जिस देश को ‘सोने की चिड़िया ’ कहा जाता था। जहाँ दूध की नदियाँ बहती थीं। उसी देश में अब दूध तो दूर दो बूँद पानी के लिए भी तरसना पड़ रहा है । क्योंकि प्रकृति द्वारा प्रदत्त इस अपार, अकूत और बहुमूल्य तोहफे का इंसान लगातार अपने स्वार्थ के लिए दुरूपयोग करता ही जा रहा है। जिसका फायदा चंद लोगों को मिल रहा है।
आज से सैकड़ों वर्ष पहले जब आज की तरह, हाइटेक इंजिनियर नहीं थे तब भी बेहतर जल प्रबंधन होता था। जबकि आज के समय जितनी समस्या नहीं है, उससे ज्यादा समाधान कर्ता उपलब्ध है,फिर भी समस्या विकराल होती जा रही है या यूँ कहें कि बनायी जा रही है। तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा जैसी भविष्यवाणियां वे कर रहे हैं जो प्रकृति पदत्त , गैस, कोयला, खनिज ,पेट्रोलियम, पानी ,जमीन, ,जैव विविधता, जंगल, आदि का भरपूर और बुरी तरह दोहन कर रहे हैं।
‘ जल ही जीवन है ’ इसीलिए आज यही सबसे अधिक कमाई का जरिया बन गया चुका है। शहरों ,महानगरों में ही नहीं अब गाँवों में भी बोतल बंद पानी को ही सबसे शुद्ध और पीने लायक पानी बना या बताकर 12 रूपये से लेकर 20 रूपये प्रति बोतल या कहीं – कहीं बाल्टी भर पानी के हिसाब से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बेचकर मुनाफा कमा रही हैं। यही नहीं अब तो कोई भी व्यापारी या कंपनी सतही जल और भूमि जल पर मालिकाना हक प्राप्त कर उसका मनमाना उपयोग कर सकता है। तथा उस जल से सिचाई , पेय ,घरेलू जल अपूर्ति ,उपयोग, व्यवसाय , मछली,उत्पादन, पन बिजली, मनोरंजन आदि सभी प्रकार के उपयोग के लिए पानी बेच सकता है। यहाँ तक कि समुद्री मछली उत्पादन एवं नमक उत्पादन के लिए भी पानी खरीदा और बेचा जा सकता है।
आज कार्पोरेट समूह और विश्व बैंक की मिली भगत का ही परिणाम है, कि जो जल संपूर्ण सृष्टि के लिए सर्वत्र उपलब्ध है तथा आज तक उस पर सिर्फ सेवा शुल्क ही लिया जाता था। अब उस पानी को बाजारी वस्तु बनाकर , उस पर कानूनी मिलकियत स्थापित की जा रही है।
विश्व बैंक की कोशिश कि – पानी को केन्द्रीय सूची में समाविष्ट कर पूरे देश में एक साथ जल नीति और तत्संबंधी कानून लागू किया जा सके , धीरे – धीरे मूर्त रूप ले रही है। विश्व बैंक के इस उद्देश्य और कोशिश का एक मात्र लक्ष्य पूँजीवादी व्यवस्था को मजबूत बनाना और कारपोरेट समूहों का हित संरक्षित तथा सुरक्षित करना है।
गंगा और अन्य नदियों के शुद्धिकरण के लिए चल रहे जनांआंदोलनों का लाभ उठाकर नदियों के पानी पर हक प्राप्त करने की कोशिशें जारी हैं। ताप, बिजली , जल उर्जा, परियोजना के लिए बांध व नदियों का पानी एवं उसका हक कंपनियों को बेचा जा रहा है। यहाँ तक कि विदर्भ में प्रस्तावित 132 ताप बिजली घर में से 55 से अधिक को पानी का अधिकार अब तक बेचा जा रहा है । भारतीय कृषि की सिचाई के लिए देश के कुछ राज्यों में विश्व बैंक के प्रोजेक्ट चलाये जा रहे हैं। पानी के निजीकरण से कितने लाभ हो सकते हैं। , यह दिखाने के लिए विदेशी विशेषज्ञों के दौरे भारतीय खर्चों पर कराने की होड़ लगी है। फलस्वरूप देश के महत्वपूर्ण महानगरों में घरेलू जल आपूर्ति का भी निजीकरण किया जा चुका है।
