विनाशकाले विपरीतबुद्धि

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राजीव गुप्‍ता

देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए जो आवाज उठी है उसे दबाने की कोशिश करने वाले और सत्ता के मद में चूर सत्ताधारियों के लिए अगर यह कहा जाय कि ” विनाशकाले विपरीतबुद्धि ” तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अपितु भारतीय चिंतको का यह ब्रह्म वाक्य आज सौ फीसदी सच होता दिख रहा है !

त्रेता युग में, जिस प्रकार मंदोदरी ने हठ छोड़ने के लिए रावण को लाख समझाया परन्तु जब वो दम्भी रावण न माना तो मंदोदरी खुद ही अपने मन को समझाने लगी कि अब तो बिधाता ही प्रतिकूल हो गए है !

मंदोदरी ह्रदय कर चिंता ! भयऊ कंत पर बिधि बिपरीता !! ( सुन्दर काण्ड ) 

( मंदोदरी ह्रदय में चिंता करने लगी की पतिपर बिधाता प्रतिकूल हो गए है ! )

उसी प्रकार इस दम्भी सरकार ने किसी की नहीं सुना ! उनके इस कुकृत्य का फ़ल तो समय के गर्भ में है ! परन्तु इन दम्भियों ने खुद अपने को कटघरे में खड़ा कर लिया !

इतिहास अपने को दोहराने को आतुर है, परन्तु इन प्रधानमंत्री के सलाहकार और सत्ताधारी वकीलों को सड़क और संसद के शोर में कोई फर्क दिखाई नहीं देता ! सत्ताधारी यह भूल गए कि अनशन से ही आँध्रप्रदेश और पंजाब जैसे राज्य बने थे ! परन्तु अनशन के नाम पर इस बार उन्होंने सीधी टक्कर उस आम जानता से लिया है जो स्वयं जनार्दन है और जिसका प्रतिनिधित्व एक फकीर कर रहा है ! इतिहास साक्षी है कि जब – जब भी किसी संत ने समाज को जगाकर अन्याय के खिलाफ लड़ने का बीड़ा उठाया तब-तब समाज ने भगवान राम के रूप में , छत्रपति शिवाजी महाराज के रूप में अपना नेता पाया ! फकीर बिना किसी स्वार्थ के जब अपने पागलपन पर उतरता है जैसा कि सत्ता पक्ष के एक नेता ने कहा, बदलाव निश्चित हो जाता है ! कल तक ये सत्ताधारी बिना शर्त अनशन के लिए इजाजत ना देकर अपनी ताल ठोंक रहे थे परन्तु अब यही सत्ताधारी आज घुटनों के बल , अपनी नाक रगड़ते हुए उसी पागल फकीर के आगे नतमस्तक हो रहे है ! संविधान का हवाला देकर ये सत्ताधारी जनता के अधिकारों का चीर हरण करते हुए अपने जनार्दन अर्थात जनता को गुमराह कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहते थे जिसे जनता ने भांप लिया और इन्हें इनके खतरनाक मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया ! और उसी आम आदमी ने अपनी शक्ति दिखाई जिसकी आवाज ये अपने अत्याचार से दबाना चाहते थे ! ये लगातार चालें चलते रहे और मुह की खाते हुए एक के बाद एक गलत फैसले लेकर इन्होने खुद अपनी भ्रष्टाचारी और अत्याचारी लंका को जलाने का इंतजाम कर लिया है जैसे कभी त्रेता युग में रावण ने किया था !

रहा न नगर बसन घृत तेला ! बाढी पूंछ कीन्ह कपि खेला !! ( सुन्दर काण्ड ) 

( घी , तेल हनुमान जी की पूंछ पर लपेट कर , लंका को जलाने का पूरा बंदोबस्त रावन ने खुद करवा दिया !)

इन्हें हनुमान जी की तरह जनता ने मूक होकर , विनती कर समझाने की बहुत कोशिश की और अपनी सहनशक्ति का परिचय देती रही , परन्तु रावण की तरह ये सत्ताधारी लोग अपने दंभ में इतने मतवाले हो गए इन्हें किसी की भावना और मूक भाषा समझ नहीं आई !

