सम्बद्धता से प्रभावित प्रादेशिक विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता
भारतीय विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सुधार, विस्तार तथा भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1948 में डा. एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शैक्षिक आयोग (यूनिवर्सिटी एज्यूकेशन कमीशन) का गठन किया गया था। इस आयोग की अनुशंसा के आधार पर नवम्बर 1956 में ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग‘ की स्थापना की गई। वर्तमान में यू.जी.सी के छह रीजनल केन्द्र – पुणे, हैदराबाद, कोलकाता, भोपाल, गुवाहटी तथा बैंगलोर में कार्य कर रहे हैं, तथा इसका मुख्यालय नई दिल्ली में बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित है।
यू.जी.सी के दो प्रमुख कार्य हैं – उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान देना तथा उच्च शिक्षा में एकरूपता रखना। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 के अनुसार- ‘‘आयोग का सामान्य कर्तव्य, सम्बद्व विश्वविद्यालयों या अन्य निकायों के परामर्श से ऐसी सभी कार्यवाहियां करना होगा, जो विश्वविद्यालय शिक्षा की अभिवृद्धि और उसमें एकसूत्रता लाने के लिए और विश्वविद्यालय में अध्यापन, परीक्षा और अनुसंधान के स्तरमानों का निर्धारण करके और उन्हें बनाये रखने के लिए वह ठीक समझे‘‘।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सम विश्वविद्यालय (डीम्ड यूनिवर्सिटी) एवं निजी विश्वविद्यालय का स्वरूप लगभग एक सा ही है क्योंकि इनके ऊपर महाविद्यालयों की सम्बद्धता का भार नहीं रहता है। वर्तमान समय में प्रादेशिक विश्वविद्यालयों का प्रमुख कार्य सम्बद्ध महाविद्यालयों का निरीक्षण, शिक्षकों की नियुक्तियां, प्रमोशन, परीक्षा, उड़नदस्ता, परीक्षा परिणाम सहित सभी गतिविधियों का संचालन करना है।
एक प्रादेशिक विश्वविद्यालय ‘जीवाजी विश्वविद्यालय‘ को ही लें – अध्ययनशालाओं में 88 पाठ्यक्रम, 400 से अधिक सम्बद्ध महाविद्यालय एवं 72 शिक्षक। यह स्थिति केवल एक-दो जगह हों, ऐसा नहीं है। प्रदेश सहित देश में ऐसे कई विश्वविद्यालय देखने को मिल जायेंगे, जिनकी गुणवत्ता सम्बद्वता के भार के कारण प्रभावित हो रही है तथा अत्यधिक दबाव के कारण शिक्षकों की मनःस्थिति सामान्य नहीं रह पा रही है।
काफी प्रयासों के बावजूद भी यूजीसी उच्च शिक्षा में एकरूपता रखने में सफल नहीं हो सका है। कुलपति के कार्यकाल को ही लें, कहीं पर 5 वर्ष तो कहीं 4 एवं कई जगहों पर यह 3 वर्ष है। शिक्षकों के रिटायरमेन्ट की आयु 65 वर्ष, 62 वर्ष एवं कहीं पर यह 60 वर्ष है। कई प्रदेशों में विश्वविद्यालय के शिक्षकों को राजनीति में सहभागिता के अवसर हैं तो अन्य दूसरी जगहों पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं है। कुलपति की नियुक्ति के लिए यू.जी.सी द्वारा निर्धारित मानदण्डों का पालन भी सभी जगह नहीं किया जा रहा है जबकि कुलपति की नियुक्ति करने वाली समिति में एक प्रतिनिधि यू.जी.सी का भी रहता है। यूजीसी विनियम के अनुसार ‘‘सर्वोच्च दक्षता, सत्यनिष्ठा, नैतिकता एवं संस्थागत प्रतिबद्वता के सर्वोच्च व्यक्तियों को ही कुलपति के रूप में नियुक्त किया जायेगा‘‘। यदि कोई व्यक्ति यह जानते हुए भी कि यूजीसी द्वारा कुलपति के लिए निर्धारित योग्यतायें वह पूरी नहीं कर रहा है, इसके बावजूद भी यदि वह कुलपति पद के लिए अपना आवेदन प्रस्तुत कर रहा है तो ऐेसे व्यक्तियों से हमें कितनी सत्यनिष्ठा एवं नैतिकता की अपेक्षा करनी चाहिए, इसकी अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
