–मनमोहन कुमार आर्य
संसार के लोग सत्य व असत्य का विवेचन कर सत्य का ग्रहण नहीं करते और कुछ सौ या हजार वर्ष पुरानी परम्पराओं को ही आंखें बन्द करके प्राचीन व पुरातन स्वीकार कर लेते हैं। इसका अर्थ यह है कि वह अपनी बुद्धि का सदुपयोग नहीं करते या उनके अन्दर विवेचन करने की बुद्धि होती ही नहीं है। यदि वह बुद्धि से विवेचन करते व विद्वानों की सहायता लेते तो आज संसार में नाना प्रकार के मत-मतान्तर न होते। संसार में एक ही सत्य मत होता जिसकी सभी मान्यतायें सत्य की कसौटी पर पूर्णतः खरी होती और सभी मनुष्य उसी सत्य मत का अनुसरण कर रहे होते। वह आपस में अकारण व अपने मत के स्वार्थों को पूरा करने के लिए परस्पर लड़ते भिड़ते नहीं और एक मनुष्य का दुःख सब मनुष्यों का दुःख होता और दूसरे मनुष्यों का सुख सबका सुख होता। विचारों व मान्यताओं में मतभेद का कारण अज्ञान वा अविद्या होती है। इसे ज्ञान की कमी व मनुष्य पर काम, क्रोध व लोभ का प्रभाव भी कह सकते हैं। यह स्थिति महाभारत काल के बाद उत्पन्न होकर तेजी से वृद्धि को प्राप्त हुई। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध के समय तक के 1.96 अरब वर्षों तक संसार में सत्य पर आधारित ईश्वर प्रदत्त एक ही मत ‘‘वेद” था। वेद में तृण अर्थात् तिनके से लेकर ईश्वर पर्यन्त सभी सत्य विद्याओं का वर्णन व विधान है। वेद ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य स्वरूप बताता है जो वेदेतर किसी मत-मतान्तर में उपलब्ध नहीं होता। इसी से सभी मतों की अविद्या सिद्ध हो जाती है। अतः सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह किसी भी मत-मतान्तर को मानने के साथ वेद और वेद पर आधारित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित 11 उपनिषद, 6 दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति, ऋषि दयानन्द कृत यजुर्वेद तथा ऋग्वेदभाष्य एवं आर्य विद्वानों के वेदों के अवशिष्ट भाग पर वेदभाष्यों का अध्ययन अवश्य करें। ऐसा करने पर उन्हें अपने-अपने मत के अतिरिक्त वैदिक मत से सम्बन्धित अनेक तथ्यों का ज्ञान होगा जिससे उन्हें सत्य के ग्रहण की प्रेरणा होगी और वह सन्मार्ग को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर मनुष्य जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को जानकर उसकी प्राप्ति के लिये तत्पर हो सकेंगे।
वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनादि व नित्य परमात्मा ने चार ऋषियों को उत्पन्न कर अपने सर्वव्यापक एवं जीव के भीतर विद्यमान स्वरूप से उन ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा करके दिया था। इन ऋषियों से ही वेद ज्ञान के अध्ययन, अध्यापन तथा प्रचार की परम्परा चली थी। हमारे पूर्वज ज्ञानी थे एवं वेदों की रक्षा के प्रति सावधान थे। उन्हें ज्ञात था कि यह सृष्टि 4.32 अरब वर्षों तक चलनी है। इसलिये उन्होंने वेद ज्ञान की रक्षा और वेदों को विकार, प्रक्षेप व मिलावट से रोकने के लिए व्यापक प्रबन्ध किये थे। वेद के दस प्रकार के पाठ होते हैं जिन्हें हमारे वेद पाठी ब्राह्मण स्मरण व कण्ठ करते थे। इन पाठों के होते हुए किसी स्वार्थी विद्वान का यह सामथ्र्य नहीं था कि वह वेदों में प्रक्षेप व मिलावट कर सके जैसे कि उन्होंने मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में की है। 18 पुराणकारों ने तो वेद की मान्यताओं के विरुद्ध अविद्याजन्य मान्यताओं के समर्थन में इन पुराण नामी ग्रन्थों की महर्षि वेदव्यास जी के नाम पर रचना ही कर दी। कहा जाता है कि अट्ठारह पुराण महर्षि वेदव्यास के बनाये हुए हैं। यह कथन सर्वथा मिथ्या है। एक ही विद्वान द्वारा रचित ग्रन्थ में परस्पर विरोधी विचार व मान्यतायें नहीं हुआ करती। इन पुराणों में ऐसे एक दो व दस उदाहरण नहीं अपितु परस्पर विरोधी विचारों व मान्यताओं की भरमार है। ज्ञान की पुस्तकों में इतिहास नहीं हुआ करता। इतिहास उसे कहते हैं जिसमें जो जिस देश, काल, क्रम के अनुसार जो घटित हुआ है उन उन घटनाओं का पूर्ण निष्पक्षता के साथ यथोचित निर्भ्रांत वर्णन किया जाये। पुराणों की जो बातें हैं उनमें अनेक स्थानों पर तथ्यों के विपरीत अविश्वसनीय व कल्पनाप्रसूत कथन पढ़ने को मिलते हैं। पाठक पुराणों का अध्ययन इन तथ्यों का स्वयं ही अनुभव कर सकते हैं। शिवपुराण में विष्णु के प्रति निन्दात्मक कथन तथा विष्णु पुराण में शिव के प्रति आलोचना के कथन उपलब्ध होते हैं। भागवत में भी श्री कृष्ण के चरित्र को दूषित किया गया है। कृष्ण जी महाभारत के युद्ध के समय हुए थे। भागवत पुराण महाभारत के लगभग तीन हजार वर्षों व उसके भी बाद लिखा गया। लिखने वाले ग्रन्थकार ने ग्रन्थ का काल सूचित नहीं किया।
