जन-जागरण

क्या है हिन्दुत्व ?

hindutvaहिन्दुत्व” शब्द संस्कृत भाषा का एक शब्द है । इसलिए सबसे पहले संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से “हिन्दुत्व” शब्द का विश्लेषण करते हैं । संस्कृत भाषा में कोई भी शब्द (जिसे संस्कृत भाषा में “पदम्” कहा जाता है) एक “प्रकृति” और एक या एक से अधिक “प्रत्यय” के योग (मेल) से बनता है । “प्रकृति” शब्द के “मूल” को कहते हैं । इस प्रकार किसी भी शब्द का अर्थ उन प्रकृति और प्रत्यय पर निर्भर करता है, जिनके योग से वह शब्द बना है । “हिन्दुन्” मूल (प्रकृति) में एक “सुप्” प्रत्यय के योग से “हिन्दू” बनता है । और इसी “हिन्दुन्” मूल में एक “तद्धित” प्रत्यय के योग से बन जाता है “हिन्दुत्व” । “हिन्दू” और “हिन्दुत्व”, इन दोनों शब्दों के बीच वही सम्बन्ध है जो “मधुर” और “मधुरत्व” (या “मधुरता”) में है, “सुन्दर” और “सुन्दरत्व” (या “सुन्दरता”) में है, “महत्” (या महान्) और “महत्त्व” (या “महत्ता”) में है, इत्यादि (ध्यान दें, “मधुरता” और “मधुरत्व”, दोनों ही अलग-अलग ’तद्धित’ प्रत्ययों के योग से प्राप्त होते हैं, और समानार्थ होते हैं; इसी प्रकार “सुन्दरत्व” और “सुन्दरता”, इत्यादि) । इस प्रकार “हिन्दुत्व” का अर्थ निकलता है, “एक हिन्दू व्यक्ति के सभी गुणों या लक्षणों या विशेषताओं का सङ्ग्रह” इति । अतः “हिन्दुत्व” के अर्थ के अन्तर्गत कोई भी ऐसा लक्षण नहीं है, जो एक “हिन्दू” में अपेक्षित नहीं है । और क्यूँकि वर्तमान में “हिन्दू” शब्द का अर्थ सामान्यतया लगाया जाता है, “सनातन धर्म का अनुयायी” इति, अतः “हिन्दुत्व” का भी अर्थ सीधे सनातन धर्म से ही जुडा हुआ है ।

 

दूसरा, “एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका” (Encyclopedia Britannica) नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ भी “हिन्दुत्व” शब्द का वही अर्थ बतलाता है, जो संस्कृत व्याकरण के अनुकूल है और हमने ऊपर प्रकाशित किया है –

 

“Hindutva (‘Hindu-ness’), is an ideology that sought to define Indian culture in terms of Hindu values.”

 

आखिर ये हिन्दू गुण या लक्षण क्या हैं जिनसे “हिन्दुत्व” परिभाषित होता है, इसे प्रामाणित रूप से बताने का अधिकार केवल उसे है, जो हिन्दुशास्त्र का ज्ञाता है, जिसने इनका अध्ययन किया है । जो यह ही नहीं जानता कि “हिन्दुधर्म” का क्या अर्थ है, “हिन्दू” कौन है इत्यादि, उसे “हिन्दुत्व” पर टिप्पणि करने का कदापि अधिकार नहीं है । और जो यह मानता है कि वह “हिन्दू” है, जिसे “हिन्दू” होने का गर्व है, उसका प्रथम कर्तव्य है कि वो जाने कि “हिन्दुत्व” आखिर क्या है । स्वामी विवेकानन्द ने सन् १८९३ में अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित एक विशाल सर्वधर्मीय बैठक में अति सुन्दरता से “हिन्दुधर्म” का परिचय भिन्न धर्म-सम्प्रदायों के कुल मिलाकर ७००० लोगों के समक्ष दिया था । “हिन्दुधर्म” और “हिन्दुत्व” को और वर्तमान काल में उसके महत्त्व को समझने के लिए स्वामी विवेकानन्द का अध्ययन करना चाहिए । फिर भी, अपने अल्प ज्ञान के आधार पर अपना मत मैं यहाँ प्रस्तुत करता हूँ । “हिन्दुधर्म” का सर्वोच्च लक्ष्य माना गया है, “पर ब्रह्म” का अपरोक्ष (सीधा, न कि केवल ग्रन्थ के पठन से प्राप्त) ज्ञान और इसी की ही प्राप्ति को ही “परम् गति” कहा गया है । अतः “हिन्दुत्व” के अन्तर्गत वो गुण गिने जाने चाहिए, जो “हिन्दू” व्यक्ति को परम् गति की ओर ले जाने में सहायक हों । मेरे मत में ये गुण हैं – धर्म (या कर्तव्य, जो कट्टरता या रिलीजन या फ़ेथ से भिन्न होता है) का पालन करना, विवेक, अनुशासन, इन्द्रियों और मन पर संयम रखना, त्याग, सत्य, परोपकार, फल की अपेक्षा के बिना कर्म करना इत्यादि । उपर्युक्त गुणों की नाँव में बैठ कर ही एक “हिन्दू” परम् गति की ओर जा सकता है, इनके अभाव में वह परम् गति को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः ये गुण ही “हिन्दुत्व” को परिभाषित करते हैं ।

