लेख

जातिभेद किस अवस्था में ?

-डॉ. मधुसूदन-  riot

आज एक संवेदनशील विषय पर लिखना चाहता हूं, पर बहुत बड़े कंधों पर खड़ा होकर, जिनके विषय में कोई पक्षपाती होने का विशेष संभव नहीं हो सकता। सर्व सामान्य अनुभव और निरीक्षण आपके सामनेभी है ही। उस पर आप भी सोचते चलिए। राष्ट्र हित की दृष्टि से मैं भी विचारना चाहता हूं। किसी भेदभावी वृत्ति से नहीं।

(एक) सारांश, जातिभेद की आज की अवस्था।

आज के आलेख का उद्देश्य जाति भेद के चार आधारों को जानना, उन आधारों की आज की स्थिति से अवगत होना, और (उनके संदर्भ में) विवेकानंद जी ने स्वतंत्र रूप से, विस्तृत विचार प्रस्तुत किए थे; उसमें से जाति विषयक मौलिक विधानों का भी उल्लेख कर कुछ इस संवेदनशील विषय की, संवेदना सहित समीक्षा करना, ऐसे उद्देश्य से यह आलेख लिखा गया है। आप सभी जानते हैं कि विषय विवादित है। विवेकानंद जी ने बहुत गहराई और सारे हिंदू समाज से समरसता और सहानुभूति सहित विषय रखा है। हमारे दोष भी बताए हैं और गुण भी बताए हैं। पर आज का आलेख सावरकर जी के लेखन को केंद्र में रखकर बनाया गया है।

(दो) विवेकानन्द (1895) और सावरकर (1935)

पाठक ध्यान में रखें कि विवेकानन्द जी के विधान प्रायः 1895 और सावरकर जी के विचार 1935 के आसपास के हैं। आज भी सावरकरजी का, यह मौलिक विश्लेषण, मुझे सटीक, समयोचित और समसामयिक प्रतीत होता हैं। पाठक अपना स्वतंत्र मत बनाने के लिए मुक्त हैं। यह आलेख विशेष रूप से सावरकरजी के तर्क से ही निःसृत होता है। कुछ अलग बिंदू अवश्य है, जो विवेकानंदजी ने दर्शाएं हैं। इसलिए इस विषय को समग्रता सहित केवल एक आलेख में समाना संभव नहीं है। लेखक मानता है कि आज जातिभेद शिथिल हो रहा है।

(तीन) जाति-भेद और जाति-व्यवस्था

जाति-भेद और जाति-व्यवस्था, दोनों शब्द समानार्थी नहीं है। जातिभेद, जातिवाद, जाति-व्यवस्था इत्यादि शब्दों का प्रयोग होता है। साथ में वर्णाश्रम या वर्ण ऐसे शब्द भी प्रयोजे जाते हैं। पर यह आलेख विशेष रूप से ’जातिभेद’ या ’वर्णभेद’ की स्थिति पर ही केंद्रित है। कुछ अंश लेखक की दृष्टि में, विचार और अवलोकन रखने की चेष्टा है।

(चार) सावरकर

सावरकर जी का चिन्तन पुराणपंथी या दकियानुसी नहीं था। उनका चिंतन अत्याधुनिक कक्षा का था। प्रखर राष्ट्रभक्ति जिनके रोम रोम में उमड़ते रहती थी, ऐसे देशभक्त के विचारों में किसी को, राजनैतिक कूटनीति का आभास नहीं होना चाहिए। देशभक्ति और देशहित की चिन्ता से ओतप्रोत था उनका व्यक्तित्व। ऐसे व्यक्ति के इस जातिभेद उन्मूलन के विश्लेषण में किसी को संदेह नहीं, होगा ऐसी अपेक्षा है। उनके विचार कितने अत्याधुनिक कक्षा के थे; यह जानने के लिए, उनके दो निम्न विचार बिंदू देखे जा सकते हैं।

(१) वे कहा करते थे कि, “गौ पूजा की अपेक्षा किसी सगर्भा अछूत महिला की सहायता करना” मैं अधिक पुण्यशाली मानता हूं।”

(२) “यज्ञों में खर्च करने के बदले अनाथ बालकों का पालन-पोषण और अनाथ महिलाओं के लिए आश्रम खोलना अधिक कल्याणकारी मानता हूं।”

(पांच) सिद्धहस्त प्रतिभा

वे सिद्धहस्त प्रतिभा के धनी भी थे। उस प्रतिभा की झांकी और उनका समर्पण भाव आप अगली वास्तविकता से अवश्य जानकर प्रेरणा प्राप्त करें, तो कोई अचरज नहीं।

