विधि-कानून

परीक्षण के दौर से गुजरती न्यायपालिका

अनिल त्यागी

देश की अदालतें जो अभी तक अखबारी खबरों से दूर रहती थी आज कल मीडिया की सुर्खियों में है। माननीय न्यायधीश एक दूसरे पर लगभग आरोप लगाने के करीब है। मद्रास उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश के एक पत्र को लेकर सवाल उछाले जा रहे हैं। जस्टिस एच.एम. गोखले ने खुल कर बताया है कि उन्होने अपने एक तत्कालीन माननीय श्री एस. रघुपति का पत्र तब के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश माननीय बालाकृष्णन जी को भेजा था जिसमें पूर्व केन्द्रीय राजा का उल्लेख था। लगभग आरोप है राजा जी ने किसी जमानत के मामले मे अपने पद प्रभाव का इस्तेमाल करने का प्रयास किया था। पता नहीं अब इस पत्राचार को उजागर करने की मंशा किसकी क्या है। राजा आज किसी जमानत के मामले में नहीं 2जी स्पैक्ट्रम मामले को लेकर चर्चाओं में है ऐसे में इस बहस की क्या जरूरत है।

यदि ऐसा था भी तो उस बात का अब क्या मतलब जिन माननीय को राजा ने प्रभावित करने का प्रयास किया था वे यदि उसी समय किसी थाने में रपट दर्ज कराने के ेआदेश जारी कर या करवा देते तो राजा का सारा किस्सा उसी समय खत्म हो जाता और देश को इतने बडे घोटाले से शर्मसार न होना पडता। और यदि वे इतना साहस नहीं जुटा पाये तो उनके मुख्य न्यायाधीश जी को सुप्रीम कोर्ट के बदले सी बी आई को पत्र लिखना चाहिये था तो भी परिणात्मक कार्यवाही होती।

चलो मान भी लिया जाए कि कानूनी औपचारिकता थी तो तत्कालीन माननीय मुख्य न्यायाधीश जी की तरफ से किसी कार्यवाही के अभाव में मद्रास हाईकार्ट को कुछ तो करना चाहिये था। यह एक सटीक उदाहरण है हमारे लोकतत्र के स्तम्भ न्यायपालिका का जहॉ न्यायधीशों के मामले में यह हालात है तो आम नागरिक का क्या होगा

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मामले मे न्यायमूर्ति काटजू की पीठ की टिप्पणी और उस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का अपील दायर करना और अपील का रद्द होना, लगता है कि सब कुछ गड्म गड है कही कुछ नहीं हर जगह सबकुछ सड रहा है भ्रष्टाचार का प्रदूषण फैल रहा है। मामले फाइलों से निकलकर बयानो के रास्ते मीडिया तक फिर जनता तक पहुंच रहे हैं, ऐसे में आम भारतीय क्या करे? हमारे कानून मंत्री ने तो टका सा बयान दे दिया कि ये जजो की आपसी बातचीत का मामला है वह इस पर कुछ नहीं कह सकते। जब भारत के जिम्मेदार कानून मत्री कुछ नहीं कह सकते तो कौन कहेगा? प्रधानमत्री को तो लोग चुप का पर्यायवाची मानने लगे है ।

हमारे कानून मंत्री जजो की अकाउन्टेबिलिटी बिल को लेकर शोर तो करते है पर कब यह कार्यरूप में परिणित होगा पता नहीं। देश के पूर्व कानून मत्री शान्ति भूषण जी सुप्रीम कोर्ट के भ्रष्टाचार पर बोलकर अवमानना की कार्यवाही झेल रहे है।जस्टिस सौमित्र सेन और जस्टिस दिनकरन के मामले भी कोई ज्यादा पुराने नहीं हुए है। गाजियाबाद के पी0 एफ0 घोटाले मे तो जिला स्तर से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के जजो के नाम आ रहे है।

जिला अदालतो के खिलाफ कोई पत्रकार या प्रशासन कुछ कह भले ही न पाये पर आम वादी को क्या क्या भोगना पडता है इसका सर्वे कराया जाये तो पता लगेगा कि भले आदमी कोर्ट में जाना क्यों पसंद नहीं करते? कहावत है कि जस्टिस डिलेयड जस्टिस डिनाइड जब डेढ लाईन के मुकदमें सालो साल चलते ही रहते है ंतो न्याय व्यवस्था पर अंगुली तो उठेंगी ही। मान भी ले कि जिला अदालतों में गवाही सूबूत में देर लगती है पर उच्च न्यायालयों में देर क्यों लगती है इसका कोई तो हल निकालना ही होगा।

आम आदमी को बहलाने के लिये कुछ तो जतन होने चाहिये। माना कि जजो के खिलाफ किसी कार्यवाही का हक सरकार के पास नहीं है उनके खिलाफ कार्यवाही करने को संसद में दो तिहाई बहुमत की दरकार है। पर तब तक सरकार न्यायालयों की अवमानना सबधी कानूनों में तो सुधार कर ही सकती है कि यदि कोई नागरिक किसी माननीय की आलोचना करे तो उसपर अवमानना गाज नहीं गिरेगी। जब भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो माननीयों और न्यायालयों को यह निरकुश अधिकार क्यों है। न्यायालय के आदेश न मानना तो न्याय की अवमानना हो पर उस न्याय पर टिप्पणी करने का अधिकार तो आम आदमी को होना ही चाहिये। कम से कम मन की भडास तो निकलेगी ही और मन का गुब्बार निकलने से देश अवसादमुक्त तो होगा ही। कुछ सार्थक भी हो सकता है।

न्यायपालिका परीक्षण के दौर से गुजर रही है। आरोप प्रत्यारोप चल रहे हैं। लगता है कि समुद्र मंथन में विष का फेन निकल रहा है जिसे गटकने के लिये तो किसी शिव को आना ही पडेगा। इसके बाद अमृत भी निश्चित रूप से निकलेगा जिसमें सिर्फ देवता हिस्सेदार होंगे। लेकिन पता नहीं ये कब होगा तब तक आम जनता देवताओं की तलाश मे लगी रहे तो बेहतर होगा।