जल-तंत्र के गिद्ध कहलाते हैं कछुए

हर साल 23 मई को विश्व कूर्म (कछुआ) दिवस (वर्ल्ड टर्टल-डे) के रूप में मनाया जाता है। वास्तव में इस दिवस को मनाने के पीछे जो कारण है वह है- कछुओं और दुनिया भर में उनके तेजी से गायब होते आवासों की रक्षा करना । यदि हम दूसरे शब्दों में कहें तो पूरी दुनिया मे कछुओं और उनके लगातार लुप्त हो रहे आवासों की रक्षा के लिए आम लोगों में जागरूकता बढ़ाने के लिए यह दिन मनाया जाता है। आज भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में कछुओं की संख्या में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है। इसलिए इसके संरक्षण की आज बहुत आवश्यकता है। भारतीय हिंदू धर्म, संस्कृति में कछुए को बहुत ही महत्वपूर्ण व अहम् स्थान प्राप्त है। फेंगशुई, वास्तु में इसका बड़ा महत्व है, लोग कछुए की प्रतिमूर्ति अपने घरों में रखते हैं, इसे बहुत ही शुभ माना जाता है। जानकारी मिलती है कि कछुए लगभग 220 करोड़ वर्षों से वैश्विक पारिस्थितिक तंत्र के अभिन्न हिस्सा रहे हैं और कम से कम 400,000 वर्षों से मानव संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय संस्कृति में कछुओं के महत्व का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इसे भगवान विष्णु के एक अवतार की मान्यता मिली हुई है। जानकारी देना चाहूंगा कि यह दिन वर्ष 2000 से ‘अमेरिकी टोर्टोइस रेस्क्यू’ द्वारा मनाया जा रहा है। यहाँ यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि ‘अमेरिकी टोर्टोइस रेस्क्यू’ वर्ष 1990 में कछुए की सभी प्रजातियों की सुरक्षा के लिए स्थापित एक गैर-लाभकारी संगठन(नॉन प्रोफिट ऑर्गेनाइजेशन) है। कछुए पृथ्वी के पारिस्थितिक डिजाइन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये सरीसृप दुनिया भर में विविध आवासों की एक श्रृंखला में जीवित रहने और पनपने के लिए जाने जाते हैं। यहाँ पाठकों को यह भी बता दूं कि वर्ष 2021 में विश्व कछुआ दिवस का विषय “टर्टलस रॉक” रखा गया था। वर्ष 2022 में विश्व कछुआ दिवस की थीम “शेलब्रेट” रखी गई थी, और विषय “सभी को कछुओं से प्यार करने और बचाने के लिए” रखा गया था। पिछले वर्ष यानी कि वर्ष 2022 में 22 वां विश्व कछुआ दिवस मनाया गया था और इस वर्ष 23 वां विश्व कछुआ दिवस मनाया जाएगा। वैसे पाठकों को बताना चाहूंगा कि विश्व कछुआ दिवस वर्ष 2000 में कैलिफोर्निया के मालिबू में स्थित एक गैर-लाभकारी संगठन अमेरिकी कछुआ बचाव (ए.टी.आर.) द्वारा शुरू किया गया था। अमेरिकी कछुआ बचाव(ए.टी.आर.) और विश्व कछुआ दिवस की स्थापना एक कपल सुसान टेललेम और मार्शल थॉम्पसन द्वारा की गई थी । वास्तव में, विश्व कछुआ दिवस दुनिया के सबसे पुराने जीवों में से एक, कछुए के प्रति सम्मान और ज्ञान बढ़ाने के लिए बनाया गया था। हम सभी यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि कछुआ इस पृथ्वी पर लगभग डेढ़ सौ से दौ सौ बरस तक पृथ्वी पर सबसे अधिक दिनों तक जीवित रहने वाला बहुत ही पुराना व धीमी गति से चलने वाला जीव(ठंडे खून वाला प्राणी) माना जाता है। यदि हम वन्य जीव विशेषज्ञों की माने तो कछुओं की प्रजाति विश्व में सबसे पुरानी प्रजाति है और यह 200 मिलियन साल पुराना जीव है। दूसरे शब्दों में कहें तो कछुए इस धरती पर 20 करोड़ साल यानि डायनासोर काल से मौजूद हैं। कछुए का वैज्ञानिक नाम टेस्टुडाइन है। हमारे देश में मीठे पानी के कछुओं और अन्य प्रकार के कछुओं की 29 प्रजातियांँ पाई जाती हैं। जानकारी मिलती है कि सांप, चिड़िया और छिपकली के पहले से ही कछुआ इस धरती पर अस्तित्व में आ चुका था। वास्तव में, कछुआ के पास एक ऐसा सुरक्षा कवच होता है जिसकी वजह से वह खुद को सुरक्षा प्रदान करते हैं और लंबे समय तक जीवित रहते हैं। जानकारी मिलती है कि सबसे अधिक वर्षों तक जीवित रहने वाला कछुआ हनाको कछुआ था, यह लगभग 226 वर्षों तक जीवित रहा था, और इसकी मृत्यु 1977 में हुई थी। हेरिएट नाम का एक कछुआ था, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह मूल रूप से 1835 में चार्ल्स डार्विन द्वारा खोजा गया था और बाद में ऑस्ट्रेलिया के चिड़ियाघर में लाया गया था और इसकी मृत्यु 2006 में हुई और उस समय उसकी उम्र 175 साल थी। कछुआ अंतरिक्ष में जाने वाले पहले जीवित प्राणियों में से भी एक है। जानकारी देता चलूं कि सन 1968 में, सोवियत संघ ने दो कछुओं सहित कई जानवरों के साथ एक अंतरिक्ष यात्रा शुरू की थी।कछुए के खोल (शेल) में 60 हड्डियाँ होती हैं जो एक दूसरे से जुड़ी होती हैं। रोचक तथ्य यह है कि कछुए अपने खोल से बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि यह उनके शरीर से जुड़ा हुआ होता है और शरीर के साथ ही बढ़ता है। ये एक लंबे समय तक अपनी सांस रोक सकते हैं। यही कारण है की वे अपने शेल(खोल) के अंदर इतने लंबे समय तक रह लेते हैं। जब भी उन्हें खतरा महसूस होता है तो वे अपने खोल के अंदर छिप जाते हैं, लेकिन इससे पहले वे एक लम्बी साँस छोड़ते हैं जिसकी आवाज सुनी जा सकती है।अंटार्कटिका को छोड़कर ये लगभग उन सभी महाद्वीपों पर रहते हैं जिनका तापमान इनके प्रजनन के लिए पर्याप्त गर्म हो। कछुए की दौड़ने की अधिकतम रफ़्तार 1.6 किलोमीटर प्रति घंटा तक होती है। यह भी जानकारी मिलती है कि कुछ कछुए मांसाहारी होते हैं, तो कुछ शाकाहारी और कुछ सर्वाहारी भी होते हैं जो की मांस और पौधे कुछ भी खा सकते हैं। कछुए झींगुर, फल और घास का भोजन करते हैं, जबकि समुद्र में रहने वाले कछुए शैवाल, स्क्वीड और जेलिफ़िश आदि खाते हैं। ये छोटे-छोटे कीड़े, मछली, मेढक, घोंघें आदि के अलावा घास, फल, फूल, पत्ते, बीज आदि भी खाते हैं।गैलापागोस प्रजाति का कछुआ पक्षियों का शिकार भी करता है। कछुओं की देखने और सुनने की क्षमता बहुत अधिक होती है।आसपास की गंध को सूंघने के लिए ये अपने गले का उपयोग करते हैं। सर्दी के दिनों में कछुए शीतनिद्रा में चले जाते हैं और कई महीनो तक बिना कुछ खाए एक ही स्थिति में पड़े रहते हैं। यहाँ यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि कछुए अपने खोल के ऊपर होने वाले स्पर्श को महसूस कर सकते हैं। ये अपने मुंह के ऊपरी हिस्से से साँस अंदर खीचते हैं और गंध का पता लगाते हैं।