जनजातीय गौरव दिवस-कृतज्ञता ज्ञापन का महापर्व..!

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल 

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने विगत वर्ष १५ नवम्बर को भोपाल के जम्बूरी मैदान से —

जोहार मध्यप्रदेश! राम राम सेवा जोहार! मोर सगा जनजाति बहिन भाई ला स्वागत जोहार करता हूँ। हुं तमारो सुवागत करूं। तमुम् सम किकम छो? माल्थन आप सबान सी मिलिन,बड़ी खुशी हुई रयली ह। आप सबान थन, फिर सी राम राम । ; के सम्बोधन साथ भारत के विकास में जनजातीय समाज की समृध्द विरासत के स्मरण लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ का शुभारम्भ किया था। 

इसके पीछे भारत के इतिहास में जनजातीय समाज के नायक/ नायिकाओं के योगदान। स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनके अभूतपूर्व त्याग, बलिदान सहित राष्ट्र के विकास में जनजातीय समाज के सांस्कृतिक अवदान को रेखांकित करने का भाव समाया हुआ है।इसी कड़ी में पिछले वर्ष ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के शुभारम्भ के साथ ही इस वर्ष भारतीय राजनीति का एक और ऐतिहासिक अध्याय लिखा जा चुका है।जनजातीय समाज से आने वाली बेटी – महामहिम द्रौपदी मुर्म जी राष्ट्र के प्रथम नागरिक ‘ राष्ट्रपति’ के पद को सुशोभित कर रही हैं। यह उसी दूरदृष्टि एवं कृतज्ञता के साथ समानता – एकत्व का शंखनाद है, जो सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है ‌। 

 ध्यातव्य हो कि इसके पूर्व सन् १९९९ में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में ही जनजातीय समाज के उत्थान एवं कल्याण के लिए अलग से ‘जनजातीय मन्त्रालय ‘ का गठन किया गया था। वास्तव में ये कार्य बहुत पहले हो जाने चाहिए थे, लेकिन यह सब संभव नहीं हो पाए। हमारे संविधान में जनजातियों के विकास के लिए पर्याप्त प्रबंध तो संविधान निर्माताओं ने अवश्य किए । किन्तु तत्कालीन सत्ताधीशों ने जनजातीय समाज की दशा एवं दिशा सुधारने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखलाई । और उसका परिणाम यह हुआ कि – वनांचलों में निवास करने वाला जनजातीय समाज आज भी विकास की राहें ताकने के साथ साथ ‘ईसाई मिशनरियों’ के निशाने पर बना हुआ है। जहाँ सेवा- सहायता एवं लालच देकर उनके धर्मांतरण का खुला खेल जा रहा है‌ । हालांकि जनजातीय समाज के योध्दाओं ने पूर्व की भाँति ही वर्तमान में भी – धर्मांतरण के कुचक्रों को तोड़ने में जुट भी गया है। किन्तु यह एक गम्भीर समस्या है।

अब, जनजातीय गौरव दिवस — भारत के सांस्कृतिक स्वरुप को निर्मित करने में अभिन्न योगदान देने वाले सम्पूर्ण जनजातीय समाज की समृध्द विरासत, ऐतिहासिक योगदान , समरसता, समानता, एकता, समन्वय – साहचर्य के बहुआयामी रंगों – बहुलतावादी संस्कृति से सम्पूर्ण विश्व को एक विशिष्ट पहचान के साथ परिचित करवाने का राष्ट्रीय उत्सव बनेगा। और

यह महापर्व जन-जन के मन में जनजातियों के गौरवपूर्ण इतिहास, सांस्कृतिक विरासत , त्याग, बलिदान एवं प्रकृति के साथ एकात्मकता के मूल्यों से रुबरु करवाने में मील का पत्थर सिद्ध होने वाला होगा। 

भारत एवं भारतीयता के प्राणों में रचा- बसा हुआ जनजातीय समाज – हमारे सांस्कृतिक इतिहास का वह संवाहक है, जो सनातन काल से ही अरण्य को अपना आश्रय बनाकर वहां सृजन के गीत संगीत गाता चला आ रहा है। पद्मश्री से सम्मानित डॉ. कपिल तिवारी का मानना है कि — “वे प्रकृति के साथ इतने अभिन्न हैं कि उनका और प्रकृति का होना एक चीज है। इसीलिए उनकी धार्मिकता का आधार भी प्रकृति ने बनाया है। और उनकी कला का आधार धार्मिक है। और उनकी बौद्धिक संस्कृति का आधार भी मूल रूप से प्रकृति ही है। जो सम्पूर्ण जीवन का आधार है ‌। प्रकृति का अर्थ उनके लिए पूरा होना है — जिस जगत में वे निवास करते हैं। “

