संयुक्त राष्ट्र: दंतहीन, विषरहित 

सचिन त्रिपाठी

दुनिया जब जलती है तो कोई ऐसा मंच चाहिए जो केवल आग बुझाने की अपील न करे बल्कि पानी लेकर पहुंचे लेकिन 21वीं सदी के तीसरे दशक में जब-जब युद्धों की चिंगारियां उठीं, तब-तब संयुक्त राष्ट्र केवल बयानों और प्रस्तावों की राख उड़ाता नजर आया। क्या यह वही संस्था है जिसे 1945 में दुनिया ने आशा के प्रतीक के रूप में देखा था? जब दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से कराहती मानवता ने संयुक्त राष्ट्र की नींव रखी, इसका उद्देश्य था वैश्विक शांति, मानवाधिकारों की रक्षा और देशों के बीच सहयोग की भावना लेकिन आज जब गाजा में बम गिरते हैं, यूक्रेन में टैंक चलते हैं, सूडान में गृहयुद्ध की आग जलती है और हैती में सरकार ही लुप्त हो जाती है, तब यह सवाल जरूरी हो जाता है कि क्या संयुक्त राष्ट्र अपने उद्देश्य से भटक चुका है या दंतहीन, विषरहित सर्प की भांति हो गया। ताजा घटनाक्रमों को देख के तो फिलहाल यही लग रहा है। 

गाजा पट्टी में 2023 से शुरू हुआ इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध अब तक 40 हजार से अधिक लोगों की जान ले चुका है। इनमें बड़ी संख्या महिलाओं और बच्चों की है। संयुक्त राष्ट्र ने प्रस्ताव पारित किए, मानवीय मदद की घोषणाएं कीं लेकिन अमेरिका जैसे देशों के वीटो ने हर कोशिश को निष्फल कर दिया। इसी प्रकार रूस-यूक्रेन युद्ध, जो 2022 में शुरू हुआ था, अब तीसरे साल में प्रवेश कर चुका है। हजारों लोग मारे जा चुके हैं, लाखों विस्थापित हो गए हैं लेकिन सुरक्षा परिषद में रूस की वीटो शक्ति के आगे बाकी सदस्य विवश हैं। यह केवल दो उदाहरण नहीं हैं। 

आर्मेनिया-अज़रबैजान, सूडान, माली, सोमालिया, यमन, कांगो आदि  दुनिया के अलग-अलग कोनों में हिंसा और युद्ध की स्थिति बनी हुई है। हैती जैसे देश तो शासनहीनता की स्थिति में पहुंच गए हैं। हर बार संयुक्त राष्ट्र कुछ कड़े बयान देता है, प्रस्ताव पारित करता है, मानवीय सहायता भेजता है, परंतु शांति की ठोस स्थापना नहीं कर पाता।

इस विफलता का सबसे बड़ा कारण है सुरक्षा परिषद की संरचना। पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और ब्रिटेन (पी पांच) किसी भी प्रस्ताव को वीटो कर सकते हैं। यानी अगर चार देश मान भी लें कि युद्ध रुकना चाहिए पर एक देश ‘ना’ कह दे, तो प्रस्ताव रद्द। यह व्यवस्था आज के बहुपक्षीय विश्व में अप्रासंगिक हो चुकी है। भारत, ब्राजील, जर्मनी और जापान जैसे देश दशकों से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं लेकिन पी पांच के हितों के टकराव के कारण यह मांग आज भी अधूरी है। क्या यह उचित है कि 140 करोड़ की आबादी वाला भारत, जो संयुक्त राष्ट्र का सबसे बड़ा शांतिरक्षक बल भेजने वाला देश है, उसे नीति-निर्धारण की टेबल पर बैठने का अधिकार न हो?