उच्च शिक्षा में तीन प्रमुख कार्य करने होते हैं – शिक्षण, शोध तथा अकादमिक प्रशासन। किसी भी शिक्षक का समान रूप से इन तीनों पर अधिकार होना आसान कार्य नहीं है। किसी की शिक्षण में अधिक रूचि होगी तो किसी की शोध में तथा किसी में अकादमिक प्रशासनिक दायित्वों को अच्छी तरह निभाने की क्षमता होगी। ए0पी0आई0 (अकादमिक कार्य निष्पादन सूचक) व्यवस्था के माध्यम से सभी को एक जैसा बनाने का प्रयास किया जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि शिक्षक अपनी अभिरूचि वाला क्षेत्र मजबूत करने के बजाय जिसमें वह कमजोर है उसमें अधिक समय दे रहा है, क्योंकि नियुक्ति तथा प्रमोशन में उसे इन तीनों में अपनी दक्षता प्रदर्शित करनी होगी। ए0पी0आई0 व्यवस्था लागू होने के बाद देश में कितने रिसर्च जर्नल प्रारंभ हुए हैं, कितनी शोध संगोष्ठियां, सेमीनार आयोजित हो रहे हैं तथा कितनी पुस्तके लिखी जा रही हैं, इनकी संख्या के आधार पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा में हम कितनी गुणवत्ता रख पा रहे होंगे। इन परिस्थितियों में विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में किसी भारतीय विश्वविद्यालय का न आना कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं होना चाहिए।
23 मई 2014 को यू.जी.सी के वाइस चेयरमेन प्रो. एच. देवराज ने जीवाजी विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती समारोह में अपने भाषण के दौरान कहा कि 96 प्रतिशत अनुदान केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को मिलता है तथा 4 प्रतिशत प्रादेशिक विश्वविद्यालयों को। जबकि 96 प्रतिशत छात्र प्रादेशिक विश्वविद्यालयों में तथा 4 प्रतिशत केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन कर रहे हैं। इस अन्तर को किसी भी रूप में जायज एवं न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्वविद्यालयों को जोड़ने की बात कहते हैं तथा मेडीसन स्क्वायर गार्डन में भारत से शिक्षकों के निर्यात की बात करते हैं। उच्च शिक्षा में एकरूपता तथा गुणवत्ता के अभाव में ऐसा करना कदापि संभव नहीं होगा।
उच्च शिक्षा में एकरूपता तथा गुणवत्ता बहाल करने हेतु निम्न प्रयास किये जा सकते हैं:-
1- प्रादेशिक विश्वविद्यालयों को महाविद्यालयों की सम्बद्धता के कार्य से मुक्त किया जाये। विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को सिर्फ शिक्षण एवं शोध से जुड़ी जिम्मेदारियां ही दी जायें।
2- ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाये जिनका कार्य सिर्फ सम्बद्ध महाविद्यालयों का कार्य करना हो। जिले के अग्रणी महाविद्यालयों को भी जिले के महाविद्यालयों के कार्यों की जिम्मेदारी दी जा सकती है।
3- शिक्षकों को चुनाव डयूटी तथा ऐसी अन्य अशैक्षणिक गतिविधियों से दूर रखा जाये।
4- उच्च शिक्षा में बल पूर्वक छात्रों की उपस्थिति पर जोर देने की बजाय उन्हें स्वयं कक्षाओं में पहुंचने के लिए अभिपे्ररित किया जाये। उच्च शिक्षा में प्रायमरी शिक्षा की तरह निर्णय नहीं लिये जायें।
5- शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ रोजगार प्राप्त करना नहीं है अतः सिर्फ रोजगार के लिए शिक्षक बनने वाले व्यक्तियों को प्राथमिकता नहीं मिलना चाहिए।
6- सिर्फ अकादमिक आधार पर ही शिक्षकों का चयन नहीं होना चाहिए बल्कि महत्वपूर्ण मानवीय गुणों को भी तरजीह मिलनी चाहिए।
7- विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता (आॅटोनोमी) बहाल रखी जाये। उच्च शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णयों में शिक्षाविदों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये।
