देवांशु मित्तल
बचपन याद करता हूँ तो याद आता है के कृष्ण मेरे लिए वैसे नही थे जैसे आज है. मै कृष्ण को आज की भाँति महान बुद्धिजीवी नही बल्कि गोपियों के साथ नृत्य करने वाला एक साधारण ग्रामीण मानता था. लेकिन एक बार आस्था चैनल पर एक भजन गायक को देखा. वह गायक निरंतर एक ही राग पर “हरे कृष्ण” गा रहा था. बंद आँखों से गाते-गाते एकाएक उस गायक के आँसू गिरने लगे. उसका ये मार्मिक गीत सुनकर असंख्य अन्य सुनने वाले भी रोने लगे. टीवी पर ये सब देखते हुए मेरे पिता भी रोने लगे. मैने जीवन में पहली बार किसी को इतनी अपार श्रद्धा से गाते सुना था. उस गीत में कृष्ण के दर्शन की अतृप्त प्यास थी.
उन लगातार आँसुओं से मन में एकमेव्य सवाल कौंधा,”ये कौन है जो इतनी व्याकुलता से गोपियों के साथ खेलने वाले एक साधारण ग्रामीण के दर्शन करना चाहता है?” पिता जी से उत्तर मिला तो पता चला इनका नाम है विनोद अग्रवाल. 12 साल की आयु में ही संगीत का अध्ययन शुरू किया. माता-पिता भी कृष्ण भक्त थे तो स्वाभाविक रूप से ही कृष्ण को समझने लगे और जैसे-जैसे कृष्ण को समझने लगे, कृष्ण से प्रेम भी करने लगे. 20 वर्ष की आयु में ही विवाह हुआ और कृष्ण की ही इच्छा से जीवन संगिनी भी कृष्ण भक्त ही मिली. अब श्री विनोद को हर प्रकार से समर्थन हासिल था.
सन् 1978 में हर रविवार को श्री विनोद ने अपने बड़े भाई के दफ्तर पर हरी नाम संकीर्तन करना शुरू किया और 1979 में अपने गुरू श्री मुकुंद हरी जी महाराज से दीक्षा ली. विनोद जी के गुरु जी की ये इच्छा थी कि विनोद दुनिया भर में हरी नाम का प्रचार करे. गुरु इच्छा को अपना साध्य मानते हुए उन्होने 1993 में देश के अलग-अलग शहरों में निशुल्क भजन करना शुरू किया. श्याम के इस दीवाने का ये जग ऐसा दीवाना हुआ कि देखते ही देखते विनोद जी ने 1800 से उपर संकीर्तन किए और उनसे एक कीर्तन कराने के लिए लोगों को दो-दो साल इंतज़ार करना पड़ता था. उनके भजन का जादू केवल भारत ही नही बल्कि यूरोप-अमरीका समेत पूरी दुनिया तक पहुंचा.
हिंदी, पंजाबी और उर्दु में असंख्य भजन लिख चुके विनोद अग्रवाल को “संकीर्तन सम्राट” की उपाधि समेत कई पुरस्कार दिए गए. लेकिन शायद ही कभी विनोद इन सब भौतिक तत्वों से संतुष्ट हुए हो. उनके भजनों में कृष्ण दर्शन की तृप्ति कभी कम नही हुई. हर भजन नें परम पिता परमेश्वर से मिलन की चाह, आँखों से लगातार बहता जल मानो भक्ति काल का मुखर चित्रण कर रहे हो. यहाँ तक कि उन्होने ये इच्छा भी जताई कि वे कृष्ण की नगरी वृंदावन में ही देह त्यागें. ऐसा ही हुआ भी, मथुरा में ही भजन करने पहुँचे तो सीने में दर्द की शिकायत हुई और दो दिन वेंटिलेटर के सहारे रहने के बाद संसार को अलविदा कह गए. माधव अपने परम भक्त को अपने श्री चरण में स्थान दें.
उन लगातार आँसुओं से मन में एकमेव्य सवाल कौंधा,”ये कौन है जो इतनी व्याकुलता से गोपियों के साथ खेलने वाले एक साधारण ग्रामीण के दर्शन करना चाहता है?” पिता जी से उत्तर मिला तो पता चला इनका नाम है विनोद अग्रवाल. 12 साल की आयु में ही संगीत का अध्ययन शुरू किया. माता-पिता भी कृष्ण भक्त थे तो स्वाभाविक रूप से ही कृष्ण को समझने लगे और जैसे-जैसे कृष्ण को समझने लगे, कृष्ण से प्रेम भी करने लगे. 20 वर्ष की आयु में ही विवाह हुआ और कृष्ण की ही इच्छा से जीवन संगिनी भी कृष्ण भक्त ही मिली. अब श्री विनोद को हर प्रकार से समर्थन हासिल था.
सन् 1978 में हर रविवार को श्री विनोद ने अपने बड़े भाई के दफ्तर पर हरी नाम संकीर्तन करना शुरू किया और 1979 में अपने गुरू श्री मुकुंद हरी जी महाराज से दीक्षा ली. विनोद जी के गुरु जी की ये इच्छा थी कि विनोद दुनिया भर में हरी नाम का प्रचार करे. गुरु इच्छा को अपना साध्य मानते हुए उन्होने 1993 में देश के अलग-अलग शहरों में निशुल्क भजन करना शुरू किया. श्याम के इस दीवाने का ये जग ऐसा दीवाना हुआ कि देखते ही देखते विनोद जी ने 1800 से उपर संकीर्तन किए और उनसे एक कीर्तन कराने के लिए लोगों को दो-दो साल इंतज़ार करना पड़ता था. उनके भजन का जादू केवल भारत ही नही बल्कि यूरोप-अमरीका समेत पूरी दुनिया तक पहुंचा.
हिंदी, पंजाबी और उर्दु में असंख्य भजन लिख चुके विनोद अग्रवाल को “संकीर्तन सम्राट” की उपाधि समेत कई पुरस्कार दिए गए. लेकिन शायद ही कभी विनोद इन सब भौतिक तत्वों से संतुष्ट हुए हो. उनके भजनों में कृष्ण दर्शन की तृप्ति कभी कम नही हुई. हर भजन नें परम पिता परमेश्वर से मिलन की चाह, आँखों से लगातार बहता जल मानो भक्ति काल का मुखर चित्रण कर रहे हो. यहाँ तक कि उन्होने ये इच्छा भी जताई कि वे कृष्ण की नगरी वृंदावन में ही देह त्यागें. ऐसा ही हुआ भी, मथुरा में ही भजन करने पहुँचे तो सीने में दर्द की शिकायत हुई और दो दिन वेंटिलेटर के सहारे रहने के बाद संसार को अलविदा कह गए. माधव अपने परम भक्त को अपने श्री चरण में स्थान दें.