वी वांट मोर योर ऑनर

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श्रीराम तिवारी

इन दिनों जबकि सत्तासीन राजनीतिक गठबंधन और विपक्ष के सभी दल देश की जनता के कष्ट दूर करने के बजाय उसके बहाने एक- दूसरे पर कीचड उछालने में लगे हों , शाम-दाम -दंड-भेद से आगामी चुनाव जीतकर सत्ता में पहुँचने को बेकरार हों , लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तम्भ लगभग लकवाग्रस्त हो चुके हों, सिद्धान्तहीनता और मूल्यहीनता चरम पर हो ,राष्ट्र असुरक्षित हो तब लोकतंत्र के एक मज़बूत स्तम्भ के रूप में -न्यायपालिका का अवतरण कुछ इस तरह प्रतीत होता है जैसे धर्म् भीरुओं को श्रीमद भगवद गीता के इस श्लोक में प्रतीत होता है:-

‘ यदा -यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत!

अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम !!

तो हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि शायद स्थितियां उतनी बुरी नहीं हैं जितनी कल्कि अवतार के लिए जरुरी हैं शायद पापियों के पापों का घड़ा अभी पूरा नहीं भरा। या नए दौर में इश्वर भी कोई नए रूप मे शोषित,दमित,छुधित,तृषित जनता -जनार्दन का उद्धार करेगा! शायद भारतीय न्याय पालिका के किसी कोने से ‘सत्य स्वरूप -मानव कल्याण स्वरूप’ कोई तेज़ पुंज शक्ति अवतरित हो और इस वर्तमान दौर के कुहांसे को दूर कर दे।

यदि वास्तव में स्थितियां इतनी बदतर हैं जितनी की विपक्षी पार्टियां ,स्वनामधन्य स्वयम्भू समाज सुधारक या मीडिया का एक हिस्सा पेश कर रहा है, तो फिर ‘भये प्रगट कृपाला ,दीनदयाला ……”.का महाशंख्नाद तो कब का हो जाना चाहिए था और प्रभु कल्कि रूप में अब तक महा पापियों को यम पुर भेज चुके होते।दरसल में समसामयिक राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय चुनौतियों का आकलन अपने-अपने वर्गीय चरित्र और सोच पर आधारित है।अमीर और कार्पोरेट वर्ग की चिंता हुआ करती है की सरकारें हमेशा ऐंसी हों जो उनकी चाकरी करें और उनके मुनाफाखोरी वाले सिस्टम में दखल न दे। मध्यम और बुर्जुआ वर्ग की चिंता रहती है कि रूसो ,वाल्टेयर उनका हुक्का भरें याने देश के करोड़ों नंगे भूंखे ,बेघर ठण्ड में ठिठुरकर मरते रहें किन्तु उन्हें तो बस बोलने की ,लिखने की,हंसने की,रोने की आज़ादी चाहिए। याने उनकी कोई आर्थिक समस्याएं नहीं , सामाजिक राजनैतिक समस्या नहीं,अगर होगी तो वे स्वयम सुलझा लेंगे याने सरमायेदारों से उनका कोई स्थाई अंतर्विरोध नहीं वे तो सिर्फ अपने अभिजात्य मूल्यों की परवाह करते हैं और उसके लिए अपने ही वर्ग बंधुओं को जेल भिजवाने को भी तैयार हैं।बात जब राष्ट्र के मूल्यों की ,क़ानून के राज्य की,सर्वसमावेशी जन-कल्याणकारी निजाम की आती है तो वे अपने वर्गीय अंतर्विरोध भुलाकर तमाम झंझटों का ठीकरा देश की अवाम के सर फोड़ने के लिए भी एकजुट हो जाते हैं। दुनिया के तमाम राष्ट्रों में प्रकारांतर से वर्गीय द्वंदात्मकता का यही सिलसिला जारी है।लेकिन उन राष्ट्रों के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता जिन्होंने पूँजीवादी निजाम को सिरे से नकार दिया है और सामंतवाद को कुचल दिया है। ,लेकिन यह जरुर उल्लेखित किया जा सकता है कि वहां के समाजों का मानवीयकरण संतोषप्रद स्थिति में आ चूका है।इसके बरक्स पूंजीवादी ,अर्धसामंती, अर्धपूंजीवादी और अमेरिका के पिछलगू राष्ट्रों में सभी जगह वेरोजगार,भूमिहीन मजदूर-किसान पर संकट आन पड़ा है। भारत में नई आर्थिक व्यवस्था ने बस इतना ही कमाल किया है कि पहले 49 अरबपति थे अब शायद 70 हो गए है और गाँव में गरीब यदि 20 रुपया रोज कमाने वाला और शहर का गरीब 32 रुपया रोज कमाने वाला माना जाए, जैसा कि सरकारी सर्वे की रिपोर्ट बताती हैं तो उनकी तादाद देश में 50 करोड़ से अधिक ही है।इन 50 करोड़ नर-नारियों को ज़िंदा रहने के लिए रोटी कपड़ा मकान की जरुरत है। उन्हें किसी का कार्टून बनाने की या किसी और तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए न तो समय है और न समझ है। इस देश में खंडित राजनैतिक जनादेश की तरह खंडित अभिरुचियाँ , खंडित मानसिकता और खंडित आस्थाएं होने से परिणाम भी खंड-खंड मिल रहे हैं। यही वजह है कि न केवल क्रान्तिकारी विचार छिन्न-भिन्न होते जा रहे हैं अपितु नैतिक मूल्य भी विखंडित होते जा रहे हैं। चरमराती व्यवस्था में पैबंद जरुर लग रहे हैं और इन पैबंद लगाने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए।

