संयुक्त सुरक्षा परिषद् में पुनर्गठन की पहल

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प्रमोद भार्गव

unसुरक्षा परिषद् में सुधार और विस्तार की मांग जब-तब अंगड़ाई लेती रही है। किंतु यह पहली बार संभव हुआ है कि इस मांग को औपचारिक विचार-विमर्श के लिए संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने सर्व-सम्मति से मंजूर किया है। इस नाते यह एक वैश्विक परिघटना है,क्योंकि इसके पहले इस तरह के प्रस्ताव दो बार पटल तक पहुंचे तो हैं,लेकिन इन्हें स्वीकार नहीं किया गया। तय है,यह परिघटना भारत के लिए एक बड़ी कूटनीतिक उपलब्घि है। एक साल तक अनवरत चलने वाले विचार-विमर्श के बाद यदि परिषद् में बदलाव की खिड़कियां खुलती हैं तो भारत सहित कुछ अन्य देशों को परिषद् की स्थायी सदस्यता मिल सकती है ? बावजूद सर्वाधिकार परिषद् के पांच स्थायी सदस्य देशों के पास ही सुरक्षित हैं। यहां तक कि उन्हें  महासभा द्वारा बहुमत से लिए निर्णय को भी निरस्त करने का अधिकार है। यही वह एकाधिकार है,जो पी-5 देशों की शक्ति में विभाजन नहीं होने दे रहा है। नतीजतन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में असमानता जन्म से लेकर अब तक बनी हुई है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का गठल हुआ था। इसका अहम् मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों में अमेरिका,ब्रिटेन,फ्रांस,रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। हालांकि इस उद्देश्य में परिषद् को पूर्णतः सफलता नहीं मिली। भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान,अमेरिका और रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आज तक उबर नहीं पाए हैं। इजराइल और फिलींस्तान के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गया है। अनेक इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकी देते रहते हैं। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। दुनिया के सभी शक्ति-संपन्न देश व्यापक मारक क्षमता के हथियारों के निर्माण और भंडारण में लगे हैं। बावजूद परिषद् की भूमिका वैश्विक संगठन होने की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण है,क्योंकि उनके पास प्रतिबंध लागू करने और संघर्ष की स्थिति में सैनिक कार्रवाई की अनुमति देने के अधिकार देना,उसके अजेंडे में शामिल हैं। इस नाते उसकी मूल कार्यपद्धति में शक्ति संतुलन बनाए रखने की भावना अंतनिर्हित है।

1945 में परिषद् के अस्त्वि में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। नई आर्थिक ताकतें,शक्ति के नए केंद्रों के रूप में विश्व मंच पर उभर रही हैं। एशियाई बौद्धिकता,पश्चिमी बौद्धिकता को जबरदस्त चुनौती दे रही है। इस परिप्रेक्ष्य में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को कहना भी पड़ा था कि अमेरिका के छात्र बैंग्लुरू और बीजींग के तकनीकी पेशेवरों से मुकाबला करें,जिससे मानव संसाधन के क्षेत्र में अमेरिकी वर्चस्व बना रहे। जाहिर है, अर्थ और बुद्धि की भी शक्ति संतुलन में भूमिका रेखांकित की जाने लगी है। चीन आज मानमानी करने में इसलिए समर्थ है,क्योंकि विश्व अर्थव्यस्था में उसकी नीतियां और उत्पादित वस्तुएं अनिवार्य जरूरत बन गई हैं। इसलिए परिषद् में उसकी गलत बात पर भी अन्य सदस्य देश चुप्पी साध लेते हैं। यक एक ऐसी विसंगति है जो टकराव के हालात उत्पन्न करती है। असमानता की इस खाई को पाटने की उम्मीद सुरक्षा परिषद् में पुनर्गठन हो,तभी संभव है।

भारत लंबे समय से इस पुनर्गठन का प्रश्न परिषद् की बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्रश्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। परिषद् के स्थायी व वीटोधारी देशों में अमेरिका,रूस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इन प्रश्नों के पक्ष में देते रहे हैं। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है,जब संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई से भी अधिक देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के अजेंडे का अहम् मुद्दा बन गया है। नतीजतन अब यह मसला एक तो परिषद् में सुधार की मांग करने वाले भारत जैसे चंद देशों का मुद्दा नहीं रह गया है,बल्कि महासभा के सदस्य देशों की सामूहिक कार्यसूची का अनुत्तरित प्रश्न बन गया है। जिसका देर-सबेर हल होना तय है। दूसरा प्रस्ताव परिषद् के पुनर्गठन से जुड़ा है। इसके तहत सुरक्षा परिषद् में प्रतिनिधित्व को समतामूलक बनाना है। इस मकसद पूर्ति के लिए परिषद् के सदस्य देशों में से नए स्थायी सदस्य देशों की संख्या बढ़ानी होगी। यह संख्या बढ़ती है तो परिषद् की असमानता दूर होने की संभावना स्वतः बढ़ जाएगी।

परिषद् की 69वीं महासभा में इन प्रस्तावों का शामिल होना, बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि तो है,लेकिन परिणाम भारत और इसमें बदलाव की अपेक्षा रखने वाले देशों के पक्ष में आएंग ही, इसमें संदेह है। दरअसल अब एक साल तक संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में परिषद् की मौजूदा सरंचना में सांगठनि सुधार कैसे किए जाएं,इस मसले पर लगातार विचार-विमर्श होते रहेंगे। इसके बाद महासभा के अध्यक्ष सैम कुटेसा पारित प्रस्ताव के क्रम में एक संपूर्ण सत्र की बैठक आहूत करेंगे। इसमें असमानता दूर करने के लिए उचित प्रतिनिधित्न हेतु सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने से जुड़े मामलों पर चर्चा होगी। इस सभा में बहुमत से पारित होने वाली सहमतियों के आधार पर ‘अंतिम अभिलेख‘ की रुपरेखा तैयार होगी। किंतु यह जरूरी नहीं कि यह अभिलेख किसी देश की इच्छाओं के अनुरुप ही हो। क्योंकि इसमें बहुमत से भी लाए गए प्रस्तावों को खारिज करने का अधिकार पी-5 देशों को है। ये देश किसी प्रस्ताव को खारित कर देते हैं तो यथास्थिति और टकराव बरकरार रहेंगे। साथ ही यदि किसी नए देश को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता मिल भी जाती है तो यह प्रश्न भी कायम रहेगा कि उन्हें वीटो की शक्ति दी जाती है अथवा नहीं ? इसलिए भारत के लिए फिलहाल यह प्रश्न अनुत्तरित ही है कि उसके लिए प्रभावशाली अंतर राष्ट्रिय संस्था में स्थायी सदस्यता पाने का रास्ता एकदम निश्कंटक हो गया है।

हालांकि भारत कई दृष्टियों से न केवल सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता की हैसियत रखता है,बल्कि वीटो-शक्ति हासिल कर लेने की पात्रता भी उसमें है। क्योंकि वह दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है। सवा अरब की आबादी वाले देश भारत में अनेक अल्पसंख्यक धर्मावलंबियों को वहीं संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं,जो बहुसंख्यक हिंदुओं को मिले हैं। भारत ने साम्राज्यवादी मंशा के दृष्टिगत कभी किसी दूसरे देश की सीमा पर अतिक्रमण नहीं किया,जबकि चीन ने तिब्बत पर तो अतिक्रमण किया ही,तिब्बतियों की नस्लीय पहचान मिटाने में भी लगा है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में भी अहम् भूमिका निभाई है। बावजूद सुरक्षा परिषद् की सदस्यता हासिल करने में बाधा बने पेंच अपनी जगह बद्स्तूर हैं। दरअसल पी-5 देश यह कतई नहीं चाहते कि जी-4 देश सुरक्षा परिषद् में शामिल हो जाएं। जी-4 देशों में भारत,जापान,ब्राजील और जर्मनी शामिल हैं। यही चार वे देश हैं,जो सुरक्षा परिषद् में शामिल होने की सभी पात्रताएं रखते हैं। किंतु परस्पर हितो के टकराव के चलते चीन यह कतई नहीं चाहता कि भारत और जापान को सदस्यता मिले। ब्रिटेन और फ्रांस जर्मनी के प्रतिद्वंद्वी देश हैं। जर्मनी को सदस्यता मिलने में यही रोड़े अटकाने का काम करते हैं। महाद्वीपीय प्रतिद्वंद्विता भी अपनी जगह कायम है। यानी एशिया में भारत का प्रतिद्वंद्वी जापान है। लातीनी अमेरिका से ब्राजील,मैक्सिको और अर्जेन्टीना सदस्यता के लिए प्रयासरत हैं। तो अफ्रीका से दक्षिण अफ्रीका और नाइजीरिया जोर-आजमाइश में लगे हैं। जाहिर है,परिषद् का पुनर्गठन होता भी है तो भारत जैसे देशों को बड़े पैमाने पर अपने पक्ष में प्रबल दावेदारी तो करनी ही होगी,बेहतर कूटनीती का परिचय भी देना होगा। क्योंकि सुरक्षा परिषद् में पुनर्गठन के प्रस्ताव ने,पी-5 देशों की शक्ति के विभाजन का द्वार खोल दिया है। इस शक्ति के विभाजन में ही दुनिया के अधिक लोकतांत्रिक होने की उम्मीदें अंगड़ाई ले रही हैं।

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  1. संघर्षवादी वैश्विक सत्ताएँ, समन्वयवादी और विश्वबंधुतावादी भारत को भी अपनी स्वयं की दर्पण प्रतिमा समान ही, देखती (हैं) होंगी। यह उनकी वैचारिक और आकलन की मर्यादा है।
    भारत का “कृण्वन्तो विश्वं आर्यं” सारे संसार में अनोखा है।
    पर, विश्वके अनेक देश भारत को समझने में भी गलती करने की प्रबल संभावना नकारी नहीं जा सकती।
    हम समन्वयवादी हैं, और वें (समस्त विश्व के देश) संघर्षवादी अर्थघटन करनेवाले।
    हम विश्वबंधुत्ववादी और वें(महासत्ताएँ) हैं, वर्चस्ववादी।
    ऐसे कारणों से युनो में घटनेवाली घटनाओं का अर्थघटन कठिन हो जाता है।
    इस लिए भी, मोदी जी की विदेश यात्राएँ सर्वाधिक महत्व रखती हैं।
    दो विशेष और अलग क्षेत्रों में इसका प्रभाव हो सकता है।
    (१) निवेश से भारत के युवाओं को आजीविका (रोजगार) का प्रबंध।
    (२)साथ साथ, विश्व में भारत की समन्वयी विचारधारा का प्रभाव।
    ==>अडसठ वर्षों मे पहली बार ऐसा शासन भारत में आया है। जो वास्तविक अर्थ में सर्व समन्वयी भारतीय विचार को फैला रहा है।
    ईश्वर करें, उसे सफलता मिले। ऐसा आध्यात्मिक और शुद्ध चारित्र्यवान नेतृत्व आज तक के किसी शासक में मुझे दिखाई नहीं दिया।
    यह कृष्ण की चतुराई और राम का कर्तव्य भाव दोनों का समन्वय है।
    मोदी जी की, विदेशी यात्राओं को इस दृष्टि से भी देखने की आवश्यकता है।
    अलग दृष्टिकोण भी जानना चाहता हूँ।

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