प्रकृति के मध्य प्रकृति की पूजा करने वाला जनजातीय वनवासी समाज विविध क्षेत्रों में अपनी भिन्न भिन्न पहचानों, विविधताओं, कला संगीत ,साहचर्य परम्पराओं के साथ प्रकृति के प्रति असंदिग्ध श्रध्दा एवं समर्पण के साथ सनातन काल से ही अग्रसर रहा आया है। प्रकृति के क्रीड़ाङ्गन में जीवन के सूत्रों को तलाशने वाला जनजातीय समाज भारतीय हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का वह अभिन्न अंग है , जिसके बिना सनातन हिन्दू संस्कृति की कल्पना नहीं की जा सकती है। जनजातीय वनवासी समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति — परम्पराएं , मान्यताएं , कला, वेशभूषा,रहन सहन, खान- पान, उपासना पद्धतियां, विवाह प्रणाली, नृत्य, गीत, गायन, वाद्ययंत्र अपने आप में अनूठी एवं अनुपमेय हैं। सम्पूर्ण भारत के वनांचलों के विविध स्थानों में निवासरत जनजातीय समाज ने सुखमय जीवन के वे सूत्र अपनी जीवन पध्दतियों से दिए हैं जिसमें वर्तमान कालखण्ड की पर्यावरणीय समस्याएं ; स्वत: समाप्त हो सकती हैं। जो प्राप्त है – वही पर्याप्त है की अवधारणा के साथ जनजातीय समाज प्रकृति के साथ अभिन्न, अद्वैत एवं एकात्म है। और प्रकृति की रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करने का अदम्य साहस उन्हें ‘प्रकृति का दूत’ बनाता है। भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विकास काल से लेकर वर्तमान काल खण्ड तक अरण्य संस्कृति के उपासक जनजातीय वनवासी समाज ने हमारे समक्ष आदर्श जीवन के दिशासूत्र सौंपे हैं।

भगवान श्री राम के वनगमन के समय जिस आत्मीयता श्रध्दा एवं भक्ति के भाव के साथ जनजातीय वनवासी समाज ने उन्हें अपना माना वह कालखण्ड ‘सांस्कृतिक शिखर’ की महागाथा गा रहा है। भीलनी माता शबरी, निषाद राज गुह, नौका पार लगाने वाला केवट,। कोल – किरात सहित अरण्य में निवासरत अन्यान्य बन्धुजनों ने श्री राम लक्ष्मण व माता जानकी के साथ कुछ यूं घुल मिल गए कि सबकुछ राममय हो गया। वहीं महाभारत के कालखंड में कौरवों एवं पाण्डवों की सेनाओं में शामिल योद्धा महारथी भी थे। भारतीय समाज को अलग- अलग ढंग से परिभाषित करने व श्रेष्ठ एवं हेय के रूप में दिखलाने का चलन तो आक्रमण काल एवं अंग्रेजी विभाजन के समय से प्रारम्भ हुआ है। महाभारत काल में भी वर्तमान में जनजातीय वनवासी समाज के सम्बोधन से प्रयुक्त किए जाने वाले रणबांकुरे विभिन्न राज्यों के राजा या उच्च पदों पर आसीन थे। अभिप्राय यह कि – भारतीय संस्कृति के कालखंड में विभिन्न जातियां अपनी वर्ण परम्परा के साथ ही महत्वपूर्ण होती थीं। जो ‘भिन्नता के साथ अभिन्न’ होती थीं।

आधुनिक सन्दर्भ में यानि कि सातवीं सदी से भारत में हुए विभिन्न आक्रमणों जिसमें शक, हूण, मंगोल, तुर्क , मुगलों की इस्लामिक तलवारें भारत को रक्तरंजित कर रही थीं। इन क्रूर बर्बर आतंकी लुटेरों का प्रतिकार करने में चाणक्य शिष्य प्रतापी राजा चन्द्रगुप्त मौर्य , शिवाजी के मावला सैनिक, राणा प्रताप के साथ – भील सरदार राणा पूंजा, रानी दुर्गावती, रानी कमलापति सहित अनेकानेक नाम स्मृतियों में आ जाते हैं। 

इतना ही नहीं वर्तमान में जनजातीय वनवासी समाज कहे जाने वाले समाज के पूर्वज भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों में राज करते थे। वे वहां के शासक थे। और उन्होंने इस्लामिक एवं अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध तब तक लड़ाई लड़ी जब तक कि उनके शरीर में प्राण रहे। किन्तु राष्ट्र की अस्मिता को अपने जीते जी खोने नहीं दिया। वहीं अंग्रेजी शासन एवं ईसाईयत के विरुद्ध भी आर पार की लड़ाई में जनजातीय नायक / नायिकाओं के नाम अव्वल हैं । उन्होंने अपनी स्वातंत्र्य चेतना , प्रकृति की उपासना तथा भारतीयता के मूल्यों से अनुप्राणित अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए सदैव आगे रहे। उन्होंने अंग्रेज सरकार के संरक्षण में ईसाई मिशनरियों के द्वारा चलाए जाने वाले ‘ धर्मांतरण ‘ के कुचक्र – षड्यंत्र के विरुद्ध भी लड़ाई लड़ी । लोभ ,छल , भय या दण्ड से डराकर उन्हें मिशनरियों ने धर्मांतरित करवाया लेकिन सत्य का भान होते ही, वे पुनः अपने मूल की ओर लौट आए।और अपने ‘ मूल ‘ को पुनर्स्थापित किया।