देश में उच्च शिक्षा की स्थिति यदि संतोषजनक नहीं है तो इसके लिए सिर्फ वे व्यक्ति ही जिम्मेदार नहीं हैं जिनकी उच्च शिक्षा में प्रत्यक्ष भागीदारी है बल्कि प्रचलित व्यवस्था के साथ-साथ वह लोग अधिक जिम्मेदार हैं जो उच्च स्तर पर नीतियों के निर्माण एवं निर्णयन प्रक्रिया का भाग हैं। आर्थिक विसंगतियां, स्वायत्तता, प्रायमरी शिक्षा की भांति उच्च शिक्षा का संचालन, सम्बद्धता के बोझ तले दबे होने के कारण अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते प्रादेशिक विश्वविद्यालय, अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप तथा उच्च शिक्षा में एकरूपता का अभाव आदि ऐसी समस्यायें हैं जिनके कारण उच्च शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। शिक्षकों एवं कुलपति की नियुक्ति में चयन समिति को जबावदेह बनाना होगा। इसके लिए चयन समिति को और अधिकार दिये जा सकते हैं। मानवता एवं नैतिक मूल्यों के अभाव में एक अकादमिक व्यक्ति की कार्यशैली भी उच्च शिक्षा के मानदण्डों के अनुरूप नहीं हो सकती है, क्योंकि हो सकता है नैतिक मूल्यों के अभाव में ऐसा व्यक्ति समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन सही ढंग से न कर सके। स्वेच्छा से दूसरांे के लिए अपनी क्षमताओं का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों को शिक्षा से जोड़कर तथा प्रादेशिक विश्वविद्यालयों को सम्बद्धता के भार से मुक्त करके उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। इसके लिए यू0जी0सी0 की भूमिका पर पुनर्विचार तथा किसी नई एजेन्सी की स्थापना के बारे में भी विचार किया जाना चाहिए। सिर्फ कुछ केन्द्रीय विश्वविद्यालय तथा चुनिन्दा संस्थान देश में उच्च शिक्षा की स्थिति का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उच्च शिक्षा की रीढ़ कहे जाने वाले प्रादेशिक विश्वविद्यालयों की स्थिति के आधार पर ही उच्च शिक्षा की वास्तविक स्थिति का आकलन किया जाना चाहिए।
भारतीय विश्वविद्यालयीन शिक्षा में सुधार, विस्तार तथा भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर 1948 में डा. एस. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शैक्षिक आयोग (यूनिवर्सिटी एज्यूकेशन कमीशन) का गठन किया गया था। इस आयोग की अनुशंसा के आधार पर नवम्बर 1956 में ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग‘ की स्थापना की गई। वर्तमान में यू.जी.सी के छह रीजनल केन्द्र – पुणे, हैदराबाद, कोलकाता, भोपाल, गुवाहटी तथा बैंगलोर में कार्य कर रहे हैं, तथा इसका मुख्यालय नई दिल्ली में बहादुरशाह जफर मार्ग पर स्थित है।
यू.जी.सी के दो प्रमुख कार्य हैं – उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान देना तथा उच्च शिक्षा में एकरूपता रखना। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम 1956 के अनुसार- ‘‘आयोग का सामान्य कर्तव्य, सम्बद्व विश्वविद्यालयों या अन्य निकायों के परामर्श से ऐसी सभी कार्यवाहियां करना होगा, जो विश्वविद्यालय शिक्षा की अभिवृद्धि और उसमें एकसूत्रता लाने के लिए और विश्वविद्यालय में अध्यापन, परीक्षा और अनुसंधान के स्तरमानों का निर्धारण करके और उन्हें बनाये रखने के लिए वह ठीक समझे‘‘।
केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सम विश्वविद्यालय (डीम्ड यूनिवर्सिटी) एवं निजी विश्वविद्यालय का स्वरूप लगभग एक सा ही है क्योंकि इनके ऊपर महाविद्यालयों की सम्बद्धता का भार नहीं रहता है। वर्तमान समय में प्रादेशिक विश्वविद्यालयों का प्रमुख कार्य सम्बद्ध महाविद्यालयों का निरीक्षण, शिक्षकों की नियुक्तियां, प्रमोशन, परीक्षा, उड़नदस्ता, परीक्षा परिणाम सहित सभी गतिविधियों का संचालन करना है।
एक प्रादेशिक विश्वविद्यालय ‘जीवाजी विश्वविद्यालय‘ को ही लें – अध्ययनशालाओं में 88 पाठ्यक्रम, 400 से अधिक सम्बद्ध महाविद्यालय एवं 72 शिक्षक। यह स्थिति केवल एक-दो जगह हों, ऐसा नहीं है। प्रदेश सहित देश में ऐसे कई विश्वविद्यालय देखने को मिल जायेंगे, जिनकी गुणवत्ता सम्बद्वता के भार के कारण प्रभावित हो रही है तथा अत्यधिक दबाव के कारण शिक्षकों की मनःस्थिति सामान्य नहीं रह पा रही है।
काफी प्रयासों के बावजूद भी यूजीसी उच्च शिक्षा में एकरूपता रखने में सफल नहीं हो सका है। कुलपति के कार्यकाल को ही लें, कहीं पर 5 वर्ष तो कहीं 4 एवं कई जगहों पर यह 3 वर्ष है। शिक्षकों के रिटायरमेन्ट की आयु 65 वर्ष, 62 वर्ष एवं कहीं पर यह 60 वर्ष है। कई प्रदेशों में विश्वविद्यालय के शिक्षकों को राजनीति में सहभागिता के अवसर हैं तो अन्य दूसरी जगहों पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं है। कुलपति की नियुक्ति के लिए यू.जी.सी द्वारा निर्धारित मानदण्डों का पालन भी सभी जगह नहीं किया जा रहा है जबकि कुलपति की नियुक्ति करने वाली समिति में एक प्रतिनिधि यू.जी.सी का भी रहता है। यूजीसी विनियम के अनुसार ‘‘सर्वोच्च दक्षता, सत्यनिष्ठा, नैतिकता एवं संस्थागत प्रतिबद्वता के सर्वोच्च व्यक्तियों को ही कुलपति के रूप में नियुक्त किया जायेगा‘‘। यदि कोई व्यक्ति यह जानते हुए भी कि यूजीसी द्वारा कुलपति के लिए निर्धारित योग्यतायें वह पूरी नहीं कर रहा है, इसके बावजूद भी यदि वह कुलपति पद के लिए अपना आवेदन प्रस्तुत कर रहा है तो ऐेसे व्यक्तियों से हमें कितनी सत्यनिष्ठा एवं नैतिकता की अपेक्षा करनी चाहिए, इसकी अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
उच्च शिक्षा में तीन प्रमुख कार्य करने होते हैं – शिक्षण, शोध तथा अकादमिक प्रशासन। किसी भी शिक्षक का समान रूप से इन तीनों पर अधिकार होना आसान कार्य नहीं है। किसी की शिक्षण में अधिक रूचि होगी तो किसी की शोध में तथा किसी में अकादमिक प्रशासनिक दायित्वों को अच्छी तरह निभाने की क्षमता होगी। ए0पी0आई0 (अकादमिक कार्य निष्पादन सूचक) व्यवस्था के माध्यम से सभी को एक जैसा बनाने का प्रयास किया जा रहा है। जिसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि शिक्षक अपनी अभिरूचि वाला क्षेत्र मजबूत करने के बजाय जिसमें वह कमजोर है उसमें अधिक समय दे रहा है, क्योंकि नियुक्ति तथा प्रमोशन में उसे इन तीनों में अपनी दक्षता प्रदर्शित करनी होगी। ए0पी0आई0 व्यवस्था लागू होने के बाद देश में कितने रिसर्च जर्नल प्रारंभ हुए हैं, कितनी शोध संगोष्ठियां, सेमीनार आयोजित हो रहे हैं तथा कितनी पुस्तके लिखी जा रही हैं, इनकी संख्या के आधार पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा में हम कितनी गुणवत्ता रख पा रहे होंगे। इन परिस्थितियों में विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में किसी भारतीय विश्वविद्यालय का न आना कोई आश्चर्यजनक तथ्य नहीं होना चाहिए।
23 मई 2014 को यू.जी.सी के वाइस चेयरमेन प्रो. एच. देवराज ने जीवाजी विश्वविद्यालय के स्वर्ण जयंती समारोह में अपने भाषण के दौरान कहा कि 96 प्रतिशत अनुदान केन्द्रीय विश्वविद्यालयों को मिलता है तथा 4 प्रतिशत प्रादेशिक विश्वविद्यालयों को। जबकि 96 प्रतिशत छात्र प्रादेशिक विश्वविद्यालयों में तथा 4 प्रतिशत केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्ययन कर रहे हैं। इस अन्तर को किसी भी रूप में जायज एवं न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विश्वविद्यालयों को जोड़ने की बात कहते हैं तथा मेडीसन स्क्वायर गार्डन में भारत से शिक्षकों के निर्यात की बात करते हैं। उच्च शिक्षा में एकरूपता तथा गुणवत्ता के अभाव में ऐसा करना कदापि संभव नहीं होगा।
