इस तरह हार तो लोकतंत्र ही जाता है – पंकज झा

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Democracy1भाजपा और भारत में एक साम्य ये रहा है कि दोनों भारतीय पौराणिक विचारों से प्रभावित, लोक में प्रचलित विभिन्न पुराने रूपकों और कहावतों को ही सदा अपने विचारों का आधार बनाते रही है. एक बड़े विचारक ने कहा है कि देश दो ही भाषाएँ जानता है रामायण और महाभारत.भाजपा भी इन्ही भाषाओँ में बात कर ‘लोक’ तक तक अपनी बात पंहुचा पाने में सफल होती रही है. जब भी उसने किसी दुसरे की भाषा को अपनाने का प्रयास किया है तो भले ही कभी-कभार लाभ मिलता नज़र आया हो लेकिन समग्रता में उसको नुकसान ही उठाना पड़ा है. अफ़सोस कि महाराष्ट्र का चुनाव भी इसका अपवाद साबित ना हो सका. सरसरी तौर पर इस परिणाम से यही निष्कर्ष निकला है कि लोगों को तोड़ने वाले राज ठाकरे का विषैला विचार ही इस चुनाव का निर्णायक तत्त्व साबित हुआ. भाजपा नीत गठबंधन हमेशा की तरह इस द्वंद का शिकार रहा कि वो क्या स्टैंड ले. तात्कालिक लाभ का विचार कर वो भी स्थानीयता के सुर में सुर मिलाये या अपने वृहद् राष्ट्रीय सरोकारों का परिचय दे. अंततः फैसला तात्कालिक लाभ की रणनीति के पक्ष में रहा और शिवसेना युति का घोषणा पत्र भी कम से कम राष्ट्रीय बनाम बाहरी के मामले में मनसे की कार्बन कॉपी साबित हुआ.इस अजीब बिडम्बना का दोहरा फायदा कांग्रेस गठबंधन को मिलते दिखा कि एक तरफ राज से प्रभावित होकर मनसे को वोट देने के कारण भगवा वोटों का बटवारा हुआ. यह अपेक्षा के अनुरूप ही कांग्रेस के पक्ष में रहा साथ ही बाहर से गए लोगों को भी अपनी सुरक्षा कांग्रेस को समर्थन करने में ही दिखा. तो जो स्थानीय पार्टी हैं उनके सरोकार अलग हैं.चाहे महाराष्ट्र की शिवसेना हो या बीजू जनता दल की तरह ऐन मौके पर साथ छोड़ जाने वाले हरियाणा के चौटाला या अरुणाचल के पूरी की पुरी सरकार का ही पार्टी बदल लेने वाले क्षेत्रिय नेतागण. सवाल उनपर नहीं देश की एकता पर,और राष्ट्रवाद को अपनी प्राण वायु मानने वाले भाजपा पर है.

ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र की सरकार बहुत लोकप्रिय थी इसलिए उसको पुनः जनादेश मिला. सब जानते हैं कि महंगाई से कराह रहे इस देश में आत्महत्या करने वाले सार्वाधिक किसानों का कलंक उसी सरकार के माथे पर है . जिस विदर्भ के सार्वाधिक किसानों ने आत्महत्या की है, वहीं के मराठा क्षत्रप कहे जाने वाले शरद पवार के हाथ में केंद्र के कृषि महकमे का बागडोर है. लेकिन कलावती के घर जा कर भले ही राहुल गाँधी ने शोहरत बटोर ली हो मगर पवार साहब की कृषि के बदले क्रिकेट में नीरो दिलचस्पी जगजाहिर रही है. जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों का नेपथ्य में चला जाना और संघ को नुकसान पहुचाने वाले राज्य तोड़क मुद्दों का हावी होना तो एक खतरनाक स्थिति की ओर ही संकेत करता है.अपने हाल के नासिक यात्रा में इस लेखक को ऐसा ही अनुभव हुआ था जब टैक्सी चालक ने राज्य सरकार पर भयंकर आक्रोश दिखाते हुए मनसे को वोट देने का बात की थी. उसको इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि मनसे को वोट देकर आखिरकार वो उसी गठबंधन को फायदा पंहुचा रहा है जिसको अभी तक वो अन्यायी और गुंडागर्दी को प्रश्रय देने वाले जैसे नकारात्मक विशेषण से संबोधित कर रहा था. तो लोकसभा की तरह ही महाराष्ट्र के विधान सभा चुनाव में भी यह साम्यता रही कि बहुत ही शातिराना तरीके से लोक को प्रभावित करने वाले मुद्दों को दरकिनार करने में सरकारें सफल रही. महंगाई,बेरोजगारी,रोजगारों का छिना जाना,किसानों की आत्महत्या, आतंकवाद, आदि मुद्दे को कृतिम रूप से अगर समाप्त करने में कांग्रेस यूति सफल रहा है तो आप उसके रणनीतिकारों को बधाई ही तो दे सकते हैं. महाराष्ट्र में,प्रदेश के विभिन्न नगरों को जोड़ने वाले राजमार्गों पर आप चले जाए, आपको आश्चर्य होगा कि सब्जी समेत जिन कृषि उत्पादों को खरीदना देश के आम लोगों के बूते से बाहर हो गया है वो सभी चीजें माटी के भाव खरीदने वाला वहाँ कोई नहीं है. प्याज, टमाटर,भिन्डी,सोयाबीन,अनार जैसे कृषि उत्पाद आपको सड़क पर बिखड़े पड़े मिलेंगे और साथ ही दिखेगा ग्राहक की आस में टकटकी लगाये किसान. तो महंगाई से कराहते जनसामान्य साथ ही उपज का उचित दाम ना मिल पाने के कारण मरते किसान,मुंबई पर आतंकियों का कब्ज़ा और फैशन में मग्न वही के प्रतिनिधि तात्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री. आतंक के बिखड़े पड़े अवशेष और ताज होटल में फिल्म निर्माण की संभावना तलाशते मुख्यमंत्री. इन सभी विरोधाभासों के बदले अगर किसी एक सरफिरे का जहर उगलता बयान चुनाव का प्रभावी तत्व हो गया हो तो ऐसे लोकतंत्र की हार पर हम आँसू ही तो बहा सकते हैं.

तो शिवसेना,एनसीपी,मनसे,आरपीआई जैसे क्षेत्रिय दलों की बात को छोड़ अगर हम राष्ट्रीय पार्टी ख़ास कर भाजपा की बात करें तो उसके लिए इस चुनाव समेत पिछले विभिन्न चुनावों का सबक यही है कि लाख जमानों का चलन बदल जाए,लेकिन वो सहरा(रेगिस्तान) को समंदर कहने की ग़लती ना करे. तात्कालिक लाभ और हानि के मद्देनज़र राजनीति कर के कम से कम भाजपा आगे नहीं बढ़ सकती है. उसको अपनी मौलिकता और प्राणवायु राष्ट्रवाद को ही अक्षुन्न रखने का सबक लेना पड़ेगा. आखिरकार यह स्थापित तथ्य है कि भाजपा छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश,गुजरात जैसे उन्ही राज्यों में मज़बूत है जहाँ केवल राष्ट्रीय दलों का अस्तित्व है. साथ ही उसको अपने अवसरवादी सहयोगी दलों को पहचानना होगा. आज आप हरियाणा का परिणाम देख लें,वहाँ अगर चौटाला और भाजपा को मिले सीटों को मिला दें और एक-दुसरे द्वारा बाँट लिए गए वोटों का आकलन करे तो हो सकता है तस्वीर दूसरी बनती दिखाई दे.लेकिन भाजपा के कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराकर ऐन मौके पर साथ छोड़ जाने वाले दलों की पहचान कर अगर पार्टी खुद ही उन समूहों से अपने को अलग कर ले तो शायद यह उसके लिए समीचीन होगा.हो सकता है.लडखडाते हुए ही

सही लेकिन हरियाणा या अरुणाचल जैसे राज्यों में खुद के बूते पर खडा होकर अपनी उपस्थिति दर्ज करना पार्टी के लिए भविष्य के लिए शुभ संकेत हो सकता है. लोकसभा और हालिया विधानसभा के चुनाव भाजपा के लिए यही सीख देता है कि वह कार्यकर्त्ता आधारित एक मज़बूत राष्ट्रीय दल है. भाजपा की सबसे बड़ी ताकत उसके पढ़े-लिखे और प्रबुद्ध समर्थक हैं.लेकिन यही भाजपा की कमजोरी भी है.उसके समर्थकों का जागरूक एवं बौद्धिक होने के कारण सुक्ष्म नजर दल के हर कार्य-कलाप पर रखते हैं. समर्थकों की भाजपा को अन्य दलों से अलग दिखने की अपेक्षा ही पार्टी के लिए चुनौती है. इन्ही चुनौतियों से पार पाना भाजपा का लक्ष्य होना चाहिए. पार्टी को चाहिए कि वह राष्ट्रवाद समेत अपने सभी मौलिक मुद्दों के साथ ही जनता के समक्ष उपस्थित हों,बिना परिणाम की चिंता किये हुए.ख़ास कर तात्कालिक लाभ-हानि की चिंता छोड़ कर. पार्टी के लिए जब भी होगा उसका अपना ही तरीका प्रभावी होगा ना कि जातिवाद क्सेत्रवाद आदि किसी नकारात्मक कारण पर ध्यान केन्द्रित करना.

इस चुनाव का रुझान देखते हुए रामायण का एक सन्दर्भ याद आ रहा है. हनुमान जी लंका में प्रवेश को तत्पर हैं, और सुरसा उनको निगल जाने को आतुर.पहले तो हनुमान जी सुरसा के मुँह से भी दुगना अपना रूप दिखाते जा रहे हैं लेकिन जब उनको महसूस हुआ की इस तरह वे अपने लक्ष्य का संधान नहीं कर पायेंगे तो विनम्रता पूर्वक उन्होंने मसक जैसा अपना रूप धर लिया और लंका में प्रवेश करने में सफल रहे. वास्तव में सुरसा की तरह बढ़ते क्षेत्रवाद का दानव हो या उनके अन्य हथकंडे, भाजपा विपक्षियो की खीची ऐसी नकारात्मक लकीर के समकक्ष कोई वैसी ही बड़ी लकीर खीच कर सफल नहीं हो सकती. वो जब भी सफल होगी अपने ही तरीकों से विनम्रता एवं राष्ट्रवाद रुपी मसक को आधार बनाकर.. हालिया सभी चुनावों की तरह इस चुनाव का सबक भी यही है.

 

लेखक इससे पहले “जयराम दास” नाम से लिखते रहे हैं.

– पंकज कुमार झा.

6 COMMENTS

  1. वाकई में एक सटीक और सार्थक विश्लेषण. अब वक्त आ गया है कि भाजपा वाले आपसी
    टांग खीन्चाई बंद करके आत्ममंथन करे….वरना यूं ही सत्ता से दूर रहने की आदत डालनी पड़ेगी. उसे
    कोंग्रेस की घाघ राजनीति को समझना होगा.सारगर्भित लेख के लिए बधाई.