धर्मरक्षक भगवान बिरसा मुंडा का समूचा जीवन चरित्र उसी संघर्ष , त्याग, बलिदान से भरा हुआ है । जनजातीय- वनवासी समाज ने अपने स्वत्व, स्वाभिमान एवं सनातनी हिन्दू जीवन मूल्यों के आलोक में सदा से ही अपनी रौशनी देखी है। और फिर धर्मांतरण के – अस्थि- पंजर, षड्यंत्रकारी मुखौटों को नोचकर दूर फेंक दिया। जनजातीय गौरव दिवस जनजातीय वनवासी समाज के असंख्य – ज्ञात अज्ञात वीर पूर्वजों – वीरांगना माताओं के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की कृतज्ञता के ज्ञापन का महापर्व है। जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किए बगैर राष्ट्र व समाज के लिए समय समय पर इस्लामिक एवं ईसाईयत के अंग्रेजी आक्रान्ताओ के विरुद्ध मोर्चा खोला। और स्वातंत्र्य समर में अपने रक्त से त्याग एवं बलिदान की गाथा लिखी।  

स्वातन्त्र्य यज्ञ में कुछ वीर / वीरांगनाओं के नाम जो सहज ही स्मृतियों में आते हैं उनमें — टंट्या मामा, लचित बोरफूकन अहोम, सिध्दू ,कान्हू, जात्रा उरांव, बोरोबेरा के बंगम मांझी, तिलका मांझी खाज्या नायक, भीमा नायक, ,भाऊसिंह राजनेगी, शहीद वीर नारायण सिंह, श्री अल्लूरी सीता राम राजू ,रानी गौंडिल्यू, रानी दुर्गावती, रानी अवंती बाई , झलकारी बाई, कालीबाई, फूलो और झानो, राजा शंकर शाह व रघुनाथ शाह , सोना खान, चकरा विशोई, राघो जी ,गोंड वीर कुमरा भीमू,जोरिया भगत , रूपा नायक दास,पझसी राजा, क्रांतिवीर-तीरथ सिंह, शंभुधन फूंगलो कृष्णम् बन्धु, भागो जो नाईक, गोंड रानी तिलकावती, वीर नारायण, लक्ष्मण नायक सहित तत्कालीन ब्रिटिश शासन के समय मध्यप्रांत एवं बरार व खोनोमा युद्ध के बलिदानियों की एक लम्बी सूची रोम रोम में ऊर्जा का संचार करती है। शहीद सुरेन्द्र साय का संघर्ष व सन् १८४२ में बुंदेला क्रांति में जनजातीय योद्धाओं के विशाल समूह ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। और वीरगति को प्राप्त हुए थे। साथ ही जबलपुर के क्षेत्र में गंगाधर गोंड सहित बाला साहेब देश पाण्डे ,राजा अर्जुन सिंह गोंड व रिपुदमन सिंह सहित अनेक रणबांकुरों ने स्वातंत्र्य यज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देकर स्वतन्त्रता की अलख जगाई थी।

जनजातीय समाज ने भारत की लोकसंस्कृति लोक परम्परा को पीढ़ी दर पीढ़ी अनेकानेक अभावों,दु:खों को सहकर भी बचाए रखा। जो प्राप्त है वही पर्याप्त है की अवधारणा को उन्होंने जीवन का मन्त्र बनाया। और समृद्ध संस्कृति की थाती हमें सौंप दी है। अनेकानेक विविधताओं से परिपूर्ण जनजातीय समाज ने — भारत के सांस्कृतिक स्वरुप को वैभवशाली बनाने में अतुलनीय योगदान दिया है। कला, साहित्य, संगीत,नाटक , नृत्य ,गीत, गायन, वाद्ययंत्र, रहन सहन, वस्त्राभूषण, प्रकृति पूजा, धार्मिक आचरण, कलाकृतियां, शिल्पविधान, आश्रय स्थल, स्थापत्यकला, जैसी बहुलतावादी – बहुरंगी विशिष्टताओं से राष्ट्र के सांस्कृतिक प्रतिमान गढ़े हैं। आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य हो चुका है कि ‘ जनजातीय गौरव दिवस’ के महापर्व में रंगकर राष्ट्र भारत की आबादी के ८.६ प्रतिशत हिस्से के जनजातीय समाज को उसकी अपनी मौलिक संस्कृति के साथ- साथ गतिमान बनाए रखने के लिए कृत संकल्पित हो। और उनके सामाजिक आर्थिक – राजनैतिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए पर्याप्त प्रबंध किए जाएं। ताकि भारतीय संस्कृति के उन संवाहकों के जीवन में खुशहाली आ! सके जो निश्छल भाव से – प्रकृति के साथ अद्वैत – एकात्म होकर राष्ट्र की समृद्धि के लिए अपने जीवन को आहुत करते चले आ रहे हैं..!

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

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