उच्च शिक्षा में एकरूपता तथा गुणवत्ता बहाल करने हेतु निम्न प्रयास किये जा सकते हैं:-
1- प्रादेशिक विश्वविद्यालयों को महाविद्यालयों की सम्बद्धता के कार्य से मुक्त किया जाये। विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को सिर्फ शिक्षण एवं शोध से जुड़ी जिम्मेदारियां ही दी जायें।
2- ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाये जिनका कार्य सिर्फ सम्बद्ध महाविद्यालयों का कार्य करना हो। जिले के अग्रणी महाविद्यालयों को भी जिले के महाविद्यालयों के कार्यों की जिम्मेदारी दी जा सकती है।
3- शिक्षकों को चुनाव डयूटी तथा ऐसी अन्य अशैक्षणिक गतिविधियों से दूर रखा जाये।
4- उच्च शिक्षा में बल पूर्वक छात्रों की उपस्थिति पर जोर देने की बजाय उन्हें स्वयं कक्षाओं में पहुंचने के लिए अभिपे्ररित किया जाये। उच्च शिक्षा में प्रायमरी शिक्षा की तरह निर्णय नहीं लिये जायें।
5- शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ रोजगार प्राप्त करना नहीं है अतः सिर्फ रोजगार के लिए शिक्षक बनने वाले व्यक्तियों को प्राथमिकता नहीं मिलना चाहिए।
6- सिर्फ अकादमिक आधार पर ही शिक्षकों का चयन नहीं होना चाहिए बल्कि महत्वपूर्ण मानवीय गुणों को भी तरजीह मिलनी चाहिए।
7- विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता (आॅटोनोमी) बहाल रखी जाये। उच्च शिक्षा से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णयों में शिक्षाविदों की भागीदारी सुनिश्चित की जाये।
देश में उच्च शिक्षा की स्थिति यदि संतोषजनक नहीं है तो इसके लिए सिर्फ वे व्यक्ति ही जिम्मेदार नहीं हैं जिनकी उच्च शिक्षा में प्रत्यक्ष भागीदारी है बल्कि प्रचलित व्यवस्था के साथ-साथ वह लोग अधिक जिम्मेदार हैं जो उच्च स्तर पर नीतियों के निर्माण एवं निर्णयन प्रक्रिया का भाग हैं। आर्थिक विसंगतियां, स्वायत्तता, प्रायमरी शिक्षा की भांति उच्च शिक्षा का संचालन, सम्बद्धता के बोझ तले दबे होने के कारण अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते प्रादेशिक विश्वविद्यालय, अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप तथा उच्च शिक्षा में एकरूपता का अभाव आदि ऐसी समस्यायें हैं जिनके कारण उच्च शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। शिक्षकों एवं कुलपति की नियुक्ति में चयन समिति को जबावदेह बनाना होगा। इसके लिए चयन समिति को और अधिकार दिये जा सकते हैं। मानवता एवं नैतिक मूल्यों के अभाव में एक अकादमिक व्यक्ति की कार्यशैली भी उच्च शिक्षा के मानदण्डों के अनुरूप नहीं हो सकती है, क्योंकि हो सकता है नैतिक मूल्यों के अभाव में ऐसा व्यक्ति समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन सही ढंग से न कर सके। स्वेच्छा से दूसरांे के लिए अपनी क्षमताओं का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों को शिक्षा से जोड़कर तथा प्रादेशिक विश्वविद्यालयों को सम्बद्धता के भार से मुक्त करके उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। इसके लिए यू0जी0सी0 की भूमिका पर पुनर्विचार तथा किसी नई एजेन्सी की स्थापना के बारे में भी विचार किया जाना चाहिए। सिर्फ कुछ केन्द्रीय विश्वविद्यालय तथा चुनिन्दा संस्थान देश में उच्च शिक्षा की स्थिति का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। उच्च शिक्षा की रीढ़ कहे जाने वाले प्रादेशिक विश्वविद्यालयों की स्थिति के आधार पर ही उच्च शिक्षा की वास्तविक स्थिति का आकलन किया जाना चाहिए।