फिर से ऑनलाइन हो जाने का वक्त

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मनोज कुमार
कोरोना की पहल लहर को हमने बहुत हल्के में लिया था और दूसरी लहर के मुकाबले उसने उतना नुकसान नहीं किया था। दूसरी लहर को भी हमने पहली लहर की तरह हल्के में लिया और हम सब पर कयामत टूट पड़ी। तीसरी लहर सिर पर खड़ी है और रोज-ब-रोज बदलती जानकारियां भ्रमित कर रही हैं। इन सबके बावजूद इस अंदेशे से इंकार करना मुश्किल है कि कोरोना की यह तीसरी लहर हमें नुकसान पहुंचाये बिना ही गुजर जाएगी। बड़े-बुर्जुगों ने कहा भी है कि दुघर्टना से सर्तकता भली और यह समय कह रहा है कि हम सम्हल जाएं, सर्तक हो जाएं। निश्चित रूप से जब हमारी दिनचर्या बदलती है तो कई तरह की परेशानी आती है लेकिन जान है तो जहान है, इस बात का खयाल रखना होगा। सरकार और उसका तंत्र पहले की तरह अपना काम कर रहा है लेकिन हम सर्तक नहीं रहेंगे तो हमारी-आपकी या हमारे लोगों की जिंदगी पर ही खतरा आना है। दवा, इलाज, डॉक्टर, ऑक्सीजन तो तभी कारगर होंगे जब स्थिति नियंत्रण में होगी। जैसा कि दूसरी लहर में चौकचौबंद व्यवस्था धरी रह गई क्योंकि इंतजाम से ज्यादा बीमारों की संख्या हो गई थी। एक बार फिर हम सबको अपने स्तर पर चेत जाना है और स्थिति बिगडऩे लगे, इसके पहले नियंत्रण में लेेने में सहयोग करना होगा।
कोरोना का सबसे ज्यादा हमला भीड़ भरी जगह में होता है। ताजा जानकारी इस बात को पुख्ता करती है कि कोरोना का डेल्टा का चेहरा अब ओमिक्रॉन के नाम पर आ गया है जो आसपास गुजरने से दूसरे को बीमार कर सकता है। यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि एक बड़े संकट से गुजर जाने के बाद भी हम लापरवाह बने हुए हैं। चेहरे पर ना तो मॉस्क है और ना ही हम सेनेटाइजर का उपयोग कर रहे हैं। शारीरिक दूरी बनाये रखने में तो जैसे हमें किसी अज्ञात शक्ति ने रोक रखा है। लगभग दो साल के कोरोना के पीरियड में इस बात की सीख बार बार दी जा रही है कि यही तीन उपाय हैं जिससे हम अपने जीवन को आफत से बचा सकते हैं। बावजूद इसके हमारी जिद से कोरोना भागे या डरेगा, यह हमारी कल्पना हो सकती है लेकिन हम जिंदगी हार जाएंगे, इसकी आशंका बनी रहती है। समाज को चेताने के लिए सरकारी प्रयास हो रहे हैं लेकिन वैसे सख्ती और पाबंदी देखने को नहीं मिल रही है, जो कोरोना को फैलने से रोकने में कारगर हो।
बीते दो साल और शायद आगे आने वाले कुछ माह हम उत्सवहीन नहीं रह सकते हैं? क्या हम अपने आपको अपने घरों तक सिमट कर नहीं रह सकते हैं? क्या शिक्षण संस्थाओं को वापस ऑनलाइन मोड में नहीं लाया जा सकता है? क्या ऑफिसों को वर्कफ्रॉम होम नहीं किया जा सकता है? यह सबकुछ किया जा सकता है और किया जाना चाहिए क्योंकि हमारा जो सामाजिक ताना-बाना है, वह ऐसा नहीं है कि इन सब पाबंदियों के बिना हम बीमारी को रोक सकें. शिक्षण संस्थायें खुली रहेंगी तो निश्चित रूप से बच्चों के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग होगा और पब्लिक ट्रांसपोर्ट होने का अर्थ शारीरिक दूरी की समाप्ति। निजी एवं शासकीय दफ्तरों के सक्रिय रहने से वह तमाम आशंकायें सिर उठाने लगती हैं जिससे कोरोना के फैलाव को रोकना लगभग असंभव सा होता है। फाइलोंं का आदान-प्रदान, एक-दूसरे के सम्पर्क में आना लाजिमी है जिससे कब, कौन कोरोना के लपेटे में आ जाए, कहना मुश्किल होगा। लॉकडाउन एक बड़ा संकट खड़ा कर सकता है लेकिन वीकएंड लॉकडाउन कोरोना को रोकने का बेहतर उपाय हो सकता है। वैसे भी पांच दिनी कार्यदिवस है तो क्यों ना दो दिनों के लिए आवाजाही, सौदा-सुलह पर बंदिश लगा दी जाए। ऐसा किये जाने से इस बात की आश्वस्ति तो होगी कि कोरोना को आने से भले ही ना रोक सकें लेकिन उसके फैलाव को तो रोक सकते हैं।
शासन-प्रशासन को सख्ती के साथ शिक्षण संस्थाओं को ऑफलाइन मोड से ऑनलाइन मोड पर अनिवार्यत: लेकर आने पर ना केवल विचार करना चाहिए बल्कि इसे तत्काल प्रभाव से लागू किया जाना चाहिए। यह स्कूल और कॉलेज दोनों स्तर पर किया जाना चाहिए। इस प्रतिबंध के खिलाफ यह तर्क दिया जा सकता है कि इंटरनेट की सुविधा आड़े आती है तो इस बात की भी तसल्ली की जानी चाहिए कि जैसा बीता समय गुजर गया, वैसा ही कुछ और समय लेकिन कोरोना के फैलने से जो समस्या आएगी, उससे बचा जा सकेगा। वर्कफ्रॉम होम को भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। जिस आधुनिक समय के साथ हमकदम हो रहे हैं और जीवन का हर पक्ष अब टेक्रालॉजी फ्रेंडली हो रहा है तो इसे पूर्वाभ्यास मानकर हमें आत्मसात कर लेना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में भारी-भरकम खर्चों को बचाने तथा तत्काल परिणाम देने वाली कार्यसंस्कृति के लिए जिंदगी ऑनलाइन हो जाएगी। अभी तो धडक़न की शर्त पर ऑनलाइन किये जाने की बात है तब आगे भविष्य में हम और ऑनलाइन साथ-साथ होंगे।
उत्सव के सारे उपक्रम को थाम देना चाहिए। जीवन शेष रहा तो हर दिन उत्सव होगा। अभी हम कठिन दौर से गुजर रहे हैं और इससे बाहर निकलने के लिए स्व-नियंत्रण और नियमन जरूरी हो जाता है। सब लोग समय पर और बिना किसी भय के साथ टीकाकरण करायें, इसकी जवाबदारी भी हम सब अपने अपने स्तर पर लें। बचाव का यह एक बड़ा उपाय है। यह कठिन समय गुजर जाएगा इसलिए डरने और डराने के बजाय सम्हलने और सम्हालने का वक्त है। सरकार पर आश्रित रहने के बजाय अपनी दिनचर्या और आदतों को बदल कर स्वास्थ्य सेवाओं को सहज और सुलभ बनायें। कोरोना एक सबक है कि हम जीवन को कितना आसान बना सकते हैं। चलों, एक बार फिर ऑनलाइन हो जाएं।

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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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