यह सुनिश्चित है कि महात्मा बुद्ध के काल में 18 में से एक भी पुराण नहीं था। बुद्ध जी के समय में मूर्तिपूजा नहीं होती थी। यदि यह पुराण होते तो महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध के अनुयायियों को मूर्तिपूजा आरम्भ करने वाला न माना जाता। ऋषि दयानन्द ने प्रश्नोत्तर कर बताया है कि मूर्तिपूजा जैनियों से चली और उन्होंने इसे अपनी अज्ञानता से चलाया था। हमें इसका कारण यह लगता है कि यह दोनों युगपुरुष व इनके अनुयायी ईश्वर को नहीं मानते थे। वेदों की यह दोनों निन्दा करते थे। वेदों में ईश्वर का सत्यस्वरूप वर्णित है। वेदों के प्रति पक्षपात व द्वेष के कारण इन्होंने ईश्वर का तिरस्कार किया। अब यह अपने इन दो महापुरुषों की पूजा करते तो कैसे करते। आर्य व परवर्तित नाम हिन्दू जाति के लोग तो सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, सृष्टिकर्ता ईश्वर की उपासना करते थे। ईश्वर को न मानने के कारण बौद्ध व जैन मत के अनुयायियों ने अपने इन महापुरुषों की मूर्तियों की पूजा आरम्भ की थी जिसे समय के साथ बढ़ते प्रभाव के कारण अल्पज्ञानी आर्यों ने भी अपना लिया था जिससे उनके हित व स्वार्थ भी सुरक्षित रहें।
इस प्रकार से संसार में अज्ञान बढ़ता रहा और अनेक अविद्यायुक्त मत-मतान्तर अस्तित्व में आते रहे। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के आविर्भाव तक यही स्थिति थी। वेद विलुप्त व अप्रचलित हो चुके थे। वेदों के सत्य अर्थ लोगों की पहुंच से बाहर थे। संस्कृत भाषा भी संकुचित होकर कुछ थोड़े से विद्वानों की भाषा रह गई थी। सद्धर्म का प्रचार पूर्णतः बन्द था। तत्कालीन अधिकांश विद्वान भी वेद के व्याकरण व नियमों से पूर्णतः परिचित व विज्ञ नहीं थे। अतः संसार में अविद्या का अन्धकार चरम सीमा पर पहुंच गया था जिसे ऋषि दयानन्द ने अपने विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से वेद व्याकरण वा वेदांगों की शिक्षा प्राप्ति के दिनों में जाना व समझा था। ऋषि दयानन्द ने अपनी शिक्षा पूर्ण कर वेदों को प्राप्त किया था और उनका गम्भीर अध्ययन कर वेदों में निहित सिद्धान्तों व मान्यताओं को स्थिर किया था। ऋषि दयानन्द ने वेदों के महत्व, उसके सत्यस्वरूप तथा उनमें निहित विद्याओं का प्रचार किया और अन्य मतों की मान्यताओं की समीक्षा कर उनकी अप्रासंगिकता से लोगों को अवगत कराया। सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों की रचना कर ऋषि दयानन्द ने सत्य और असत्य मान्यताओं का प्रकाश भी किया था। ऋषि दयानन्द के वेद प्रचार और भिन्न-भिन्न मतों की आलोचना, खण्डन तथा समीक्षाओं का प्रभाव सभी मतों पर पड़ा और उन्होंने भी एक सीमा तक तर्क को स्वीकार अपनी वेद विरुद्ध मान्यताओं को सत्य सिद्ध करने का कुछ-कुछ प्रयास किया है।
वेदों के ज्ञान पर विचार करें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि संसार में एक ही ईश्वर है जो सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, जीवों द्वारा मनुष्य योनि में जन्म-जन्मान्तरों में किए शुभाशुभ कर्मों के फलो को देने वाला, न्यायकारी, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, अनन्त एवं सृष्टिकर्ता आदि गुणों से सुभूषित है। उसी ने इस सृष्टि को संसार के सभी अनादि, नित्य, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम व चेतन जीवों को उनके कर्मों का फल प्रदान करने व उनके शुभ कर्मों के आधार पर सुख व मोक्ष आदि सुख प्रदान करने के लिये बनाया है। संसार के सभी जीव एक समान है। संसार के किसी व किन्हीं जीवों में किसी