फेसबुक पर टिप्पणी लिखने व उस टिप्पणी को पसंद करने के आरोप में मुंबई की दो लडकियों की गिरफ्तारी पर अब सुप्रीम कोर्ट ने भी गहरी नाराजी व्यक्त की है।मौजूदा चीफ जस्टिस श्रीमान ‘अल्तमस कबीर साहब की अगवाई में बड़ी बेंच ने अपनी कड़ी आपत्ति जाहिर की है कि किसी ने भी इस मामले में जनहित याचिका दायर क्यों नहीं की। हालांकि कोर्ट स्वयम संज्ञान लेने ही वाला था कि दिल्ली की श्रेया सिंघल ने ‘अभिव्यक्ति की आज़ादी’ के इस मसले को जन हित याचिका के रूप में पेश कर दिया और अब सभी दूर इस बात की चर्चा चल रही है की फेसबुक पर निरापद टिप्पणी के निहतार्थ अब सूचना प्रौद्दोगिकी एक्ट में तब्दीली की किस मंजिल तक जायेंगे? मुंबई में कुछ तत्वों ने कसम खा रखी है कि वे नहीं सुधरेंगे। उनके लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी, भारतीय संविधान,लोकतंत्र सब बकवाश है। मध्ययुगीन बर्बर डकेतों,हमलावरों और फासिस्टों का रक्त जिनकी शिराओं में बह रहा हो उनसे उम्मीद नहीं है की वे राष्ट्र की अस्मिता और क़ानून का सम्मान करेंगें। सुप्रीम कोर्ट के इस अप्रत्याशित निर्णय से देश में क़ानून का राज न्यूनाधिक ही सही कायम कायम तो हो सकेगा – जिन्होंने कल तक मुंबई को बंधक बना रखा था और पूरे देश को आँखे दिखा रहे थे अब वे देश और दुनिया के सामने हतप्रभ हैं। ये रुग्न मानसिकता वाले चाहे मुबई के नस्लवादी हों,चेन्नई के भाषावादी हों , उत्तरपूर्व के अलगाववादी हों या उगे वाम पंथी नक्सलवादी हों, सभी को काबू में करने का वक्त आ चूका है। यह सुअवसर सुप्रीम कोर्ट ने देश को अनेक बार उपलब्ध करवाया है ,देश की जनता को यह अवसर खोना नहीं चाहिए। भारतीय संविधान ,भारतीय मूल्य और देश के करोड़ों मेहनतकशों की श्रम शक्ति की अनदेखी करने वाले व्यक्ति,समूह या विचारधारा को निर्ममता से कुचल दिया जाना चाहिए। ताकि इस देश में भाषा,नस्ल,मज़हब और क्षेत्रीयता की बिना पर किसी शख्स का महिमा मंडन करने वाले नादान खुद अपने कृत्य पर पर शर्मिंदा हों।

