संवेदनशील क्षेत्रों की समस्याओं को नज़रअंदाज करना खतरनाक होगा?

रमीज़ राजा 

images (1)हाल ही सेना ने कश्मीर के पुलवामा में पाक प्रशिक्षित दो मिलिटेंटों को मार गिराने में कामयाबी पाई। मारे गए दोनों मिलिटेंट पाकिस्तान की मदद से राज्य में सक्रिय आंतकवादी गिरोह के सदस्य थे। इलाके में इनकी उपस्थिती गृह मंत्रालय के उस बयान की पुष्टि करता है जिसमें कहा गया है कि जम्मू कष्मीर में आंतकवादियों की सक्रियता कम जरूर हुई है लेकिन खत्म नहीं हुई है। मिलिटेंटों की उपस्थिती को पूरी तरह से खत्म करने के लिए सबसे बड़ी आवश्य्कता ऐसे में क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं को ईमानदारी के साथ शत-प्रतिशत क्रियान्वित करना है। स्थानीय निवासियों के लिए अधिक से अधिक शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और रोजगार जैसे प्राथमिक आवश्याकताओं के साधन उपलब्ध करवाने होंगे। इससे एक तरफ जहां क्षेत्र का विकास संभव होगा वहीं दूसरी ओर स्थानीय स्तर पर मिलिटेंटों को मिलने वाले समर्थन को भी समाप्त किया जा सकता है।

दरअसल जम्मू कश्मीर देश का एक ऐसा राज्य है जो ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से सदैव संवेदनशील रहा है। एक ओर जहां सीमा पर तनाव के कारण दोनों ओर से इंसानी खून पानी की तरह बहा है वहीं दूसरी ओर राज्य के अंदर कई बार अलगाववादियों के बयानों से नागरिकों और सेना के बीच झपड़ों ने अपनों को ही गोलियों का निशाना बनाया है। इन झड़पों ने धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को कई बार खून की चादर में लपेटा है। सुबह यदि खुशनुमा मौसम से हुई हो तो कोई नहीं जानता कि शाम ढ़लते ढ़लते यहां कितने बेगुनाहों की लाशें बिछ जाएंगी। यहां की जनता के सीने को कभी अलगाववादियों की बंदूकों से निकलने वाली गोलियों ने तो कभी सेना के साथ होने वाले विरोध प्रदर्शन के दौरान चली गोलियों ने छलनी किया है। इस खून खराबे ने न केवल इंसानी जिंदगी को खोया है बल्कि आर्थिक रूप से भी जम्मू कष्मीर को हमेशा नुकसान ही पहुंचाया है।

वास्तव में जम्मू कष्मीर की जनता चक्की के दो पाटों के बीच पिस कर रह गई है। सूफियों की इस जमीन पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए चारों ओर से तनाव के सभी तीरों को तरकश से निकाला जाता रहा है। जिससे क्षेत्र का बुनियादी विकास प्रभावित होता है। इसका फायदा दुष्मन देश उठाते रहे हैं और घुसपैठ के माध्यम से आंतकवादी वारदातें सामने आती रही हैं। ऐसी परिस्थितियों के कारण यहां बेहिसाब दर्दनाक घटनाएं जन्म लेती रही हैं। जिन्हें चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता है। इन्हीं में एक घटना दस वर्ष पूर्व 17 अप्रैल 2003 को जम्मू के सीमावर्ती क्षेत्र पुंछ जि़ला स्थित सुरनकोट तहसील के हिलकाका का है। पहाड़ी पर बसा यह इलाक़ा अधिकतर समय बर्फ की चादर से लिपटा रहता है। ऐसे में यह मिलिटेंटों के लिए महफूज़ पनाहगाह बन चुका था। हिलकाका में उनकी गतिविधियां इतनी मजबूत हो चुकी थी कि सेना को उनके खिलाफ ‘ऑपरेशन सर्पविना’ चलाना पड़ा। इस ऑपरेशन को सफल बनाने और क्षेत्र को मिलिटेंटों से मुक्त करवाने में स्थानीय निवासियों की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता है। दस दिनों तक चले इस अभियान में दर्जनों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इस दौरान दोनों ओर से हुई गालीबारी में सैकड़ों मकानों को नुकसान पहुंचा और बड़े पैमाने पर आर्थिक क्षति भी हुई।

