ठिठुरता गहन सन्नाटा भीतर,
अति निज कमरों का एकान्त
अब और सुनसान –
वर्ष पर वर्ष बीत जाते हैं
पर जानें क्यूँ कोई दिन
एक वत्सर हों जैसे,
बीताते नहीं बीतते,
कोई दिन
क्यूँ नहीं बीतते ?
सीलन लगी दीवार पर
फफोले-से पलस्तर को कोई
छीलता रहता हो जैसे
एकान्त के सुनसान में
कुछ ऐसे ढलते हैं वह
दिशाविहीन
दु:खमय
दु:साध्य दिन ।
समय की अनावृत दीवारों पर
इतिहास के पलस्तर को छील-छील
कुछ मिलता है कया ? —
खुरदरी ईंटों के सिवा,
उखड़ी सीमेन्ट के सिवा ?
नाखुन उतर आते हैं
लहू बहता है, तब …
तब बहुत दर्द होता है न !
हर ईंट अन्य ईंटों से प्रथक
फिर भी दीवार से कोई
रहस्यमय
मौलिक संबंध जोड़्ती,
थामे रहती है उसको
समय की चार-दीवारी में …
किसलिए ? … किसलिए ?
निशाचर से घूमते हैं कमरों में
बिम्ब उन रातों के
जो परिपूर्णता तो क्या
परिपूर्णता की सम्भावना भी
खो चुकी हैं कब से,
सूक्षम, अति सूक्ष्म स्मृतियाँ
बुलबुलों-सी तैरती,
एकान्त के सुनसान को भंग करती —
कमरे की हवा की गन्ध
इस खंडहर में
हर ईंट की आयु कह देती है ।
जी हाँ, वह भी देखा है .. भगवान दया के सागर हैं न !
धन्यवाद ।
विजय निकोर
कभी कभी होता है ऐसा समय का पलस्तर सब ठीककर देता है।कमरों के सन्नाटे मुस्कुराने लगते हैं चहकने लगते हैं।
अच्छी कविता