पौराणिक मिथकों की अंध श्रद्धा ने कतिपय अकिंचनों को इस कदर अँधा कर दिया है कि प्रभु लीला हो रही है किन्तु प्रज्ञा चक्षुओं के अभाव में उसकी करनी को देख् नहीं पा रहे हैं। ,पापियों को तो बाकायदा यमपुर भेजा जा रहा है, कभी किसी साम्प्रदायिक अहमक पापी के मरने पर लाखों लोगों को दिखावे का शोक करते देखा जा सकता है। ईश्वर की महिमा पर आस्था पर और यकीन बढ़ता चला ही जा रहा है। निक्रष्ट परजीवी दिवंगत जब तक जिए फ़ोकट की खाते रहे, कभी भाषा के नाम पर,कभी क्षेत्रीयता के नाम पर,कभी क्रिकेट के नाम पर ,कभी फिल्म निर्माण में हस्तक्षेप के नाम पर कभी अपनी पारिवारिक दादागिरी के नाम पर आजीवन देश को ,सम्विधान को और डरपोंक जनता को ठगते रहे . इनकी करतूतों को जानते हुए भी लोग उनके चरणों में दंडवत करते रहे। जो व्यक्ति मरणोपरांत भी देश में झगडा- फसाद, रोड जाम ,शहर बंद कराने , अभिव्यक्ति पर पावंदी लगवाने को उद्द्यत हो, जो इतना स्वार्थी हो की अपने सगे भतीजे को भी गैर मानता हो वो पूरे मराठी समाज का शुभचिंतक और हितचिन्तक कैसे हो सकता है? निसंदेह उन्होंने अपने जीते जी कुछ देश भक्ति पूर्ण काम अवश्य किये होंगे। उनके अनुयाईयों की जिम्मेदारी है कि उनके तथाकथित महान कार्यों की सूची देश और दुनिया के सामने रखें ताकि वे लोग जो उनके अंत्येष्टि संस्कार के दरम्यान बेहद तकलीफ भोगते रहे,भयभीत होकर चुपचाप कष्ट उठाते रहे, वे भी महसूस करें कि उनकी तकलीफ उस महान पुरुष के लिए श्रद्धा सुमन थी। जो उन महात्मा के महान बलिदानों के सामने नगण्य थी। शहीद भगतसिंह ,शहीद चंद्रशेखर आज़ाद ,महात्मा गाँधी की तरह लोग उनके अमर बलिदानों को भी सदा याद रखेंगे।

जिनके स्वर्गारोहण पर पूरा महानगर कई दिनों तक जडवत रहा उनकी असलियत क्या है? यह इसलिए नहीं की लोग उन पर जान छिड़कते थे बल्कि इसलिए की कहीं किसी फसाद के शिकार न हो जाएँ या दूकान न लुट जाए सो लोग डरे सहमे हुए थे। इस घटना को फेसबुक पर महज एक सार्थक टिप्पणी के रूप में एक लड़की पेश करती है ,दूसरी कोई सहेली उस टिप्पणी पर ‘पसंद’ क्लिक करती है और ‘अख्खा मुंबई मय पुलिस गब्बरसिंह होवेला”” न केवल मुंबई ,न केवल महाराष्ट्र बल्कि पूरे भारत में ‘सुई पटक सन्नाटा’ धन्य हैं वे लोग जिन्होंने सहिष्णुता का ऐतिहासिक कीर्तीमान बना डाला।

किस के डर से ? इस घटना के बहाने संविधान ,राष्ट्र और उसकी अस्मिता में से कोई भी चीज साबुत नहीं छोड़ी गई। कांग्रेस और भाजपा अपने-अपने कर्मों से खुद ही असहज थे। कितु वामपंथ ने भी तो इस प्रकरण में सिवाय बयानबाजी के कुछ खास नहीं किया। धन्य हैं पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू-अध्यक्ष भारतीय प्रेस परिषद् . जिन्होंने खुलकर कहा कि बाल ठाकरे इस सम्मान के हकदार नहीं कि उनके शव को तिरंगे से विभूषित किया जाए या राजकीय सम्मान से नवाज़ा जाए। यदि यह सम्मान उन्हें दिया भी गया है तो उनके अनुयाईयों को हक़ नहीं की देश के क़ानून और नैतिक मूल्यों को ठेंगा दिखाएँ। अब भारत के महान सपूत सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस श्रीमान अल्तमस कबीर साहब ने भी दिल्ली की श्रेया सिंघल की याचिका को आधार मानकर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्र ‘ के साथ साथ देश की अस्मिता की रक्षार्थ याने राजनैतिक गुंडागर्दी पर नकेल कसने का बीड़ा उठाया है। हमें उन पर और सुप्रीम कोर्ट पर गर्व है। उधर बंगाल में ममता बनर्जी द्वारा और पोंडीचेरी में चिदमरम पुत्र के बहाने वहां की पुलिस द्वारा अभिव्यक्ति का गला घोंटा जाने पर भी जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने सवालिया निशाँ लगाकर, पूरी सत्यनिष्ठा और राष्ट्र्धर्मिता के साथ इस जर्जर -दिग्भ्रमित-भेडचाल वाले जन-मानस को जगाने का शानदार शंखनाद किया है उनका साधुवाद।सुप्रीम कोर्ट का कोटिशः नमन। हमें विश्वाश है कि जिस तरह से अतीत में जस्टिस बी आर कृष्ण अय्यर समेत महान न्यायविदों ने न केवल भारत राष्ट्र के संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों की रक्षा के लिए,न केवल प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए, न केवल फासिस्ट और साम्प्रदायिक तत्वों पर अंकुश लगाने के लिए, बल्कि देश के अश्न्ख्य शोषित -पीड़ित,दमित जनों के पक्ष में अपनी मेघा शक्ति का इस्तेमाल किया था, न केवल उनके आदर्शों तक अपितु उनसे भी आगे जाकर वर्तमान दौर में देश पर लादी जा रही कार्पोरेट दादगिरी और पर राष्ट्र परालाम्बिता के खिलाफ अपने बुद्धि चातुर्य और नितांत उच्च नैतिक मूल्यवत्ता का प्रयोग करेंगे।