  2. भा ज पा के चाहक पढे लिखे बुद्धिमान वर्गके होनेसे उनकी अपेक्षाए अधिक है। दूसरा भाजपा की आंतरिक अहमहमिका भी इसके लिए उत्तरदायी है। जो पैंतरा अन्य प्रादेशिक पक्ष प्रादेशिक हितोंके पक्षमे लेते हैं, भाजपा को राष्ट्र हित देखकर ही स्वीकार/अस्वीकार करना पडेगा। “आखिरकार यह स्थापित तथ्य है कि भाजपा छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश,गुजरात जैसे उन्ही राज्यों में मज़बूत है जहाँ केवल राष्ट्रीय दलों का अस्तित्व है.”—आपका यह विधान सही है। बालासाहब ठाकरे की शिवसेना का इतिहासभी निश्चित अंतर्विरोधोंसे अछूता नहीं है। सच देखे तो निष्कर्ष (१) प्रादेशिक पार्टीयां और प्रादेशिक निष्ठाएं (२)बुद्धिमानीसे कम भावनाके और प्रदेशिक हितोंके आभास( सच्चायी? पता नहीं) पर मतदान हुआ। (३)मनसे का भी योगदान रहा मतोंको घटानेमे।(४)नागरिक राष्ट्रीय कम पर महाराष्ट्रीय अधिक, हरयानवी अधिक साबित हुआ।(५) अरुणाचलमे तो भाजपा मेरी जानकारी के अनुसार, ठीक फैली हुयी भी नहीं है –वहां रूढ परम्परासे कांग्रेस स्थापित हितोंके लेन देन पर जीतते आयी है। दूर बैठे बैठे मेरी सोच कुछ गलत भी हो सकती है। किंतु और टिप्पणीयोंसे कुछ जानकारी पानेकी भी अपेक्षा है। भाजपासे बहुत अपेक्षा रखता हूं। शुद्धातिशुद्ध व्यवहार, भ्रष्टाचार रहित प्रतिमाभी और व्यवहारभी(मोदीको देख ले), आपसी कलहोंका न्यूनतम होना, और सारीकी सारी उंची अपेक्षाएं है। —-कांग्रेसको तो नकारात्मक मतोंसे जीतना था। —आला कमान पार्टीमे सारोंको एक हुकुम शाही तरिकेसे नियंत्रण मे रखती थी। दिखावेकी शांति थी। हुकुमशाहीका एक यही दिखावेका लाभ है। और सामान्य जनता भोली होती है। और मिडीया भी कुछ मात्रामे बीका होनेका मुझे संदेह हो रहा था। सच्चायी पता नहीं। —यह है मेरा संक्षेप। टिप्पणीयां पढनेके लिए उत्सुक हूं।–

  3. आप चाहे कोई भी वजह बता लें भाजपा की हार का पर सच तो यही है कि आज भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं है। अगर भाजपा चाहती तो प्याज और मंहगाई को मुद्दा बना चुनाव जीत सकती थी जैसा कि किसी समय कांग्रेस ने किया था। इसीलिए लोकतंत्र की हार से पहले भाजपा को अपनी हार की समीक्षा करनी चाहिए।

  4. Dear Pankajbabu,

    I feel that your findings and notings in this article are quite relevent with respect to BJP’s present situation at different levels in the state/ national politics. I sincerely hope that leadership/ decision-makers in BJP finds a little time to introspect. Perhaps its time that BJP should take a serious call on this matter and come up with a proper road-map for their future politics in India. Else, such an ideologically strong ‘Nationalist’ party will eventually get lost into the oblivion through it’s own contradictions of stand/ behaviour & its direction-less approach for short-term gains. However, if BJP’s present journey continues in the fashion as it looks now for some time, then it remains a big question that ‘how does BJP proclaim to be a political party…with difference?’

    Rightly said…… whichever party wins or lose in this political battlefield based on their respective election strategy and poll management, it remains a fact that DEMOCRACY has lost it’s sanctity in India and common people are the worst sufferers due to this present state of political anarchy. Its highly pathetic indeed !!!

  5. हर बार यही होता है के हार तो लोकतंत्र ही जाता है, अगर आपकी बातें ठीक हैं तो ऐसे लोकतंत्र की हार पर हम आँसू ही तो बहा सकते हैं. अच्‍छा विश्‍लेषण दिया है आपने, आखरी पंक्तियों का सबक भी लाजवाब है के
    ”वो जब भी सफल होगी अपने ही तरीकों से विनम्रता एवं राष्ट्रवाद रुपी मसक को आधार बनाकर.. हालिया सभी चुनावों की तरह इस चुनाव का सबक भी यही है.”

  6. लोकतंत्र एक जीवित अवधारणा है। उसे रोज विकसित होना चाहिए यदि विकास रुक जाता है तो वह मरने लगता है। वह रोज मर रहा है। चुनाव तो नाटक हैं।

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