कछुए के शरीर के वजन का 40% भाग पानी होता है, दरअसल रेगिस्तानी कछुए बरसात के दिनों या अलग-अलग जल स्त्रोतों से भारी मात्रा में पानी पी कर स्टोर कर लेते हैं ताकि सूखे के दिनों में यह काम आ सके। इनके कवच के रंग से पता लगाया जा सकता है की ये जिस इलाके में रहते हैं वहां का तापमान क्या है। हल्के रंग के शेल से पता चलता है की गर्म स्थान में रहते हैं। जबकि गहरे रंग से पता लगता है की वह कछुआ किसी ठंडे इलाके में रहता है। कछुओं के बारे में रोचक तथ्य यह है कि अगर कछुओं के दिमाग को इनके शरीर से अलग कर दिया जाए तो भी ये करीब छह महीनों तक जीवित रह सकते हैं। इनके दांत नहीं होते, बल्कि इनके मुंह में एक प्लेट जैसी हड्डी होती है, जिससे यह चबाने का काम करते हैं। वास्तव में इनका मुंह बहुत ही मजबूत होता है।  मादा कछुआ एक बार में तीस अंडे देती है। अंडे देने के लिए वे मिट्टी खोदकर स्थान बनाते हैं। अंडे से बच्चे निकलने में 90 से 150 दिनों का समय लगता हैं। मादा कछुओं का शरीर आमतौर पर नर की तुलना में बड़ा होता है। एक नर कछुए की तुलना में मादा की पूँछ लंबी होती है, जिसके द्वारा वे प्रजनन करते हैं। आमतौर पर कछुए हमेशा शांत रहते हैं लेकिन प्रजनन के दौरान ये फुफकारने की आवाज़ निकालते हैं। रोचक तथ्य यह है कि प्राचीन काल में रोमन सैनिक कछुओं के कवच से प्रभावित थे और लड़ाई के दौरान ये ढाल का उपयोग कर अपने सैनिकों को सामने और ऊपर से ढक लेते थे।कुछ उष्णकटिबंधीय द्वीपों में विशालकाय कछुए भी पाए जाते हैं जिन्हें जायंट टोर- ट्वाइज कहा जाता है। इनकी ऊंचाई 6 फीट और चौड़ाई 4 से 5 फीट तक हो सकती है। यही नहीं इनका वजन 400 किलो से भी अधिक हो सकता है। कछुआ अपना प्रत्येक काम बहुत धीरे धीरे करता है। आज के समय में, विभिन्न पक्षियों, विभिन्न स्तनधारियों और अनेक प्रकार की मछलियों की तुलना में कछुओं को कशेरुकियों के प्रमुख समूहों के लिए सबसे अधिक खतरा है। भारत में प्रमुखता पांच प्रकार की कछुआ प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें क्रमशः ओलिव रिडले(लेपिडोचेली ओलिवेसिया), हरे कछुए (चेलोनिया मायदास), हॉक्सबिल कछुए (एरेत्मोचेलीज इम्ब्रिकाटा), लॉगरहेड कछुए (कैरेटा कैरेटा) तथा लेदरबैक कछुए (डर्मोचेलिस कोरियासिया)। यहाँ यह भी बताता चलूं कि कछुओं को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची । के तहत कानूनी रूप से संरक्षित किया गया है। आज बढ़ती जनसंख्या के बीच बढ़ती मानवीय गतिविधियों के फलस्वरूप कई समुद्री जन्तुओं का अस्तित्व खतरे में आ गया है, जिसमें समुद्री कछुआ एक प्रमुख संकटग्रस्त प्रजाति है। समुद्री जीवों के संरक्षण के लिए भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा समुद्री मेगा जीव श्रंखला के दिशा-निर्देश और राष्ट्रीय समुद्री कछुआ कार्ययोजना का दस्तावेज जारी किया गया है। बहुत ही चिंतनीय है कि आज कछुए की कई प्रजातियां लुप्तप्राय हो चुकी हैं। आंकड़ों के अनुसार आज पृथ्वी पर  कछुओं की लगभग 300 प्रजातियों में से 129 असुरक्षित या लुप्तप्राय हो चुके हैं।पूरी दुनिया में 225 किस्म के कछुए पाए जाते हैं। सबसे बड़ा समुद्री कछुआ सामान्य चर्मकश्यप होता है। समुद्री कछुआ लगभग आठ फुट लंबा और 30 मन तक भारी हो सकता है।भारत में भी कछुओं की लगभग 55 प्रजातियां पायी जाती हैं। इनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार प्रमुख हैं।