हिलकाका में मिलिटेंटों की बढ़ती गतिविधियों के कारण कई परिवार अपना घर छोड़कर पुंछ तहसील स्थित मेंढ़र विस्थापित हो गए। फौज ने ऑपरेशन में बेघर हुए लोगों को घर बनाकर देने का वादा किया। सरकार की ओर से भी मुआवज़े देने का एलान किया गया। वादे के अनुसार मुआवज़ा मिला भी होगा, लेकिन उनतक नहीं पहुंचा जो वास्तव में इसके हकदार थे। पुंछ में कार्यरत चरखा के कॉर्डिनेटर और सामाजिक कार्यकर्ता निज़ामुद्दीन मीर के अनुसार मुआवज़े का लाभ प्राप्त करने के लिए लोगों ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया और अधिकारियों को रिश्वपत भी दिया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि जिसने आजतक हिलकाका देखा भी नहीं था, उसे मुआवज़ा मिल गया। जिनके घर और मेवशी को कोई नुकसान नहीं पहुंचा वही मुआवज़ा लेने में सबसे आगे रहे। जबकि अधिकतर पीडि़तों को यह नसीब भी नहीं हुआ। विस्थापित 35 वर्षीय सायमा कहती हैं कि उनका परिवार आजतक मुआवज़ा की बाट जोह रहा है ताकि अपनी जि़दगी को दुबारा पटरी पर लाया जा सके। सायमा के पति की मौत हो चुकी है और आमदनी का माध्यम बंद हो जाने के कारण उसे दूसरों के टुकड़ों पर निर्भर रहना पड़ रहा है।

करीब 600 लोगों की आबादी वाले हिलकाका में ऑपरेशन ‘सर्पविनाश’ की सफलता को दस वर्ष गुज़र चुके हैं लेकिन आज भी यहां के निवासी बुनियादी आवश्य।कताओं की कमी से जूझ रहे हैं। यहां न तो विद्युतीकरण की उचित व्यवस्था है, और न ही आने जाने के लिए सड़क है। जर्जर सड़क होने के कारण यहां इक्का-दुक्का गाड़ी ही पहुंच पाती है। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की छाप तक यहां नहीं पहुंच सकी है। वहीं दूसरी ओर स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत यह है कि उसे खुद ही उपचार की आवश्यदकता है। ऐसे में स्थानीय निवासी आपातकाल के समय मरीज़ विषेशकर गर्भवती महिला को खाट पर लिटाकर चार कंधों के द्वारा पांच से सात घंटे पैदल चलकर करीब 17 किमी दूर ब्फलियाज़ लाते हैं। प्राथमिक विद्यालय की दुर्दशा के बारे में शिक्षक सिद्दीक़ अहमद सिद्दीक़ी बताते हैं कि स्कूल में छात्राओं के लिए शौचालय की व्यवस्था तक नहीं है। जो सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश का उल्लंघन है जिसमें न्यायालय ने सभी स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था करने का आदेश दिया था और इस आदेश को शत-प्रतिशत लागू करने की समयसीमा भी निकल चुकी है।

स्थानीय महिला नगीना कौसर कहती हैं कि शायद सरकार हमें देश का नागरिक के रूप में भूल चुकी है क्योंकि यदि ऐसा होता तो हमें अपने मौलिक और बुनियादी अधिकारों से वंचित नहीं किया जाता। इस क्षेत्र में कोई उच्च प्रशासनिक अधिकारी झांकने तक नहीं आता है। किसी को इस बात की चिंता नहीं है कि हमारी जिदगी कैसे कट रही है। सर्दी के मौसम में जब बर्फबारी होती है तो हमारे लिए जीवन नर्क बन जाता है। किसी भी राजनीतिक दलों को हमारी समस्या नजर नहीं आती है। अलबत्ता चुनाव के समय सभी वोट मांगने आते हैं और जीतने पर क्षेत्र की समस्या को हल करने का वादा भी करते हैं लेकिन चुनाव के बाद कोई जनप्रतिनिधि पलटकर भी नहीं आता है। कभी कभी ऐसा लगता है कि हम अपने ही देश और अपनी ही जमीन पर बेगानों की तरह रह रहे हैं। यदि उपेक्षा का यही आलम रहा तो मिलिटेंटों की इस क्षेत्र में गतिविधियों के बढ़ते देर नहीं लगेगी। इस बात का प्रमाण देश की अंदरूनी सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके नक्सली हैं जो उन्हीं क्षेत्रों में सक्रिय हैं जहां जहां सरकार की बुनियादी सुविधाओं नहीं पहुंच पाती हैं। (चरखा फीचर्स)

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  1. सरकार की अदुर्दार्शिता ,त्रुटिपूर्ण नीतिया इन सब के लिए जिम्मेदार रही हैं.कश्मीर को हमने शुरू में इतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना शोर किया गया,उसके अंजाम अब भुगतने पड़ रहें हैं.इसी कारण जनता में उतना भावनात्मक लगाव भारत के प्रति नहीं उपज पाया जो होना चाहिए था.अब्दुल्ला परिवार को खुश रखने की निति शुरू से लेकर आज तक चल रही है,क्योंकि कांग्रेस की भी इसमें भागीदारी रही है,यह परिवार केवल अपने स्वार्थों में लिप्त रहा,दुसरे नेतृत्व को पनपने ही नहीं दिया अतः लोगों में क्षोब आना भी स्वाभाविक है.

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