देश के अमर शहीदों से उत्प्रेरित होकर देश के सर्वहारा वर्ग,मजदूर वर्ग और शोषित पीड़ित मेहनतकश जनता के हित में भी अपनी आवाज बुलंद करेंगे। उन नीतियों पर भी प्रश्न चिन्ह लगाने की कृपा करेंगे जिनसे अमीर और ज्यादा अमीर तथा गरीब और ज्यादा गरीब होते जा रहे हैं। आप महानुभाव वैसी ही कृपा दृष्टी बनाए रखें जैसे की अभी ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ‘ पर सहज संज्ञान लेकर न केवल देश में बढ़ती असामाजिकता पर रोक लगाने का काम किया अपितु दुनिया के सामने भारत का और भारतीय न्याय व्यवस्था का मान बढाया।

4 COMMENTS

  1. आदरणीय दीक्षित जी ,आदरणीय बांके जी और आदरणीय रमेश सिंह की महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाओं का सम्मान करता हूँ. आप सभी के विचार सृजनात्मक और बोधगम्य हैं.धन्यवाद.

  2. तिवारीजी,
    मुझे उम्मीद है अभी भी आपके दिमाग मे “अभिव्यकि की आजादी” पर लिखने के लिए बहुत कुछ होगा क्योकि प्रस्तुत लेख मे मूल विषय से अधिक हमारी व्यवस्था के ऊपर एकतरफा भड़ास निकालने का काम ज्यादा हुआ है|
    एक समय हुआ करता था जब कहा जाता था जो बुद्धिजीवी है वो क्रन्तिकारी भी है, और अपनी किसी ना किसी रूप मे व्यवस्था सुधार के लिए आहुति देता है, लेकिन अब सिर्फ आलोचनाओ रूपी आहुति से हवन ही नहीं संपूर्ण यज्ञ किया जाता है| और हम उम्मीद फिर भी ईथर मे नकारात्मक उर्जा कम होने की करते है| शास्त्र कहते है की स्रष्टि का विकासक्रम ही स्थिति सृजन (माया) का जिम्मेदार है और उपचार (अवतार) भी है|
    फिर भी लेख से आपने काफी कुछ दिया है, धन्यवाद|

  3. तिवारी जी आपने लिखा तो बहुत ज्यादा है,पर अफ़सोस यह है कि उसमे सार्थक विचार कहीं दब कर रह गया है.अभिव्यक्ति की आजादी और उस के लिए देश के हर कोने से उठती हुई आवाज यह अवश्य दर्शाती है कि अभी भी हम जीवित हैं,इसमें सर्वोच्च न्यायलय का हस्तक्षेप यह अवश्य दर्शाता है कि हमारी इन्साफ की प्रक्रिया अभी भी कायम है,पर क्या इतना ही काफी है?आपने अमीर को ज्यादा अमीर और गरीब को ज्यादा गरीब होते जाने पर भी चिंता व्यक्त की है,पर इसका समाधान क्या है?आप माने या न माने पर साम्यवाद और पूंजी वाद इसका समाधान नहीं दे सका है.साम्यवाद में भी कहीं न कही कुछ कमियां अवश्य थी ,जिसके चलते साम्यवादी सरकारें भी पूंजीवाद को अपनाने पर विवश हो गयीं.तब क्या सचमुच असली सुधार लाने के लिए भगवान् को अवतार लेना पडेगा? यह एक ऐसा प्रश्न है ,जिसका समाधान इस पीढी को ढूंढना ही पडेगा.

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