 

अब, वर्तमान में अज्ञानवत् मीडिया द्वारा “हिन्दुत्व” का जो अर्थ समझ कर समाचार या लेख ’निर्मित’ किए जाते हैं, और उसे अज्ञानवत् पढने वाले वे लोग जो अपने को “हिन्दू” कहते हैं और वे भी जो अपने को हिन्दू नहीं कहते, “हिन्दुत्व” का जो अर्थ लगाते हैं, उस पर कुछ प्रकाश डालते हैं । यह देखा गया है कि मीडिया “हिन्दुत्व” को परिभाषित करने का सीधा प्रयास कभी नहीं करता । परन्तु हिन्दुत्व को लेकर जो लेख या समाचार लिखे जाते हैं, उनमें “हिन्दुत्व” का जो अर्थ उपलक्षित (implied) होता है, उसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । क्यूँकि जनसामान्य को हमारे समाज में विद्यमान शिक्षाप्रणाली में “हिन्दुधर्म” का ज्ञान नहीं दिया जाता, इसलिए मीडिया के लेखों में उपलक्षित अर्थ को ही “हिन्दुत्व” मान लिया जाता है । यहाँ एक विषय ये भी है कि जनसामान्य को यदि संस्कृत का ज्ञान होता, तो “हिन्दुत्व” का अर्थ समझने के लिए उसे मीडिया के लेखों पर निर्भर नहीं होना पडता । देखिए, “हिन्दुत्व” की एक झलक –

१. लव जिहाद का विरोध – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

२. घर वापसी – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

३. गोहत्या का विरोध – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

४. वैलेण्टाइन दिवस का विरोध – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

५. गङ्गा की स्वच्छता – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

६. संस्कृत भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहन – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

७. स्वदेशी का प्रचार – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

 

इत्यादि । यदि “हिन्दुत्व” के विषय में ज्ञान केवल उपर्युक्त विषयों पर लिखे लेखों से ही प्राप्त हो, तो आप ही सोचिए कि “हिन्दुत्व” का क्या अर्थ निकलेगा । प्रायः, “कट्टरता” को “हिन्दुत्व” का एक लक्षण माना जाएगा ? मीडिया को ये अधिकार किसने दिया कि वो एक पवित्र “हिन्दुत्व” शब्द का अर्थ बदल कर ऐसे गिरा दे ? मेरे विचार में, मीडिया को ये अधिकार दिया है, हमारी ही अज्ञानता ने । तो अब सोचिए, इसमें दोष किसका है (मेरे मत में, एक “हिन्दू” अपने अन्दर के दोषों को ढून्ढ कर उनके निग्रह का प्रयास करता है) ।

 

अब भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा १९९५ में दिए गए एक निर्णय पर ध्यान दीजिए, जिसमें उसने कहा था कि “हिन्दुत्व” जीवन व्यतीत करने का एक मार्ग है व “हिन्दुत्व” की तुलना “कट्टरता” से करना एक मिथ्या या दोष है; इसके विपरीत, “हिन्दुत्व” शब्द का प्रयोग मतनिरपेक्षता को प्रोत्साहन देने के लिए किया जा सकता है –

 

In a 1995 judgment, the Supreme Court of India ruled that “Ordinarily, Hindutva is understood as a way of life or a state of mind and is not to be equated with or understood as religious Hindu fundamentalism … it is a fallacy and an error of law to proceed on the assumption … that the use of words Hindutva or Hinduism per se depicts an attitude hostile to all persons practising any religion other than the Hindu religion … It may well be that these words are used in a speech to promote secularism or to emphasise the way of life of the Indian people and the Indian culture or ethos, or to criticise the policy of any political party as discriminatory or intolerant.”