अंदमान की काल कोठरी में ये प्रतिभा नुकिले पत्थर से दिवाल पर कविता रचती, उन पंक्तियों को कण्ठस्थ करती, मिटाकर नयी पंक्तियां लिखती फिर कण्ठस्थ करती। इसी क्रमसे उन्होंने अनेक कविताएं रचकर कण्ठस्थ कर रखी थी। ये छिछोरे प्रेम की कविताएं नहीं थीं, वे कविताएं भारत मां के प्रेम से सराबोर थीं।

मैं मानता हूं कि आज तक इतना साहसी, इतना निर्भीक, इतना प्रतिभा सम्पन्न और इतना प्रेरणादायी भारत मां का कोई और लाल जन्मा हो तो मैं नहीं जानता। समस्त हिंदू समाज के हित की दृष्टि से वे सोचते, विश्लेषण करते और समाधान ढूंढ़ते हैं। वास्तविकता को नकारते नहीं। पर समाज को बांटकर, संघर्ष के बीज बोकर आपसी संघर्ष उकसाना उनका मार्ग नहीं है। वैमनस्य जगाए बिना, समस्या का समाधान वे जानते हैं। सांप तो मरे, पर लाठी भी ना टूटे।

(छह) सावरकर जी के विचार पर आलेख

विवेकानन्द जी के वर्णव्यवस्था संबंधी विचार, Caste Culture and Socialism नामक पुस्तिका में संकलित किए गए थे; उसी प्रकार सावरकर जी के विचार भी मराठी में उन के “स्मारक-ग्रंथ” में संकलित कर, प्रकाशित किए गए हैं। जैसे ऊपर कहा जा चुका है, कि, इन दोनों की देशभक्ति और चिन्तन क्षमता के विषय में संदेह करनेवाला कोई अपवाद ही होगा।

सावरकर जी ने रत्नागिरी में तथाकथित दलितों को संगठित कर, पतित पावन मन्दिर की स्थापना भी की थी। उन्होंने विशेषतः अस्पृश्यता और जाति-भेद निर्मूलन को, बहुत महत्व दिया था। उनके आलेखो में राष्ट्रनिष्ठा को सर्वाधिक महत्त्व था। उसके दूसरे स्थान पर उन्होंने अस्पृश्यता निवारण के काम को महत्व दिया था, ऐसा उनके उत्तरार्ध के स्थानबद्ध जीवन से जो उन्होंने रत्नागिरी में बिताया था, जान पड़ता है। अस्पृश्यता का भी वे जातिभेद के आधार पर ही समाधान खोजते हैं। अंबेडकर जी से भी घनिष्ठता थी।

(सात) वर्ण व्यवस्था के चार आधार

सावरकर जी वर्ण व्यवस्था का विश्लेषण कर, उसके चार आधार दर्शाते हैं।

आधार हैं, (१) व्यवसायबंदी, (१) स्पर्श बंदी, (३) रोटी-बंदी और (४) बेटी बंदी।

आज की इनकी अवस्था को ही कुछ गहराई से देखते हैं।

(१) व्यवसाय बंदी

इन चार बंदियों में से व्यवसाय बंदी, सावरकर जी के समय (१९३४-३५) में ही टूट चुकी थी। उस समय भी किसी भी व्यवसाय को करने में कोई अवरोध नहीं था।किसी को भी अपनी रूचि और कुशलता के आधार पर व्यवसाय करना चाहिए, ऐसी मान्यता रूढ़ हो रही थी।

आज तो व्यवसाय बंदी मुझे कहीं भी दिखाई नहीं देती। ऐसे कितने वैश्य हैं जो शिक्षक (ब्राह्मण) बने हुए हैं। मैं स्वयं एक वैश्य, निर्माण अभियांत्रिक पर काम मुझे अध्यापन का अच्छा लगा। और भी कई मित्रों को जानता हूं जो पढ़ा रहे हैं। स्वयं अंबेडकर जी, पीएचडी कर पाए और भारत के संविधान को रचने में प्रमुख रहे। ऐसा काम तो निर्लिप्त और आदर्श ब्राह्मण अमात्य किया करते थे। सेना और सुरक्षा जैसे, क्षत्रिय व्यवसाय में भी उसी प्रकार, आज अनेक तथाकथित अछूत और शूद्र भी भारी संख्या में नियुक्त हुए हैं। यह तथ्य ॥ चातुरवर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागशः॥ को चरितार्थ करता ही प्रतीत होता है।

(२) स्पर्श बंदी

आज-कल आप बस, विमान, रेलगाड़ी या अन्य कोई रीति से प्रवास करते समय किसी अनजान व्यक्ति के समीप बैठ ही जाते हैं। आरक्षण भी हो तो भी किस वर्ण के व्यक्ति के समीप आपका आरक्षित स्थान होगा, आप सुनिश्चित नहीं कर सकते। बैठे-बैठे समीप के यात्री का स्पर्श हो जाना संभव ही है। तो यह मान सकते हैं, कि स्पर्श बन्दी प्रायः समाप्त ही हो चुकी है। ग्रामीण क्षेत्र में कुछ होगी। पर धीरे-धीरे वहां भी समाप्त ही होगी।