भारत में कछुओं के सामने सबसे बड़ा खतरा तस्करी का है। जानकारी मिलती है कि हर साल बड़ी संख्या में पूर्वी एशियाई और दक्षिण पूर्व एशियाई बाजारों में कछुओं को तस्करी कर लाया जाता है और इन देशों में इनकी तस्करी की जाती है। दरअसल,इनकी तस्करी की सबसे प्रमुख वजह पड़ोसी देश नेपाल के कुछ हिस्सों और चीन में व्याप्त अंधविश्वास ही है। जादू-टोने के लिए इन दोनों ही देशों में कछुओं की काफी अधिक मांग होने की इसकी वजह से इनकी बड़े पैमाने पर तस्करी होती है। यह बहुत ही गंभीर व संवेदनशील है कि कछुओं को पश्चिम बंगाल ले जाकर वहां से अवैध तरीके से बांग्लादेश पहुंचाया जाता है। इसके बाद ये कछुए चीन, हांगकांग, मलेशिया, थाईलैंड आदि देशों में सप्लाई किए जाते हैं। इन देशों में कछुए का मांस, सूप और चिप्स आदि को काफी अधिक पसंद किया जाता है। साथ ही इसके कवच से यौनवर्धक दवाएं और ड्रग्स बनाई जाती है। आज के समय में कछुओं के खोल से तरह-तरह का सजावटी सामान, आभूषण, चश्मों के फ्रेम आदि तक भी बनाए जा रहे हैं। इंडियन स्टार टॉर्ट्स को तस्करी कर भारत से अमेरिका के फ्लोरिडा या नेवादा या यूके के हैंपशायर तक भेजा जाता है।आज कछुओं पर आवास अतिक्रमण और प्रदूषण का खतरा लगातार मंडरा रहा है। दुनिया भर में समुद्री कछुओं के लिए पांच प्रमुख खतरों की पहचान की गई है जिनमें क्रमशः मछली पकड़ना, तटीय विकास, प्रदूषण और रोगजनक, सीधे लेना और जलवायु परिवर्तन प्रमुख हैं। कहते हैं कि कछुओं का मांस बहुत ही स्वादिष्ट होता है। टॉरट्वाइज इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले चीन में कछुओं की खोल (कवच) से जेली बनाने के लिए प्रति वर्ष 73 हजार कछुए मारे जाते हैं। इस मांग को पूरा करने के लिए चीन कई देशों से कानूनी या गैरकानूनी तरीके से कछुए मंगाता है। इसके अलावा चीन के लोग कई तरह के पूचा-पाठ और भविष्यवाणी के लिए लंबे अरसे से कछुओं की खाल का इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ खास जनजातियां कछुओं को खाने में भी इस्तेमाल करती हैं, यही कारण भी है कि कछुओं की संख्या में लगातार कमी आती चली जा रही है। चीन में कछुओं के शरीर के कई हिस्सों का खास तरह की दवा बनाने में भी इस्तेमाल किया जाता है। जिसकी वजह से चीन और नेपाल में कछुओं की काफी मांग रहती है। तस्करों का गिरोह पश्चिम बंगाल के रास्ते इन्हें नेपाल और चीन भेजता है। एक अध्ययन के मुताबिक, साल 2050 तक 50 फीसदी लेदरबैक, 18 फीसदी हॉक्सबिल और 13 फीसदी हरे कछुए के घोंसले पानी की चपेट में आ सकते हैं। वास्तव में, समुद्र के बढ़ते स्तर से कछुओं के घोंसलों के जलमग्न होने का खतरा बढ़ा है। यह बहुत ही गंभीर है कि आज तस्कर इंटरनेट के जरिए कछुओं की तस्करी को अंजाम देते हैं और कोड वर्ड में कछुओं की खरीद फरोख्त करते हैं। कछुआ घर में सुख शांति, वास्तु व धर्म से जुड़ा हुआ है।आज धन, सुख-शांति, वास्तु से लेकर यौनवर्धक दवाओं के लिए कछुओं का प्रयोग किया जाता है। आज के समय में भारत समेत दुनिया के कई देशों में लोग अपने घरों, दुकानों, प्रतिष्ठानों की खूबसूरती बढ़ाने और वास्तु दोष दूर करने के लिए असली कछुओं को पालने लगे हैं। बहुत से लोगों का मानना है कि घर में कछुआ रखने से धन यानि लक्ष्मी आती है। इस तरह की भ्रांतियां इन संरक्षितों जीवों की जान पर खतरा साबित हो रही हैं। यहाँ हमें यह बात अपने जेहन में रखनी चाहिए कि वन्यजीव व पक्षियों को पालना, नुकसान पहुंचाना और मारना वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम के तहत अपराध की श्रेणी में आता है। विदेशों में कछुओं की कीमत बहुत ही ज्यादा है, पूर्वोत्तर भारत समेत कुछ राज्यों में कछुए का मांस खाने का भी चलन है, जो कि प्रतिबंधित है। लिहाजा गैरकानूनी तरीके से मांस के लिए भी इनकी खूब बिक्री(खरीद फरोख्त) होती है। भारत समेत एशिया के लगभग सभी देशों में कछुए का मांस खाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि कछुए का मांस बहुत गुणकारी होता है। हालांकि, इसका भी कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह बहुत ही गंभीर है कि आज समुद्री कछुए के अंडों को खोजा जाता है और दक्षिण एशियाई देशों में व्यंजनों के रूप बेचा जाता है। मालूम हो कि समुद्री कछुए 10 करोड़ वर्षों से भी अधिक समय से पृथ्वी पर हैं। जानकारी मिलती है कि पश्चिम बंगाल राज्य कछुओं की तस्करी के केंद्र बिंदु के रूप में उभरा है। सरकार के प्रयासों के बावजूद, भारत में कछुए की तस्करी एक आकर्षक व्यवसाय के रूप में बनी हुई है। आज गंगा और देश की अन्य प्रमुख नदियों में पाए जाने वाले कछुए आवास विनाश का सामना कर रहे हैं क्योंकि ये नदियाँ तेजी से प्रदूषित हो रही हैं। आज समुद्री कछुए भी समुद्र और समुद्र तटों के प्रदूषण से पीड़ित हैं। प्लास्टिक खाकर हर साल कई कछुए मर रहे हैं। हालांकि ऐसे तमाम कछुए जो ‘अति संकटग्रस्त’, ‘संकटग्रस्त’, ‘संवेदनशील’ या ‘संकट के नजदीक’ श्रेणी में हैं उन्हें पहले ही भारत के वन्य जीव संरक्षण कानून, 1972 के तहत संरक्षित किया गया है, लेकिन बावजूद इसके कछुओं के संरक्षण पर और अधिक ध्यान दिए जाने की जरूरत है।दुनिया के सभी तटीय क्षेत्रों में नौवहन, ट्रोलिंग और मछली पकड़ने के अन्य संचालनों से समुद्री कछुओं और उनके अंडे विनष्ट होने के कारण यह अपने कई प्राकृतिक निवासों से लुप्त हो गए हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। कछुआ संरक्षण के लिए बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार दिया जाता है। इसे कछुआ संरक्षण के “नोबेल पुरस्कार” के रूप में भी जाना जाता है। जानकारी देना चाहूंगा कि वर्ष 2006 में स्थापित यह पुरस्कार कछुओं के संरक्षण एवं जैविकी तथा चेलोनियन कंज़र्वेशन एंड बायोलॉजी कम्युनिटी में नेतृत्व क्षमता को सम्मानित करने हेतु दिया जाने वाला एक प्रमुख वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार है। यहाँ यह भी जानकारी दे दूं कि समुद्री कछुओं की दुर्दशा के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल 16 जून को विश्व समुद्री कछुआ दिवस मनाया जाता है। बहरहाल, कार्बन फुटप्रिंट करके हम कछुओं के संरक्षण में योगदान दे सकते हैं। एक अनुमान के मुताबिक हर साल 10 करोड़ से ज्यादा समुद्री जानवर प्लास्टिक खाने या इसमें फंसने के कारण मर जाते हैं। इसलिए प्लास्टिक को कम से कम इस्तेमाल करने पर जोर दिए जाने की जरूरत है। कछुओं को जीवित रहने की संभावना बढ़ाने के लिए हमें स्वच्छ और स्पष्ट समुद्र तटों (और महासागरों) की आवश्यकता है। यहाँ यह भी जानकारी देना चाहूंगा कि सरयू कछुओं को संरक्षण देने वाली पहली नदी है। हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि कछुओं के संरक्षण से नदियां साफ रखी जा सकती हैं। यह हमारी पारिस्थितिकीय का अटूट भाग है। वास्तव