मत-विशेष का होना नहीं होता। सभी जीवन मत निरपेक्ष हैं जो मत-मतान्तरों की कट्टरता, अज्ञान व कुछ अन्य कारणों से जन्म लेने के बाद उनमें फंस जाते व लिप्त हो जाते हैं। मनुष्य जन्म लेने के बाद यह मनुष्यों द्वारा बनाई गई व्यवस्थाओं के कारण मत-मतान्तरों के अनुयायी बना दिये जाते हैं। इन्हें अध्ययन कर अपनी विवेक बुद्धि से सद्धर्म का चयन करने का अधिकार नहीं होता। ईश्वर ने तो सभी जीवों को मनुष्य योनि में जन्म दिया होता है। संसार में प्रचलित मत-मतान्तर मनुष्यों द्वारा बनाये गये हैं। कोई कुछ भी दावा करे परन्तु सत्य यही है कि मत-मतान्तर मानव निर्मित व मानव संचालित हैं।
मनुष्य जन्म का उद्देश्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों को भोगना और मोक्ष से सम्बन्धित सद्कर्मों को करते हुए दुःखों से मुक्त होकर सुख व आनन्दरूपी मोक्ष को प्राप्त करना होता है। संसार के सभी जीव व मनुष्य समान हैं और केवल और केवल एक ईश्वर की सन्तान हैं। संसार में केवल एक ही ईश्वर है, वह संख्या में दो, तीन, चार, आठ या दस नहीं है। एक ही ईश्वर है जो सर्वव्यापक, सर्वत्र एकरस एवं एक समान गुणों से युक्त है। सभी जीव जो मनुष्य आदि नाना योनियों में विचरण कर रहे हैं, वह सब एक ही ईश्वर की सन्तान हैं। सबको उसी को जानने के साथ अपनी आत्मा को जानना है और ईश्वर के उपकारों को जानकर अपनी कृतज्ञता को ईश्वर के गुणों का चिन्तन करते हुए अपनी भाषा में शाब्दिक भावों के द्वारा प्रकट करना है। सब मनुष्यों को शुभ कर्मों को करके जिनका विधान वेद, उपनिषद, दर्शन, स्मृति, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में हैं, समाधि प्राप्त कर ईश्वर का साक्षात्कार करना है एवं जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होना है। इन सिद्धान्तों के आधार पर सभी मत-मतान्तर अप्रसांगिक हो जाते हैं। सब मनुष्य ईश्वर की सन्तानें व सेवक सिद्ध होती हैं और ईश्वर सबका स्वामी निश्चित होता है। ईश्वर से हमारा व्याप्य-व्यापक तथा स्वामी-सेवक का सम्बन्ध है। हमें वेदाध्ययन कर ईश्वर के गुणों को जानकर उसका चिन्तन करते हुए उसका ध्यान करते हुए स्तुति-प्रार्थना-उपासना करनी है। इसी से हमारी आत्मा की शुद्धि होगी और इसी से हम सदाचारी बनकर ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं।
हमें यह भी जानना है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सब सत्यििवद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना ही सब मनुष्य का परमधर्म है। सत्य के ग्रहण करने और असत्य का त्याग करने में सब मनुष्यों को तत्पर रहना है। सबको सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने हैं। संसार का उपकार करना सभी विद्वान मनुष्यों का कर्तव्य है अर्थात् सबकी शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करनी है। सबको सबके साथ प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य वर्तना चाहिये। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। सभी मनुष्यों को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना है अपितु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी है। सबको वेद के सिद्धान्तों के आधार पर संगठित होकर सब मनुष्यों की उन्नति में प्रयासरत होना चाहिये और अपनी अपनी उन्नति में सब स्वतन्त्र रह सकते हैं। एक सर्वव्यापक सृष्टिकर्ता ईश्वर ही सब जीवों व प्राणियों का स्वामी व ईश्वर है। हमें मत-मतानतरों से ऊपर उठकर एक मतस्थ, एक विचार, एक सुख दुःख, एक समान हानि-लाभ की भावना वाला होने के साथ ईश्वर प्रदत्त संस्कृत भाषा का प्रचार व प्रसार भी करना है। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं। हम अनुभव करते हैं कि जब सभी मत-मतानतरों के लोगों में ईश्वर के सत्यस्वरूप व उसकी उपासना पद्धति में एकता, एकरूपता, समानता व अभिन्नता आ जायेगी तो तब मनुष्यों की सभी समस्याओं का अन्त हो जायेगा। वह दिन व काल विश्व के इतिहास में स्वर्णिम काल होगा। ऋषि दयानन्द विश्व को इसी लक्ष्य पर लेकर जाना चाहते थे। लोगों ने उनकी सदाशयता पर ध्यान नहीं दिया। ओ३म् शम्।