े, यह लोकतंत्र के लिये शर्मनाक है।
हाल ही में सम्पन्न गुजरात विधानसभा के चुनाव में आदिवासी समाज की नाराजगी का साफ असर दिखाई दिया। अन्यथा भाजपा जिस शानदार जीत का दावा कर रही थी, वह संभव हो सकता था। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला-फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं रही। क्योंकि गुजरात का आदिवासी समाज बार-बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। इस प्रांत की लगभग 23 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह गुजरात के आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन-यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। गुजरात सरकार अगर सचमुच में प्रदेश के आदिवासी समुदाय का विकास चाहती हैं और ‘आखिरी व्यक्ति’ तक लाभ पहुँचाने की मंशा रखती हैं तो आदिवासी हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी।
आदिवासी समुदाय को बांटने और तोड़ने के व्यापक उपक्रम चल रहे हैं जिनमें अनेक राजनीतिक दल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के घिनौने एवं देश को तोड़ने वाले प्रयास कर रहे हैं। ऐसी ही कुचेष्टाओं  में जबरन गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने के घृणित उपक्रम को नहीं रोका गया तो गुजरात का आदिवासी समाज खण्ड-खण्ड हो जाएगा। आदिवासी के उज्ज्वल एवं समृद्ध चरित्र को धुंधलाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वालों के खिलाफ गणि राजेन्द्र विजयजी आन्दोलनरत हुए हैं, उनके आन्दोलन को राजनीतिक नजरिये से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। तेजी से बढ़ते आदिवासी समुदाय को विखण्डित करने का यह बिखरावमूलक दौर गुजरात सरकार के लिये गंभीर समस्या बन सकता है। एक समाज और संस्कृति को बचाने की मुहीम के साथ शुरु किय गये इस आन्दोलन से यदि इस आदिवासी समुदाय के लिये कोई सकारात्मक जमीन तैयार की जाये, तो इस आन्दोलन की सार्थकता है।
आजादी के सात दशक बाद भी गुजरात के आदिवासी उपेक्षित, शोषित और पीड़ित नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियाँ और नेता आदिवासियों के उत्थान की बात करते हैं, लेकिन उस पर अमल नहीं करते। आज इन क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वरोजगार एवं विकास का जो वातावरण निर्मित होना चाहिए, वैसा नहीं हो पा रहा है, इस पर कोई ठोस आश्वासन इन निर्वाचित सरकारों से मिलना चाहिए, वह भी मिलता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। अक्सर आदिवासियों की अनदेखी कर तात्कालिक राजनीतिक लाभ लेने वाली बातों को हवा देना एक परम्परा बन गयी है। इस परम्परा को बदले बिना देश को वास्तविक उन्नति की ओर अग्रसर नहीं किया जा सकता। देश के विकास में आदिवासियों की महत्वपूर्ण भूमिका है और इस भूमिका को सही अर्थाें में स्वीकार करना वर्तमान की बड़ी जरूरत है।
बात केवल गैर-आदिवासी को आदिवासी बनाने या राठवा समुदाय को आदिवासी न मानने की ही नहीं है, बात गुजरात में अभी भी आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवनयापन करने की भी हैं। जबकि केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी 7 दशक में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, पीने का साफ पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं।
जिस प्रांत से प्रधानमंत्री एवं भाजपा अध्यक्ष आते हो, उस प्रांत में आदिवासी समुदाय की उपेक्षा और उनकी स्थिति डांवाडोल होना एक गंभीर चुनौती है। आदिवासी जन-जाति के साथ हो रहा सत्ता का उपेक्षापूर्ण व्यवहार गुजरात के समृद्ध एवं विकसित राज्य के तगमे पर एक प्रश्नचिन्ह है। यह कैसी समृद्धि है और यह कैसा विकास है जिसमें आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। सरकार आदिवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं। महँगाई के चलते आज आदिवासी दैनिक उपयोग की वस्तुएँ भी नहीं खरीद पा रहे हैं। वे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। अतः गुजरात की बहुसंख्य आबादी आदिवासियों पर विशेष ध्यान देना होगा।
हमें यह भी समझना होगा कि एक मात्र शिक्षा की जागृति से ही आदिवासियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आएगा। बदलाव के लिए जरूरत है उनकी कुछ मूल समस्याओं के हल ढूंढना। भारत के जंगल समृद्ध हैं, आर्थिक रूप से और पर्यावरण की दृष्टि से भी। देश के जंगलों की कीमत खरबों रुपये आंकी गई है। ये भारत के सकल राष्ट्रीय उत्पाद से तो कम है लेकिन कनाडा, मेक्सिको और रूस जैसे देशों के सकल उत्पाद से ज्यादा है। इसके बावजूद यहां रहने वाले आदिवासियों के जीवन में आर्थिक दुश्वारियां मुंह बाये खड़ी रहती हैं। आदिवासियों की विडंबना यह है कि जंगलों के औद्योगिक इस्तेमाल से सरकार का खजाना तो भरता है लेकिन इस आमदनी के इस्तेमाल में स्थानीय आदिवासी समुदायों की भागीदारी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। जंगलों के बढ़ते औद्योगिक उपयोग ने आदिवासियों को जंगलों से दूर किया है। आर्थिक जरूरतों की वजह से आदिवासी जनजातियों के एक वर्ग को शहरों का रुख करना पड़ा है। विस्थापन और पलायन ने आदिवासी संस्कृति, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और संस्कार को बहुत हद तक प्रभावित किया है। गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चलते आज का विस्थापित आदिवासी समाज, खासतौर पर उसकी नई पीढ़ी, अपनी संस्कृति से लगातार दूर होती जा रही है। आधुनिक शहरी संस्कृति के संपर्क ने आदिवासी युवाओं को एक ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया है, जहां वे न तो अपनी संस्कृति बचा पा रहे हैं और न ही पूरी तरह मुख्यधारा में ही शामिल हो पा रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी अक्सर आदिवासी उत्थान और उन्नयन की चर्चाएं करते हैं और वे इस समुदाय के विकास के लिए तत्पर भी हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि आदिवासियों का हित केवल आदिवासी समुदाय का हित नहीं है प्रत्युतः सम्पूर्ण देश व समाज के कल्याण का मुद्दा है जिस पर व्यवस्था से जुड़े तथा स्वतन्त्र नागरिकों को बहुत गम्भीरता से सोचना चाहिए।
अब जबकि गणि राजेन्द्र विजयजी के प्रयासों से आदिवासी क्षेत्र में उनके अधिकारों एवं अस्तित्व को लेकर भी जागृति का माहौल बना है। उनका मानना है कि सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों को इस दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बनानी चाहिए। जैसाकि छोटा उदयपुर में उनके स्वयं के नेतृत्व में इस दृष्टि से एक अभिनव क्रांति घटित हुई है। यह कोरा आन्दोलन नहीं, बल्कि एक जाति को बचाने का रचनात्मक उपक्रम हैं।

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