(३) रोटी बंदी

उपाहार-गृहों में आहार लेनेवाले, चाय या कॉफी पीनेवाले, चक्की से पीस के आटा लाकर पकानेवाले, रेलगाड़ी, विमान, बस यात्रा में चाय-पानी-उपाहार मंगाकर खाने-पीनेवाले सभी रोटी बंदी को शिथिल कर ही चुके हैं। शाकाहारी और मांसाहारी खाद्य पर अब भी स्वतंत्रता है। व्यक्ति स्वातंत्र्य भी प्रत्येक नागरिक को आप को देना ही होगा। उसने क्या खाना चाहिए, इसका निर्णय आप कैसे करेंगे?

इस प्रकार, व्यवसाय बंदी, स्पर्श बंदी और रोटी बंदी प्रायः समाप्त हो चुकी है।

पर बेटी बंदी बची हुयी है, क्यों अगले परिच्छेद में पढ़े।

(४) बेटी बंदी

विवाह पति पत्नी और समष्टि (कुटुम्ब संस्था) की दृष्टि से किया जाता है।

विवाह को, “एक पेड़ की डाली (महिला) काटकर, उसका (ग्राफ्ट) दूसरे पेड (पति का कुटुम्ब) पर सफल आरोपण” करने की उपमा दी जा सकती है। इसलिए ऐसा आरोपण सफल होने के लिए दोनों पेड़ों में कुछ समानता का होना आवश्यक भी है और हितावह भी। कुटुम्ब संस्था की सफलता के लिए विवाह किया जाता है जिससे बालकों का उचित संस्कार हो पाएगा, उनका विकास हो सकेगा, ऐसे, कुटुम्ब के कारण सभी सदस्यों की सर्वांगीण उन्नति अभिप्रेत है। और आपने मेरे अन्य लेखों से जाना होगा ही कि कुटुम्ब संस्था ही संस्कृतियों का आधार भी है। रोमन और युनान की सभ्यताएं कुटुम्ब नष्ट होते ही मिटनी प्रारंभ हो चुकी थीं। आज हमारी विवाह संस्था भी डगमगा रही है। चेतने की आवश्यकता है। ऐसे बेटी बंदी अभी भारी मात्रा में टिकी हुयी है। पर विवाह भी अवश्य ही व्यक्ति स्वतांत्र्य के अंतर्गत ही आता है। आप अपनी संतान भी किस से विवाह करे, इसका निर्णय संतान की अनुमति बिना नहीं कर सकते। विवाह होते हैं, अनुरूपता (Compatibility) के आधार पर, जिससे विवाह सुदृढ़ और दीर्घजीवी होने की संभावना बढ जाती है। यह मैं आवश्यक मानता हूं। जैसे पारिजात की डाली काटकर, नीम के पेड़ पर (Graft) आरोपित कर, चिपकाई नहीं जा सकती; डाली मर जाएगी। उसी प्रकार विवाह में, दोनों ओर अनुरूपता न हो, तो विवाह टिकेगा नहीं और सुदृढ़ समाज के लिए सफल विवाह परमावश्यक है।

हमें पश्चिम की स्वच्छंद, स्वैर, परम्परा पर चलकर दो तीन पीढियों में हमारा नामो निशां मिटाना नहीं है। इसके अतिरिक्त खान-पान और व्यवहार भी, जाति-उपजातियों में, विविधता से भरा हुआ है जिसके कारण अनुरूपता का विचार होना आवश्यक मानता हूं। आज का आलेख जाति-भेद पर ही केंद्रित था। जाति या वर्ण व्यवस्था का अपना योगदान है। विवेकानंद जी के अनुसार वर्ण व्यवस्था के दोष और गुण इस पर आगे लिखने का विचार है।

एक प्रस्तुति में एक विचार रखा था कि सोचो, डॉक्टर, वैद्य जो मल मूत्र का रासायनिक परीक्षण करता है। शवों का छेदन (पोस्टमॉर्टेम) करता है जिसका काम किसी तथाकथित अस्पृश्य से अलग नहीं है। तो उसकी जाति क्या मानोगे? किसी ने उत्तर दिया था, पर लोग ऐसा नहीं मानते। वे तो उन्हें अछूत नहीं मानते। इसपर मैंने कहा था, इसका अर्थ हुआ कि अंतर मानसिकता का ही है। तो हम सब हमारी उच्च-नीच की मानसिकता यदि बदल दें तो समस्या अपने आप समाप्ति की दिशा में बढ़ेगी।