वैदिक संस्कृति व समृद्धि के प्रणेता – महाराज अग्रसेन

0
227

विनोद बंसल

द्वापर युग के अन्त और कलयुग के प्रारम्भ में एक ऐसे महापुरुष का प्रादुर्भाव हुआ जिसने न सिर्फ़ भारत में एक गणतांत्रिक शासन व्यवस्था, उत्तम सिंचाई व्यवस्था, समाजवाद, समरसता व समानता का पाठ पढाया वल्कि सच्चे राम राज्य की स्थापना कर ऐसे संस्कारी पुत्र दिए जो आज भी पूरे विश्व का भरण पोषण कर अपना कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। विश्व का शायद ही कोई कोना होगा जहां की प्रगति और उन्नति में किसी अग्रवाल की भूमिका न हो। अपनी मेहनत, लगन व बुद्धि कौशल के लिए प्रसिद्ध अग्रवाल समाज के लोग जहां भी है वे सब उन्हीं महाराज अग्रसेन के वंशज हैं।

वैश्य अग्रवाल परम्परा के पितृ पुरुष महाराज अग्रसेन कलयुग के प्रथम नरेश थे। महाराजा परिक्षित का राज्याभिषेक उनके पश्चात ही हुआ। ईशा से 3102 वर्ष पूर्व यानि आज से लगभग 5117 वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में जब महा भारत का समर आरम्भ हुआ उस समय बालक अग्रसेन किशोरावस्था में थे। यानि उनका जन्म आज से 5132-33 वर्ष पूर्व आश्विन शुक्ल प्रतिपदा (प्रथम शारदीय नवरात्र के दिन) हुआ। महाभारत के इस युद्ध में महाराज वल्लभसेन अपने पुत्र अग्रसेन तथा सेना के साथ पांडवों के पक्ष में लड़ते हुए युद्ध के 10वें दिन भीष्म पितामह के बाणों से बिंधकर वीरगति को प्राप्त हो गए थे।maharaja agrasen

इश्वाकु कुल के सूर्यवंशी प्रताप गढ़ नरेश महाराज वल्लभदेव के पुत्र के रूप में जन्मे महाराज अग्रसेन का जीवन सदा लोक कल्याण में ही बीता। उन्होंने राज्य में शान्ति स्थापना हेतु क्षत्रिय वृत्ति को त्याग कर वैश्य वंश की स्थापना कर पशु-बलि की कुप्रथा का अन्त किया। रामचरित मानस की चौपाई “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी” उनके राज्य का आदर्श था।

समयानुसार युवावस्था में उन्हें राजा नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में शामिल होने का न्योता मिला। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेकों राजा और राजकुमार आए थे। यहां तक कि देवताओं के राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो वहां पधारे थे। स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डाल दी। यह दो अलग-अलग संप्रदायों, जातियों और संस्कृतियों का मेल था। जहां अग्रसेन सूर्यवंशी थे वहीं माधवी नागवंश की कन्या थीं।

महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। उनका मानना था कि किसी भी चीज का घोर अभाव और लाचारी व्यक्ति को अपराध की ओर प्रेरित करती है। इसलिए उन्होंने अभाव मुक्त और शौर्य युक्त समाज का निर्माण किया। सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासी उसे एक रुपया व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थान व व्यापार का प्रबंध हो जाए।

महाराज ने अपने राज्य को 18 गणों में विभाजित कर अपने 18 पुत्रों को सौंप उनके 18 गुरुओं के नाम पर इन गोत्रों की स्थापना की। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। महाराज अग्रसेन ने राज्य के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली एक समिति बनाई जिसकी सहमति से ही राज्य के नियम व योजनाएं बनाई जाती थीं। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं 18 गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज भी हमें भारतीय लोकतंत्र के रूप में दिखाई पडता है।

उन्होंने परिश्रम और उद्योग से धनोपार्जन के साथ-साथ उसके समान वितरण और आय से कम खर्च करने पर बल दिया। जहां एक ओर वैश्य जाति को व्यवसाय का प्रतीक तराजू प्रदान किया वहीं दूसरी ओर आत्म-रक्षा के लिए शस्त्रों के उपयोग की शिक्षा पर भी बल दिया। उनका मानना था कि राज्य की रक्षा का कार्य सिर्फ़ क्षत्रिय वर्ग तक सीमित न रहे अत: देश के हर नागरिक के लिए अनिवार्य शस्त्र शिक्षा देकर राष्ट्र रक्षार्थ सभी को सर्वथा तत्पर रहने के लिए प्रेरित किया। उनके राज्य में सभी को शस्त्र धारण करने का अधिकार था।

उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ रचाए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशु बली पर रोक लगा दी। यज्ञ में हिंसा का सर्वथा त्याग कर राज्य की प्रजा को केवल शुद्ध सात्विक व शाकाहारी भोजन की ओर लौटाया। मांसाहार को पूर्णत: निषेध घोषित कर अहिंसा और सत्य को राज्य का सबसे बढा धर्म बनाया। इसीलिए, आज भी अग्रवाल समाज सर्वथा हिंसा से दूर ही रहता है।

महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। उन्होंने वैदिक सनातन आर्य (अग्र) सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य में कृषि, व्यापार, उद्योग व गौ-पालन के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया। देश में जगह-जगह अस्पताल, स्कूल, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि अग्रसेन के जीवन मूल्यों व मानव आस्था के प्रतीक हैं। एक निश्‍चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए।

आर्य यानि श्रेष्ठ शब्द से ही आगे सेठ शब्द बना जिस कारण अग्र बन्धुओं को सेठ भी बोला जाता है। स्वहित को परे रखकर जनहित के लिए समर्पित ऐसी महान विभूति को शत्‌-शत्‌ नमन‌।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,708 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress