वट सावित्री व्रत 25 मई, 2017

ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को सावित्री का व्रत किया जाता है. ऐसी मान्यता है कि जो भी स्त्री इस व्रत को करती है उसका सुहाग अमर हो जाता है। जिस तरह से सावित्री ने अपने अपने पति सत्यवान को यमराज के मुख से बचा लिया था उसी प्रकार से इस व्रत को करने वाली स्त्री के पति पर आने वाल हर संकट दूर हो जाता है।हिन्दू धर्म में वट सावित्री व्रत को करवा चौथ के समान ही माना जाता है। स्कन्द व भविष्य पुराण के अनुसार वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को किया जाता है, लेकिन निर्णयामृतादि के अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या को करने का विधान है। भारत में वट सावित्री व्रत अमावस्या को रखा जाता है। इस व्रत को संपन्न कर सावित्री ने यमराज को हरा कर अपने पति सत्यवान के प्राण बचाए थे।इस तरह सावित्री ने अपने सत और पतिनिष्ठा से न सिर्फ अपने पति के प्राण वापस पाए वल्कि अपने अंधे सास ससुर के नेत्र की दृष्टि और अपने पुत्र हीन पिता के लिए १०० पुत्र भी वरदान के रूप में पाए।

महाभारत के वन पर्व में इस कथा के बारे में विस्तार से चर्चा मिलती है। जब युधिष्ठिर अपने वनवास के दौरान द्रौपदी के दुःख से दुखी होकर मार्कण्डेय ऋषि से पूछते है। महर्षि ! क्या इतिहास में द्रौपदी के सामान दूसरी स्त्री भी रही है, जिसका जन्म तो हुआ हो राजकुल में लेकिन विधि के विधान से उसने असह्य कष्ट भोगे हों। इस पर मार्कण्डेय ऋषि ने युधिष्ठिर को सत्यवान और सावित्री की कहानी सुनाई।

इस वर्ष 2017 में वत सावित्री व्रत 25 मई 2017 (गुरूवार) को रखा जाएगा।

इस व्रत के दिन स्त्रियाँ वट( बरगद ) वृक्ष के नीचे सावित्री-सत्यवान का पूजन करती है।इस कारण से यह व्रत का नाम वट-सावित्री के नाम से प्रसिद्ध है।इस व्रत का विवरण स्कंद पुराण, भविष्योत्तर पुराण तथा निर्णयामृत आदि में दिया गया है।
हमारे धर्मिक ग्रंथों में वट वृक्ष में पीपल के वृक्ष की तरह हीं ब्रह्मा, विष्णु व महेश की उपस्थिति मानी गयी है तथा ऐसी मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर पूजन, व्रत आदि करने तथा कथा सुनने से मनवांछित फल मिलता है |
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जानिए वट सावित्री व्रत की पूजन विधि—-
सर्वप्रथम विवाहित स्त्रिया सुबह उठकर अपने नित्य क्रम से निवृत हो स्नान करके शुद्ध हो जायें। फिर नये वस्त्र पहनकर सोलह श्रृंगार कर लें। इसके बाद पूजन के सभी सामग्री को टोकरी अथवा डलिया / बैग में व्यवस्थित कर ले। तत्पश्चात् वट वृक्ष के नीचे जाकर वहाँ पर सफाई कर सभी सामग्री रख लें। सबसे पहले सत्यवान तथा सावित्री की मूर्ति को निकाल कर वहाँ स्थापित करें । अब धूप, दीप, रोली, सिंदूर से पूजन करें । लाल कपड़ा सत्यवान-सावित्री को अर्पित करें तथा फल समर्पित करें। फिर बाँस के पंखे से सत्यवान-सावित्री को हवा करें। बरगद के पत्ते को अपने बालों में लगायें। अब धागे को बरगद के पेड़ में बाँधकर यथा शक्ति 5,11,21,51, या 108 बार परिक्रमा करें इसके बाद सावित्री-सत्यवान की कथा पंडित जी से सुने तथा उन्हें यथा सम्भव दक्षिणा दें या कथा स्वयम पढे। फिर अपने-अपने घरों को लौट जायें। घर में आकर उसी पंखें से अपने पति को हवा करें तथा उनका आशीर्वाद लें। उसके बाद शाम के वक्त मीठा भोजन करें
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जानिए वट सावित्री व्रत की पूजन सामग्री —

सत्यवान-सावित्री की मूर्ति (कपड़े की बनी हुई)
बाँस का पंखा
लाल धागा
धूप
मिट्टी का दीपक
घी
फूल
फल( आम, लीची तथा अन्य फल)
कपड़ा – 1.25 मीटर का दो
सिंदूर
जल से भरा हुआ पात्र
रोली
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जानिए जानिए वट सावित्री व्रत में चना क्यों है जरूरी—