आज संयुक्त राष्ट्र में शक्ति, मानवता से अधिक मूल्यवान हो गई है। शक्तिशाली देश अपने राष्ट्रीय हितों को वैश्विक हितों से ऊपर रखते हैं। फिलिस्तीन में बच्चों की मौत हो या यूक्रेन में नागरिकों के खिलाफ ड्रोन हमले, ये सब ‘भू-राजनीति’ के खेल में आंकड़ों तक सीमित होकर रह जाते हैं। यूएन महासभा में 150 देश अगर युद्ध रोकने की बात कहें भी, तब भी सुरक्षा परिषद में केवल एक वीटो सबको चुप करवा देता है। यूएन की शांति सेनाएं आज भी कई जगह तैनात हैं लेकिन न तो उनके पास आवश्यक संसाधन हैं, न ही स्वतंत्र निर्णय की शक्ति। माली, कांगो, लेबनान जैसे देशों में तैनात सेनाएं स्थानीय हथियारबंद गुटों के सामने बेबस हैं। अफगानिस्तान में अमेरिका की वापसी के बाद वहां की स्थिति पर यूएन पूरी तरह असहाय नजर आया।

2025 की शुरुआत में भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने फिर से मांग उठाई कि संयुक्त राष्ट्र में संरचनात्मक सुधार हो। यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने खुद कहा: “अगर हम बदलते नहीं हैं तो इतिहास हमें माफ नहीं करेगा।” उन प्रस्तावित सुधारों में सुरक्षा परिषद में नए स्थायी सदस्यों को शामिल करना, वीटो पावर को सीमित करना, खासकर युद्ध से जुड़े प्रस्तावों में, यूएन शांति सेना को स्वतंत्र और प्रभावी बनाना और बजटीय तथा प्रशासनिक विकेंद्रीकरण। जनवरी 2025 में आईपीएसओएस के एक वैश्विक सर्वे के अनुसार 68% लोग संयुक्त राष्ट्र को युद्ध रोकने में अक्षम मानते हैं।, 82% युवा चाहते हैं कि यूएन में आमूलचूल बदलाव हो। भारत, नाइजीरिया और ब्राज़ील में विशेष रूप से यूएन की भूमिका पर निराशा देखी गई। यह स्पष्ट संकेत है कि केवल कूटनीतिक भाषा और औपचारिक बयान अब लोगों को संतुष्ट नहीं करते।

आज जब युद्ध की लपटें फैली हुई हैं और मानवता कराह रही है, तब संयुक्त राष्ट्र को केवल ‘संयुक्त’ दिखने के बजाय वास्तव में ‘संवेदनशील’ बनना होगा। उसकी चुप्पी अब केवल विफलता नहीं, अपराध की श्रेणी में गिनी जाने लगी है। संयुक्त राष्ट्र का यह दौर, रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियों में जैसे जीवंत हो उठा है –

“क्षमा शोभती उस भुजंग को,

जिसके पास गरल हो।

उसको क्या जो दंतहीन,

विषरहित, विनीत, सरल हो।”

संयुक्त राष्ट्र की भूमिका भी इन दिनों उस दंतहीन, विषरहित सर्प की भांति है जो फुंफकार तो सकता है, लेकिन उसके अलावा कुछ और नहीं कर सकता है क्योंकि उसकी क्षमता इससे अधिक नहीं है। यही नहीं, वर्तमान परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र की स्थिति किसी निष्क्रिय परिवार के ऐसे बुजुर्ग की तरह हो गई है जिसकी बात तो सभी सुनते हैं लेकिन उनकी बात पर अमल कोई नहीं करता। अगर यह संस्था वास्तव में विश्व शांति का मंच बनना चाहती है, तो उसे केवल प्रस्ताव पारित करने से ऊपर उठकर साहसिक निर्णय लेने होंगे भले ही वे शक्तिशाली देशों के खिलाफ क्यों न हों नहीं तो इतिहास में इसका नाम एक ‘संवैधानिक शव’ के रूप में दर्ज होगा जो जीवित तो था पर कार्यरत नहीं।

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