विशाल सामाजिक आयोजन है कुंभ

0
207


भारत में चार स्थानों पर प्रति बारह वर्ष बाद पूर्ण कुंभ और छह साल बाद अर्धकुंभ की परम्परा हजारों सालों से चली आ रही है। कुंभ का धार्मिक और पौराणिक महत्व तो है ही; पर इसे केवल धार्मिक आयोजन कहना उचित नहीं है। वस्तुतः कुंभ एक विराट सामाजिक आयोजन भी है। भारतीय समाज व्यवस्था में जो परिवर्तन हुए हैं, उनके पीछे कुंभ की बड़ी भूमिका है।

आजकल लोग वायुयान, रेलगाड़ी, बस, कार या दुपहिया वाहनों से आकर गंगा में डुबकी लगाकर एक-दो दिन में लौट जाते हैं। कुंभ में पूरे समय रहने वाले तो दो प्रतिशत भी नहीं होंगे। पर पहले लोग पैदल या बैलगाडि़यों से आते थे और फिर लम्बे समय तक कुंभ में रहते भी थे। क्योंकि गंगा स्नान के पीछे बहुत गहरी धर्म भावना जुड़ी थी।

पर इस अवसर का उपयोग हिन्दू धर्म के प्रचार के साथ ही सामाजिक समस्याओं के बारे में चिंतन और मंथन पर भी होता था। साधु-संत अपने डेरों से साल भर पहले निकल पड़ते थे। वे रास्ते में पड़ने वाले गांव और नगरों में कुछ-कुछ दिन ठहरते थे। इससे गांव वालों को जहां उनके प्रवचन का लाभ मिलता था, वहां उन संतों को क्षेत्र की धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं की जानकारी मिलती थी।

कुंभ में आम लोग भी महीनों ठहरते थे। इनमें किसान, मजदूर, व्यापारी और कर्मचारी सब होते थे। सैकड़ों राजा, रजवाड़े, जमींदार और साहूकार भी आते थे। कुंभ में धार्मिक प्रवचन के साथ सामाजिक विषयों पर भी गहन चर्चा और विचार-विमर्श होता था। इसमें कुछ निर्णय भी लिये जाते थे।

कुंभ से लौटकर लोग इन निर्णयों की अपने गांव में चर्चा करते थे। साधु-संत कुंभ से लौटते हुए गांवों में रुकते और प्रवचन करते हुए अपने निवास पर पहुंचते थे। अर्थात इन हजारों साधु-संतों की आते-जाते लाखों लोगों से भेंट होती थी और कुंभ में हुए निर्णय पूरे देश में फैल जाते थे। ये प्रक्रिया हर छठे और फिर बारहवें साल में होती थी।

जैसे भारत में 25 वर्ष तक युवक ब्रह्मचर्य का पालन कर फिर गृहस्थ बनते थे। जब लड़का 25 साल का होगा, तो लड़की भी 18-20 साल की तो होगी ही; पर उसी भारत में फिर बाल विवाह क्यों होने लगे ? कारण साफ है। जब भारत में इस्लामी हमलावर आये, तो वे कुमारी कन्याओं को उठा लेते थे। ऐसे में सब साधु-संतों और समाज शास्त्रियों ने निर्णय लिया कि अब गोदी के बच्चों की ही शादी कर दी जाए। यद्यपि गौना किशोर या युवा होने पर ही होता था; पर विवाह के कारण लड़की के माथे पर सिंदूर सज जाता था। अतः हमलावर उसे बख्श देते थे।

ऐसे सामाजिक निर्णय कुंभ में ही होते थे; पर सैकड़ों सालों के इस्लामी प्रभाव के कारण लड़कियों की सुरक्षा के इस उपाय ने क्रमशः कुप्रथा का रूप ले लिया। इसलिए आज भी लाखों बच्चों की शादी कर दी जाती है। इसलिए साधु-संतों ने जैसे बाल और शिशु-विवाह को मान्य किया, वैसे ही अब इसे अमान्य भी करना चाहिए। इसका माध्यम भी कुंभ ही बन सकता है।

खानपान, छुआछूत, ऊंचनीच, पर्दा, लड़कियों को पढ़ने या बाहर न निकलने देना जैसी कई प्रथाएं अब कुप्रथा बन चुकी हैं। इन सब पर कुंभ में सख्त निर्णय हों तथा इन्हें न मानने वालों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। यद्यपि यह काम इतना आसान नहीं है। जैसे किसी प्रथा को बनते हुए सैकड़ों साल लगते हैं, वैसे ही उसे टूटते हुए भी समय लगता है; पर इसकी प्रक्रिया लगातार चलती रहनी चाहिए। तभी कुंभ मेलों की सामाजिक सार्थकता पूरी तरह सिद्ध हो सकेगी।

विजय कुमार

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here