राजनीतिक, राजनीतिकों पर नाजायज दबाव के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो ;सीबीआर्इ, का इस्तेमाल करते हैं, यह अब कोर्इ दबी-छिपी बात नहीं रह गर्इ है। सप्रंग-2 से द्रुमुक प्रमुख करुणानिधि द्वारा समर्थन वापिसी के बाद, केंद्रीय अन्वेशण ब्यूरो ने जिस तरह से एकाएक करुणानिधि के परिजनों के 19 ठिकानों पर छापामार कार्यवाही की उससे साफ जाहिर है कि पक्षपात बरता जा रहा है। इस एक हमले से केंद्र सरकार ने एक साथ दो बड़े नेताओं को सबक सिखाने का काम किया है। प्रत्यक्ष तौर से यह बात भले ही करुणानिधि पर किया गया हो, लेकिन इसका असर मुलायम सिंह पर भी पड़ा है। जाहिर है, इस हमले के बाद दोनों नेता नरम पड़ गये हैं। इस नरमी से इन नेताओं की भी कमजोरी जाहिर होती है। यहां यह सवाल खड़ा होता है कि जब आर्थिक गड़बडि़यां की गर्इ है तो सीबीआर्इ की जांच को क्यों प्रभावित किया जाए ?
सीबीआर्इ के इस्तेमाल की बात कोर्इ नर्इ नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष के जितने भी राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय दल हैं, लगभग सभी परोक्ष-अपरोक्ष रुप से सत्ता में हिस्सेदारी कर चुके हैं और सत्ता से बाहर होने के बाद सत्ता पक्ष पर सीबीआर्इ का दुरुपयोग करने का आरोप लगाते रहे हंै। मसलन अपरोक्ष रुप से वे अपने ही अनुभव प्रकट करते हैंं। संसद के पिछले सत्र में एफडीआर्इ पर महाबहस के दौरान सपा और बसपा के मतदान में हिस्सा नहीं लेने पर सुषमा स्वराज ने संसद में बयान देते हुए कहा था कि यह स्थिति एफडीआर्इ बनाम सीबीआर्इ की लड़ार्इ बना देने के कारण उत्पन्न हुर्इ है। इसी घटनाक्रम के बाद सीबीआर्इ के पूर्व निदेशक उमाशंकर मिश्रा ने भी एक बयान देकर आग में घी डालने का काम किया था। उन्होंने कहा था कि 2003 से 2005 के बीच जब वे सीबीआर्इ प्रमुख थे, तब उत्तरप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और उनसे जुड़ा ताज कारीडोर मामले की जांच का प्रकरण उनके पास था। इस सिलसिले में मायावती के खिलाफ आय से अधिक संपतित मामले की जांच चल रही थी। जांच में हमने पाया कि मायावती के माता-पिता के बैंक खातों में इतनी ज्यादा रकम जमा थी, कि उनकी आय के स्त्रोत की पड़ताल जरुरी थी, लेकिन केंद्र के दबाव के सामने वे निष्पक्ष जांच नहीं कर पाए। मसलन जांच लटका दी गर्इ। यहां गौरतलब है कि मार्च 1998 से 2004 तक केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार थी और 22 मर्इ 2004 को प्रधानमंत्री मनमोहन की सरकार वजूद में आर्इ, जो अभी भी वर्तमान है। मसलन संप्रग और राजग दोनों ने ही अपने हितों के लिए सीबीआर्इ का दुरुपयोग करते हैं।
मिश्रा ने आगे यह भी कहा था कि ‘यह सच है और इसे मैं नहीं छिपाउंगा। जब हम बड़े राजनेताओं के खिलाफ जांच करते हैं, तो प्रगति प्रतिवेदन लटकाने या जांच पूरी हो चुकने के बावजूद संपूर्ण जांच प्रतिवेदन न देने अथवा उसे किसी खास तरीके से प्रस्तुत कराने का पर्याप्त दबाव बनाया जाता है। इसीलिए इसकी साख बरकरार रखने के लिए अन्ना हजारे लगातार मांग कर रहे हैं कि इस संगठन को पूरी तरह स्वतंत्र एवं स्वायत्त बनाया जाए। जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग और निंयत्रक एवं महालेखा निरीक्षक जैसे संस्थाएं हैं। लेकिन सरकार केंद्र में किसी भी दल की आ जाए, वह सीबीआर्इ को स्वायत्त बना देने का आदर्श प्रस्तुत करने वाली नहीं है। क्योंकि लगभग सात साल केंद्र में राजग सत्ता में रह चुकी है, उसने भी सीबीआर्इ की मुष्कें केंद्रीय सत्ता से जोड़कर रखीं। यही वजह रही कि सीबीआर्इ बोफोर्स तोप सौदे, लालू यादव के चारा घोटाले, मुलायम सिंह यादव की अनुपातहीन संपतित और मायावती के ताज कारीडोर से जुड़े मामलों में कोर्इ अंतिम निर्णय नहीं ले पार्इ।
कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी कह चुके हैं कि सीबीआर्इ राजनीतिक दबाव में रहती है। इन सब बयानों और करुणानिधि के यहां डाले गए छापों से साफ होता है कि सीबीआर्इ को सुपुर्द कर देने के बाद गंभीर से गंभीर मामला भी गंभीर नहीं रह जाता। बलिक अपरोक्ष रुप से सीबीआर्इ सुरक्षा-कवच का ही काम करती है। इसीलिए बीते दो-तीन सालों में जितने भी बड़े घोटाले सामने आए हैं उनको उजागर करने में शीर्ष न्यायालय, कैग और आरटीआर्इ की भूमिका प्रमुख रही है, न कि किसी जांच एजेंसी की ? 2जी स्पेक्टम मामले में तो सीबीआर्इ को निष्पक्ष जांच के लिए कर्इ मर्तबा न्यायालय की फटकार भी खानी पड़ी। मुलायम सिंह के आय से अधिक संपतित के मामले में भी न्यायालय ने उल्लेखनीय पहल करते हुए, इन आषंकाओं की अपरोक्ष रुप से पुष्टि की है कि सीबीआर्इ राजनीतिक दबाव में काम करती है। 2007 में शीर्ष न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करते हुए आरोप लगाया गया था कि मुलायम व उनके परिजनों ने आय से अधिक संपतित हासिल की है। इस याचिका को मंजूर करते हुए अदालत ने सीबीआर्इ को जांच सौंप दी थी। जांच से बचने के लिए मुलायम सिंह ने यह कहते हुए कि उनके पास कोर्इ अनुपातहीन संपतित नहीं है, पुनर्विचार याचिका दाखिल कर दी। अब अदालत ने इसे खारिज करते हुए सीबीआर्इ को हिदायत दी है कि जांच रिपोर्ट सरकार को नहीं सौंपी जाए, सीधे अदालत में ही पेश की जाए। इसी तरह शीर्ष न्यायालय कोयला घोटाले की जांच को आगे बड़ा रही है। तय है कि अदालत कि निगाह में सीबीआर्इ की भूमिका निष्पक्ष नहीं रही है।
करुणानिधि के यहां छापों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि सीबीआर्इ के राजनैतिक दुरपयोग की पराकाश्ठा है। क्योंकि ये छापे ऐसे नाजुक दौर में डाले गये, जब करुणानिधि सरकार से समर्थन वापस लेकर उसकी बुनियाद हिला दी थी और मुलायम सिंह भी केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा के बेहूदें बयान को लेकर सरकार से खफा थे। सपा सांसदों ने इस मुददे को लेकर एक पूरे दिन संसद नहीं चलने दी थी। द्रमुक के 18 सांसदों की वापिसी के बाद सपा के 22 सांसद भी सरकार को बाहर से दे रहे समर्थन वापिसी का ऐलान कर देते तो सरकार का गिरना तय था, इसलिए केंद्र ने करुणानिधि के यहां छापे डालकर मुलायम सिंह को मनोवैज्ञानिक रुप से भयभीत कर दिया और वे चुप्पी साध गये।
लेकिन यहां सवाल उठता है कि यदि मुलायम और करुणानिधि आर्थिक घोटालों के चलते सीबीआर्इ की जद में हैं तो जांच क्यों न हो ? करुणानिधि के परिजनों को विदेशी वैभवशाली व मंहगी कारें रखने का षौक है, लेकिन वे जो निर्धारित आयात शुल्क है उसे नहंी चुकाते। इसी सिलसिले में डीआरआर्इ दो साल से इस मामले की जांच में लगा है, लेकिन राजनैतिक दबाव के चलते किसी नतीजे पर नही पहुंच पा रहा है। इसी शिथिलता को दूर करने के लिए सीबीआर्इ ने छापा डाला। कानून का तकाजा है कि यदि कर चोरी हुर्इ है तो कार्रवार्इ क्यों न हो ? कर चोरी में ताकतवरों को क्यों छूट दी जाए ? प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्यों सरकार को निर्दोष साबित करने में लगे है और सीबीआर्इ को दोषी ठहरा रहे है ? वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने क्यों पत्रकार वार्ता बुलाकर सफार्इ दी ? क्या ये हालात सरकार की सरकार चलाने की मजबूरी को जाहिर नहीं करते ? यहां नैतिकता के परिप्रेक्ष्य में सोचने की जरुरत है कि कानून से खिलवाड़ करके सरकार चलाना देश हित कतर्इ नहीं है। बलिक इस घटनाक्रम से तो सरकार की छवि न केवल धूमिल हुर्इ है, यह भी साफ हुआ है कि सप्रंग-2 सीबीआर्इ के ही अवैधानिक समर्थन से चल रही है।