बिनती करूँ जोरी कर रावण ! सुनहु मान तजि मोर सिखावन !! ( सुन्दर काण्ड ) 

हनुमान ने कहा , हे रावण ! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ , तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो !

सत्ता के पास अब एक ही नेता है जिन्होंने विभीषण की तरह रावण रूपी इन सत्ता – मतवाले वकीलों को वर्तमान हालत से निपटने का गुर जरूर बताया होगा , परन्तु विदेशों में पढ़े और अंग्रेजी बोलने वाले वकीलों ने अपनी दलीलों से उन्हें भी चुप करवा दिया होगा ! इस समय इन सत्ता मतवालों को जो भी सही बात बताएगा वो इनकी नजरों में दोषी होगा ऐसा जान पड़ता है ! इन्होने अपना संतुलन खो दिया है ! तभी उलटे – उलटे फैसले लेकर खुद फसते जा रहे है !

जहाँ सुमति तहां सम्पति नाना ! जहाँ कुमति तहां बिपति निदाना !!

तव उर कुमति बसी बिपरीता ! हित अनहित मनहूँ रिपु प्रीता !! ( सुन्दर काण्ड ) 

( बिभीषण कहते है कि – जहा सुबुद्धि रहती है वहां नाना प्रकार की सम्पति ( सुख की स्थिति ) रहती है और जहाँ कुबुद्धि है वहां परिणाम में विपत्ति ( दुःख की स्थिति ) रहती है !

आपके ह्रदय में उल्टी बुद्धि आ बसी है ! इसी से आप हित को अहित को और शत्रु को मित्र मान रहें है !)

तात चरन गहि मागऊँ रखाहूँ मोर दुलार !

सीता देहूं राम कहूँ अहित न होई तुम्हार !! 40 !! ( सुन्दर काण्ड ) 

( बिभीषण कहते है कि – हे तात ! मै चरण पकड़कर आपसे भीख मांगता हूँ ( विनती ) करता हूँ की आप मेरा दुलार रखिये ( मुझ बालक के आग्रह को स्नेह पूर्वक स्वीकार कीजिये ) ! श्री राम जी को सीता जी दे दीजिये , जिससे आपका अहित न हो !

सुनत दसानन उठा रिसाई ! खल तोही निकट मृत्यु अब आई !! ( सुन्दर काण्ड ) 

यह सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला रे दुष्ट ! अब मृत्यु तेरे निकट आ गयी है ! )

अब तो यहाँ तक सुनने में आ रहा है कि मंदोदरी की तरह इनके अपने भी इन्हें कोसने लगे है !

निकट काल जेहि आवत साईं ! तेहि भ्रम होई तुम्हारिहि नाईं !! ( लंका काण्ड ) 

( मंदोदरी कहती है कि – हे स्वामी ! जिसका काल ( मरण-समय ) निकट आ जाता है , उसे आप की तरह ही भ्रम हो जाता है ! )

आम जनता तो अब अंगद की तरह चीख चीखकर कह रही है कि –

मरू गर काटि निलज कुलघाती ! बल बिलोकी बिहरति नहि छाती !! ( लंका काण्ड ) 

( अंगद कहते है कि – अरे निर्लज्ज ! अरे कुल्नाशक ! गला काटकर ( आत्म हत्या करके ) मर जा ! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती ! )

इन सत्ता – मतवालों की लंका तो जल गयी ! लेकिन इस कुकृत्य से अब इनके अपने ही डर कर इनसे ही पूछने लगे है कि –

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका ! जब तें जारि गयऊ कपि लंका !!

निज निज गृहं सब करहि बिचारा ! नहीं निसिचर कुल केर उबारा !! ( सुन्दर काण्ड ) 

( लंका को जबसे हनुमान जी जलाकर गए तबसे राक्षस भयभीत रहने लगे ! अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं की राक्षस कुल की रक्षा का अब कोई उपाय नहीं हैं ! )

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