सावित्री और सत्यवान की कथा में इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे तब सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने सावित्री को ऐसा करने से रोकने के लिए तीन वरदान दिये। एक वरदान में सावित्री ने मांगा कि वह सौ पुत्रों की माता बने। यमराज ने ऐसा ही होगा कह दिया। इसके बाद सावित्री ने यमराज से कहा कि मैं पतिव्रता स्त्री हूं और बिना पति के संतान कैसे संभव है।
सावित्री की बात सुनकर यमराज को अपनी भूल समझ में आ गयी कि,वह गलती से सत्यवान के प्राण वापस करने का वरदान दे चुके हैं। इसके बाद यमराज ने चने के रूप में सत्यवान के प्राण सावित्री को सौंप दिये। सावित्री चने को लेकर सत्यवान के शव के पास आयी और चने को मुंह में रखकर सत्यवान के मुंह में फूंक दिया। इससे सत्यवान जीवित हो गया। इसलिए वट सावित्री व्रत में चने का प्रसाद चढ़ाने का नियम है।
जब सावित्री पति के प्राण को यमराज के फंसे से छुड़ाने के लिए यमराज के पीछे जा रही थी उस समय वट वृक्ष ने सत्यवान के शव की देख-रेख की थी। पति के प्राण लेकर वापस लौटने पर सावित्री ने वट वृक्ष का आभार व्यक्त करने के लिए उसकी परिक्रमा की इसलिए वट सावित्री व्रत में वृक्ष की परिक्रमा का भी नियम है।
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यह हैं मुख्य कारण या कथा वट सावित्री व्रत की पूजन—

सुबिख्यात तत्वज्ञानी राज ऋषि अश्वपति की एकमात्र कन्या थी। अपने वर के खोज में जाते समय उसने वनवासी निर्वासित राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान का वरण कर लिया। सावित्री मन ही मन अपने वरन से खुश वापस घर चली आई और अपने वरण का वृतांत पिता से सुना दिया। राजा अश्वपति के घर नारद जी पधारे थे। राजा ने पुत्री द्वारा वर्णित सत्यवान की कुंडली नारद जी से दिखाई। कुंडली देख कर नारद जी बोले ये लड़का तो अल्पायु है। इस साल के अंत में इसकी मृत्यु निश्चित है। राजा और देवर्षि दोनों ने सावित्री को बहुत समझाया लेकिन, सावित्री मन से सत्यवान को अपना पति मान चुकी थी अपने विचार से अडिग रही।

सावित्री सत्यवान से विवाह कर के राजमहल के सुख को छोड़कर वन में चली आई। वल्कल वस्त्र धारण कर वन पुष्पों से श्रृंगार कर अपने पति के अनुरुप आचरण करने लगी। वह मन से अंधे सास ससुर और पति की सेवा करती और जंगल में जो कन्द मूल मिलते उन्ही से अपना भरण पोषण करती।

सत्यवान के मृत्यु का दिन निकट आ पंहुचा। एक दिन सत्यवान जंगल में समिधा के लिए लकड़ियां काटने जाने लगे। आज सत्यवान के जीवन का अंतिम दिन है यह सोचकर सावित्री भी उनके साथ जंगल में जाने लगी। सत्यवान के बहुत समझने पर भी जब सावित्री नहीं मानी तो सत्यवान उसे अपने साथ ले जाने को तैयार हो गए। लकड़िया काटते हुए अचानक सत्यवान को सर में दर्द होने लगा और चक्कर आने लगा। वो कुल्हाड़ी फ़ेंक कर पेड़ से नीचे उतर आये। पति का सर अपने गोद में लेकर सावित्री अपने आँचल से हवा करने लगी।

थोड़ी देर में सावित्री ने दक्षिण दिशा से अपने ओर आते हुए भैंसे पर सवार एक पुरुष को देखा। इस देव पुरुष का काला शरीर सुन्दर अंगवाला था और इसने अपने हाथ में यम पाश लिए हुए थे। देखते देखते इस देवपुरुष ने सत्यवान को पाश में जकड लिया और सत्यवान के शारीर से अंगुष्ठ मात्र आकार वाले पुरुष को बलात बाहर खींच लिया। आर्त स्वर में अत्यन्त व्याकुल होकर सावित्री ने उस पुरुष से पूछा। हे देव ! आप कौन है और इस तरह मेरे ह्रदय के स्वामी को बल पूर्वक खींच कर कहा ले जा रहे हैं। सावित्री के पूछने पर यमराज ने उत्तर दिया मैं यम हूँ तुम्हारे पति की आयु क्षीण हो गयी है इसलिए मैं इसे ले जा रहा हूँ। तुम्हारे सतीत्व के तेज के सामने मेरे दूत टिक नहीं पाते इस लिए मैं स्वयं आया हूँ। हे तपस्वनी मार्ग से हट जावो और मुझे मेरा काम करने दो। यह कह कर यमराज दक्षिण दिशा की ओर जाने लगे।

सावित्री भी यम के पीछे पीछे जाने लगी। यमराज ने बहुत समझाया लेकिन सावित्री ने कहा जहां मेरे पति देव जा रहे है मैं भी वही जाउंगी। यमराज बार बार मन करते रहे लेकिन सावित्री पीछे पीछे जाती रही। पतिव्रता स्त्री के तप और निष्ठा से हारकर यमराज ने कहा की तुम अपने पति के बदले ३ वरदान मांग लो। पहले वर में सावित्री ने अपने अंधे सास ससुर की आँखे मांगी। यमराज ने कहा एवमस्तु कहा। दूसरे वरदान में उसने अपने पिता के सौ पुत्र मांगे। यमराज ने दूसरा वरदान भी दे दिया। अब तीसरे वरदान की बारी थी। इसबार सावित्री ने अपने लिए सत्यवान से तेजस्वी पुत्र का वरदान माँगा। यमराज एवमस्तु कह कर जाने लगे तो सावित्री ने उन्हें रोकते हुए कहा। पति के विना अगर पुत्र कैसे सम्भव। ऐसा कह सावित्री ने यमराज को उलझन में डाल दिया। बाध्य होकर यमराज को सत्यवान को पुनर्जीवित करना पड़ा।

इसतरह सावित्री ने अपने सत और पतिनिष्ठा से न सिर्फ अपने पति के प्राण वापस पाए वल्कि अपने अंधे सास ससुर के नेत्र की दृष्टि और अपने पुत्र हीन पिता के लिए १०० पुत्र भी वरदान के रूप में पाए।
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वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सावित्री भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी।
उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियां दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद सावित्री देवी ने प्रकट होकर वर दिया कि ‘राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।’
सावित्री देवी की कृपा से जन्म लेने की वजह से कन्या का नाम सावित्री रखा गया।
कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान थी। योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहां साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।
कहते हैं कि साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। सत्यवान अल्पायु थे। वे वेद ज्ञाता थे। नारद मुनि ने सावित्री से मिलकर सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए तब सावित्री ने घोर तपस्या की थी, जिसका फल उन्हें बाद में मिला था।
पूजा के समय टोकरी में सत्यवान तथा सावित्री की मूर्तियों की स्थापना करें। इन टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे ले जाकर रखें। इसके बाद ब्रह्मा तथा सावित्री का पूजन करें।

फिर निम्न श्लोक से सावित्री को अर्घ्य दें : –

अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।
पुत्रान्‌ पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥

तत्पश्चात सावित्री तथा सत्यवान की पूजा करके बड़ की जड़ में पानी दें।

इसके बाद निम्न श्लोक से वटवृक्ष की प्रार्थना करें —

यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले।
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मा सदा॥

–पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें।
–जल से वटवृक्ष को सींचकर उसके तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेटकर तीन बार परिक्रमा करें।
–बड़ के पत्तों के गहने पहनकर वट सावित्री की कथा सुनें।
–भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, नकद रुपए रखकर सासु जी के चरण-स्पर्श करें।
–यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुंचाएं।
–वट तथा सावित्री की पूजा के पश्चात प्रतिदिन पान, सिन्दूर तथा कुंमकुंम से सौभाग्यवती स्त्री के पूजन का भी विधान है। यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं।
–पूजा समाप्ति पर ब्राह्मणों को वस्त्र तथा फल आदि वस्तुएं बांस के पात्र में रखकर दान करें।

अंत में निम्न संकल्प लेकर उपवास रखें : —

मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।

–इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का स्वयं श्रवण करें एवं औरों को भी सुनाएं।

उद्देश्य– सैभाग्य की कामना के संकल्प से पूजा के बाद स्त्रियां अक्षय वट की परिक्रमा करती हैं और धागे के फेरे लगाती हैं। यदि आधुनिक संदर्भ में सोचा जाए तो कथा तो शायद सरल, सुगम तरीके से स्त्रियों को बात समझाने के लिए है और वृक्ष पूजा का अनुष्ठान वृक्ष से नाता जोड़ने के लिए। धरती पर हरे-भरे पेड़ रहें तभी तो स्त्री उनकी पूजा कर सकेगी

 

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