वर्तमान प्रधानमंत्री पानी की बर्बादी बचाने के लिए पानी की ऊंची कीमत लगाने की बात कर रहे हैं। आज के समय में पानी का धंधा लगभग सात हजार अरब डालर का है। वेद, शास्त्रों में वर्णित है कि गंगा के प्रवाह को ब्रह्मलोक से आने के बाद शिव ने अपनी जटाओं से रोक लिया था और बाद में भगीरथ के अनुरोध पर उन्होंने अपनी जटा से क्षीण धारा ही पृथ्वी पर छोड़ी थी जिसमें से अनेक धाराएँ विभाजित होकर अलग -अलग दिशाओं में गयी।
इनमें से तीन प्रमुख है- अलकनंदा ,मंदाकिनी और भागीरथी। इनमें से एक धारा पाताल चली गयी, जिसका नाम ‘भोगावती ’ हुआ। दूसरी स्वर्ग चली गयी । जो ‘ अलकनंदा ’ है और यही धारा स्वर्ग से उतरकर बद्रिकाश्रम से प्रवाहित होती है। तीसरी धारा भगीरथ का अनुगमन करती हुई देवप्रयाग आकर ‘ भागीरथी ’ कहलायी ।
देव एवं प्रकृति द्वारा प्रदत्त अपार पावन जलराशि का स्रोत गंगा की दुर्दशा किसी से भी छिपी नहीं है। प्रचलित मान्यता है कि बांध बनाकर जल रोकना किसी भी बहते स्त्रोत के लिए विनाशकारी है, लेकिन आज विकास की अंधी दौड़ में शामिल, भविष्य के प्रति लापरवाह, और वर्तमान में मूल्य, संस्कार एवं ज्ञानहीन हो चुके राजनीतिज्ञ लगातार बांध बनाकर ना केवल गंगा तथा सहायक नदियों का जीवन समाप्त कर रहे है, परंतु नदी तट के समस्त पर्यावरणीय अपघटकों में विनाशकारी परिवर्तन लाने में भी अपार सहयोगी भूमिका निभा रहे हैं। बांध बनाकर जल विद्युत पैदा करने के कारण प्राकृतिक जल स्त्रोत नदी, झरने सूखने लगने लगते हैं। साथ ही नदी का बड़ा भू-भाग सूख जाता है। तटवर्ती नगरों के पशु-पक्षी एवं मनुष्य जलाभाव एवं अन्य समस्याओं के शिकार होते हैं। इतना ही नहीं जब जल को प्राकृतिक धरती से हटाकर अप्राकृतिक सीमेंट वाली सतहों में प्रवाहित किया जाता है, तो वैसे भी उसकी गुणवत्ता में कमी आती है क्योंकि जब नदी अपने वेग से प्रभावित होती है, तब जल के अनेक दोष स्वत: समाप्त हो जाते हैं, किंतु उसके प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करने पर उसकी दोष निवारण क्षमता भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है।
आज पानी के पीछे पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। लेकिन शुद्ध पानी का तब भी अभाव बना है। और यह समस्या आगे चलकर और विकराल रूप लेगी, क्योंकि जल की शुद्धता से ज्यादा जरूरी है, मन की शुद्धता और सोच। जो आज बिल्कुल भी नहीं है।
महोदय,
मैने अपने शोध- हिंदी विश्व में पहले स्थान पर- प्रवक्ता में प्रकाशन हेतु निवेदन किया था.िस संबंध में लिए निर्णय से अवगत कराने की कृ्पा करें.
डा. नौटियाल
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