
यह स्थिति वीके सिंह के लिए असहाय हो गई और उन्होंने ट्विटर पर मीडिया को भद्दी गाली ‘प्रोस्टिट्यूट’ दे दी।
देखा जाए तो इस मामले में मीडिया का दोहरा चरित्र लक्षित हुआ है। एक ओर अमेरिका ने भारत सरकार और वीके सिंह के प्रयासों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसके देश के नागरिकों को बचाने की अपील की और वैश्विक स्तर पर भारतीय सेना की छवि उज्जवल हुई वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ‘आप’, ‘पाप’ और ‘खाप’ में ही उलझी रही। फिर वीके सिंह ने जिस शब्द का इस्तेमाल किया उसका सीधा निशाना वे संस्थान रहे जो हमेशा से ही उनके खिलाफ विष-वमन करते रहे हैं। वीके सिंह से जुड़े तमाम विवादों, मसलन जन्मतिथि विवाद, सुकना जमीन घोटाला, सेनाध्यक्ष को घूस की पेशकश, चिट्ठी लीक मामला, टाट्रा ट्रकों की खरीद के तरीके में गड़बड़ी, रक्षा खरीद को मंजूरी नहीं मिलना, सेना का दिल्ली कूच आदि में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक धड़े ने जिस तरह उन्हें घसीटा और उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया, उससे वीके सिंह व्यथित थे और इसी के चलते उन्होंने मीडिया को गाली दे डाली।
दरअसल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के समक्ष इन दिनों जिस तरह साख का संकट उत्पन्न हुआ है उसने पत्रकारिता के इस माध्यम को अंदर तक झकझोर दिया है। सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत, प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता और वेब जर्नलिज्म की मजबूती ने दृश्य माध्यम को जमकर नुकसान पहुंचाया है। उसपर से रोज़ खुलते-बंद होते समाचार चैनलों ने भी इस माध्यम की प्रासंगिकता और भरोसे को तोडा है। अतः समाचार चैनल इन दिनों किसी भी खबर को सनसनी बनाकर पेश करने से नहीं चूक रहे। वीके सिंह के मामले में भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने यही गलती कर दी। यदि वीके सिंह ने मीडिया को गाली दी थी तो उसका कड़ा एवं उचित प्रतिरोध होना चाहिए था जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने वीके सिंह को पूरे-पूरे दिन चैनलों पर चलाकर उनके खिलाफ सहानुभूति की लहर पैदा कर दी जिससे सोशल मीडिया पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की जमकर खिलाफत हुई। इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए साख का संकट पैदा हो गया जो कि नहीं होना चाहिए था।
किसी भी घटना या संभावित खबर पर अति-उत्साहित होकर की गई रिपोर्टिंग के चलते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी प्रासंगिकता पहले ही खो चुका है और वीके सिंह से जुड़े विवाद के मुद्दे ने उसे अलग-थलग कर दिया है। जिस प्रकार समाचार चैनल चीख-चीख कर घटना को जनता पर थोपने की कोशिश करते हैं, उससे जनता अब आजिज़ आ चुकी है और संभव है कि इसी कारण समाज में सोशल मीडिया को व्यापक तवज्जो प्राप्त हो रही है। वैसे भी सरकार के समक्ष मीडिया पर अंकुश लगाए जाने का मुद्दा कई बार उठाया गया है और सरकार ने हर बार लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की ताकत को मान देकर स्व-नियमन की बात कही है किन्तु लगता है कि मीडिया स्व-नियंत्रित होना ही नहीं चाहता। क्या इस तरह की स्थिति पैदा होना मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए हितकर है कि जिस जनता के हितों की वे बात करते हैं, वह जनता ही उन्हें नकार दे। सच को सामने लाना मीडिया का दायित्व होता है पर उस सच की कीमत कौन चुकाएगा? मरणासन्न होते समाचार चैनलों को यह बात जितनी जल्दी हो समझ लेना चाहिए वरना यदि देर हो गई तो यह उनके अस्तित्व का संकट भी हो सकता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस वक़्त अंधेरी सुरंग से गुजर रही है और यह अंधेरा कितना गहराएगा, इस पर संशय है।
-सिद्धार्थ शंकर गौतम
आदरणीय वी. के. सिंह ने एक शानदार कार्य किया है. यदि उन्होंने मीडिया के लिए ऐसे शब्द का इस्तेमाल किया है जो नहीं किया जाता तो उसका स्पष्टीकरण भी दे दिया है. यह बात गौर करने लायक है की वे यदा कदा ,इस या उस कारण से विवादों के घेरे में होते हैं. शायद ये पाहिले ऐसे स्थल सेना ध्यक्ष हैं जो सेवा में और सेवा के बाद विवाद में रहें हैं किन्तु ईस कारण आपके द्वारा की सेवाएं कम नहीं आंकी जाती.