 

“हिन्दुत्व” के वास्तविक अर्थ में और लोगों की और मीडिया की अज्ञानतावश मीडिया द्वारा अपने लेखों से फैलाए गए उपलक्षित अर्थ में क्या अन्तर है? ये कहना भी तो सही नहीं होगा, कि एक हिन्दू को संस्कृत, गोरक्षा आदि विषयों को महत्त्व नहीं देना चाहिए ? यहाँ मुख्य अन्तर हैं, अनिवार्यता और अननिवार्यता का, व आध्यात्मिकता और भौतिकता का । धर्मपालन, संयम आदि उपर्युक्त ’आध्यात्मिक’ गुण हिन्दुत्व की ’अनिवार्यता’ हैं । अतः ये गुण प्रत्येक हिन्दू में अपेक्षित हैं । इनके अभाव से किसी भी लक्ष्य की ओर बढने वाला मार्ग उचित नहीं रह जाता । फिर चाहे वो लक्ष्य गोरक्षा, घर वापसी आदि का ही क्यूँ न हो । आध्यात्मिकता के बिना “हिन्दुत्व” की कल्पनामात्र भी सम्भव नहीं है ।

 

एक हिन्दू चार वस्तुओं के लिए पुरुषार्थ करता है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । लेखक के मत में, यहाँ इन चारों वस्तुओं का जितना महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व है उस क्रम का जिसमें ये कही गयी हैं । सबसे पहले धर्म है, अतः धर्म का पालन करने के प्रयास को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है । धर्म और अधर्म के बीच भेद करने की क्षमता ही विवेक है, जो कि शास्त्राध्ययन, सत्सङ्ग आदि से प्राप्त होता है । धर्म के बाद अर्थ आता है । धर्म की मर्यादा में रहते हुए एक हिन्दू अर्थ-वृद्धि का प्रयास करता है , अर्थात् अपने और अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धनार्जन करता है । अर्थ के बाद ही काम आता है, अर्थात् अपनी अर्थ क्षमता के अनुसार ही हिन्दू अपनी कामनाओं की पूर्ति करता है । जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाता है । अन्त में काम के बाद मोक्ष आता है । क्यूँकि कामनाएँ पूर्ण करे बिना मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है ।

 

आज आवश्यकता है उन गुरुओं की जो की भटके हुए लोगों को धर्मानुसार मार्गदर्शन दे सकें । लोक में बुद्धि की तीक्ष्णता का प्रायः वर्धन हो रहा है, परन्तु बिना विवेक की लगाम के ये वैसे ही है जैसे कि एक बालक पैनी खड्ग (तलवार) से खेल रहा हो । आज आवश्यकता उन ब्राह्मणों की है जो कि निःस्पृहता से जीते हुए व धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए एक बाह्मण को ब्राह्मण, क्षत्रीय को क्षत्रीय और वैश्य को वैश्य बना सकें । आज आवश्यकता है उन हिन्दुओं की जो हिन्दुत्व की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दें । क्यूँकि सिद्धान्त है, त्याग की आहुति के बिना हिन्दुत्व की अग्नि शान्त तो होगी ही ।

 

हिन्दुत्व की रक्षा के लिए अपने अन्दर ही हिन्दुत्व की रक्षा करना ’अनिवार्य’ है । और दूसरा, हिन्दुत्व की रक्षा के लिए प्रायः अपने अन्दर ही हिन्दुत्व की रक्षा करना ’पर्याप्त’ भी है । यदि हिन्दू होने पर गर्व का अनुभव करते हो, तो सबसे पहले हिन्दुत्व का सही अर्थ समझो । फिर उसे अपने व्यवहार में लाओ । आज के युग में यह सरल नहीं है, परन्तु इसका निरन्तर प्रयास तो किया ही जाना चाहिए । भारत के अतीत के यश पर गर्व करना पर्याप्त नहीं है । यह यश भारत को “हिन्दुत्व” से ही प्राप्त हुआ था । और भविष्य में भी हिन्दुत्व से ही यश की प्राप्ति सम्भव है । इसके लिए हिन्दुत्व को समझना अनिवार्य है ।