में, नदियों के प्रवाह को निर्मल अविरल रखने के लिए उसकी जैव विविधता का महत्वपूर्ण स्थान होता है और गंगा की जैव विविधता को संरक्षित रखने के लिए जलीय जीवों, जिनमें कछुआ भी शामिल है, का संरक्षण एवं संवर्द्धन बहुत ही आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कहें तो, कछुएं जलीय परितन्त्र को साफ रखने में बहुत ही महत्वपूर्ण व अहम् भूमिका निभाते हैं। ये पानी की सड़ी वनस्पति खाते हैं, जिससे जल प्रदूषण दूर होता है।कछुए यह मृत जीवों को खाकर प्रदूषण खत्म करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इन्हें जल तंत्र का गिद्घ भी कहा जाता है।कछुआ व अन्य जीव-जन्तु इस संसार की खाद्य श्रृंखला और पारिस्थितिकीय तन्त्र(इको सिस्टम) के संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनका संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है। बहरहाल, यहाँ यह भी गौरतलब है कि कुछ समय पहले तमिलनाडु राज्य ने कछुओं के संरक्षण में कीर्तिमान स्थापित किया था। बताता चलूं कि 14 नवंबर से 25 नवंबर 2022 तक पनामा सिटी में आयोजित की गई कॉप-19 की बैठक के दौरान भारत ने देश में जमीन और ताजे पानी में रहने वाले कछुओं के संरक्षण के बारे में अपनी प्रतिबद्धता दोहरायी थी। हालांकि भारत मेंवन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 एवं जैव विविधता अधिनियम 2002 ,जैसे कानून भी हैं जो समग्र रूप से जैव विविधता का संरक्षण करते हैं, फिर भी हमें भी जागरूक रहने की जरूरत है।आज कछुओं के विभिन्न प्रजनन केंद्रों को सुरक्षित व संरक्षित करने की जरूरत है,उन पर पर्याप्त ध्यान देने की जरूरत है। कछुओं को बचाने के लिए हमें ऐसे समुद्री भोजन चुनने की आवश्यकता है जो कि कछुओं को नुकसान न पहुंचाएं। हम कछुओं को मारें नहीं, बीमार और घायल कछुओं का समय पर पशु/जीव चिकित्सा विशेषज्ञों से इलाज करवाएं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि कछुए एक पारिस्थितिकी तंत्र के कैल्शियम चक्र के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे जीवन में खनिज की उच्च मात्रा जमा करते हैं। बहरहाल, जानकारी देता चलूं कि हाल ही में हनुमानगढ़ जिले के संगरिया के नजदीक हरियाणा के चौटाला गांव की एक ऐतिहासिक ढ़ाब में जारी कार्य के दौरान 150 किलोग्राम वजनी पतल प्रजाति का कछुआ मिला था, जिसे गांव की एक सुरक्षित बड़ी डिग्गी में छोड़ा गया है, यह कछुआ संरक्षण की दिशा में एक अच्छी पहल कही जा सकती है। राजस्थान की चंबल नदी में कछुओं का कुनबा देखा जा सकता है, जहाँ सैलानियों को दुर्लभ प्रजातियां देखने को मिलती हैं। अंत में यही कहूंगा कि, आज पूरे विश्व में कछुओं की तादात धीरे–धीरे लगातार कम होती चली जा रही हैं, तथा इनकी अनेक प्रजातियां आज विलुप्त होने की कगार पर हैं। यदि इनके प्रति लोगों में जागरूकता नहीं लायी गयी तो कई दुर्लभ व सुंदर प्रजातियां पूरी तरह से ख़त्म हो सकती हैं। तो आइए हम धरती के इस जीव को बचाने के लिए अपने कदम बढ़ाएं व धरती के पर्यावरण व पारिस्थितिकीय को अच्छा,सुंदर, बेहतरीन बनाए रखने में अपना योगदान दें।

(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।)

सुनील कुमार महला

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here