क्या है हिन्दुत्व ?

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hindutvaहिन्दुत्व” शब्द संस्कृत भाषा का एक शब्द है । इसलिए सबसे पहले संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से “हिन्दुत्व” शब्द का विश्लेषण करते हैं । संस्कृत भाषा में कोई भी शब्द (जिसे संस्कृत भाषा में “पदम्” कहा जाता है) एक “प्रकृति” और एक या एक से अधिक “प्रत्यय” के योग (मेल) से बनता है । “प्रकृति” शब्द के “मूल” को कहते हैं । इस प्रकार किसी भी शब्द का अर्थ उन प्रकृति और प्रत्यय पर निर्भर करता है, जिनके योग से वह शब्द बना है । “हिन्दुन्” मूल (प्रकृति) में एक “सुप्” प्रत्यय के योग से “हिन्दू” बनता है । और इसी “हिन्दुन्” मूल में एक “तद्धित” प्रत्यय के योग से बन जाता है “हिन्दुत्व” । “हिन्दू” और “हिन्दुत्व”, इन दोनों शब्दों के बीच वही सम्बन्ध है जो “मधुर” और “मधुरत्व” (या “मधुरता”) में है, “सुन्दर” और “सुन्दरत्व” (या “सुन्दरता”) में है, “महत्” (या महान्) और “महत्त्व” (या “महत्ता”) में है, इत्यादि (ध्यान दें, “मधुरता” और “मधुरत्व”, दोनों ही अलग-अलग ’तद्धित’ प्रत्ययों के योग से प्राप्त होते हैं, और समानार्थ होते हैं; इसी प्रकार “सुन्दरत्व” और “सुन्दरता”, इत्यादि) । इस प्रकार “हिन्दुत्व” का अर्थ निकलता है, “एक हिन्दू व्यक्ति के सभी गुणों या लक्षणों या विशेषताओं का सङ्ग्रह” इति । अतः “हिन्दुत्व” के अर्थ के अन्तर्गत कोई भी ऐसा लक्षण नहीं है, जो एक “हिन्दू” में अपेक्षित नहीं है । और क्यूँकि वर्तमान में “हिन्दू” शब्द का अर्थ सामान्यतया लगाया जाता है, “सनातन धर्म का अनुयायी” इति, अतः “हिन्दुत्व” का भी अर्थ सीधे सनातन धर्म से ही जुडा हुआ है ।

 

दूसरा, “एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका” (Encyclopedia Britannica) नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ भी “हिन्दुत्व” शब्द का वही अर्थ बतलाता है, जो संस्कृत व्याकरण के अनुकूल है और हमने ऊपर प्रकाशित किया है –

 

“Hindutva (‘Hindu-ness’), is an ideology that sought to define Indian culture in terms of Hindu values.”

 

आखिर ये हिन्दू गुण या लक्षण क्या हैं जिनसे “हिन्दुत्व” परिभाषित होता है, इसे प्रामाणित रूप से बताने का अधिकार केवल उसे है, जो हिन्दुशास्त्र का ज्ञाता है, जिसने इनका अध्ययन किया है । जो यह ही नहीं जानता कि “हिन्दुधर्म” का क्या अर्थ है, “हिन्दू” कौन है इत्यादि, उसे “हिन्दुत्व” पर टिप्पणि करने का कदापि अधिकार नहीं है । और जो यह मानता है कि वह “हिन्दू” है, जिसे “हिन्दू” होने का गर्व है, उसका प्रथम कर्तव्य है कि वो जाने कि “हिन्दुत्व” आखिर क्या है । स्वामी विवेकानन्द ने सन् १८९३ में अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित एक विशाल सर्वधर्मीय बैठक में अति सुन्दरता से “हिन्दुधर्म” का परिचय भिन्न धर्म-सम्प्रदायों के कुल मिलाकर ७००० लोगों के समक्ष दिया था । “हिन्दुधर्म” और “हिन्दुत्व” को और वर्तमान काल में उसके महत्त्व को समझने के लिए स्वामी विवेकानन्द का अध्ययन करना चाहिए । फिर भी, अपने अल्प ज्ञान के आधार पर अपना मत मैं यहाँ प्रस्तुत करता हूँ । “हिन्दुधर्म” का सर्वोच्च लक्ष्य माना गया है, “पर ब्रह्म” का अपरोक्ष (सीधा, न कि केवल ग्रन्थ के पठन से प्राप्त) ज्ञान और इसी की ही प्राप्ति को ही “परम् गति” कहा गया है । अतः “हिन्दुत्व” के अन्तर्गत वो गुण गिने जाने चाहिए, जो “हिन्दू” व्यक्ति को परम् गति की ओर ले जाने में सहायक हों । मेरे मत में ये गुण हैं – धर्म (या कर्तव्य, जो कट्टरता या रिलीजन या फ़ेथ से भिन्न होता है) का पालन करना, विवेक, अनुशासन, इन्द्रियों और मन पर संयम रखना, त्याग, सत्य, परोपकार, फल की अपेक्षा के बिना कर्म करना इत्यादि । उपर्युक्त गुणों की नाँव में बैठ कर ही एक “हिन्दू” परम् गति की ओर जा सकता है, इनके अभाव में वह परम् गति को प्राप्त नहीं कर सकता । अतः ये गुण ही “हिन्दुत्व” को परिभाषित करते हैं ।

 

अब, वर्तमान में अज्ञानवत् मीडिया द्वारा “हिन्दुत्व” का जो अर्थ समझ कर समाचार या लेख ’निर्मित’ किए जाते हैं, और उसे अज्ञानवत् पढने वाले वे लोग जो अपने को “हिन्दू” कहते हैं और वे भी जो अपने को हिन्दू नहीं कहते, “हिन्दुत्व” का जो अर्थ लगाते हैं, उस पर कुछ प्रकाश डालते हैं । यह देखा गया है कि मीडिया “हिन्दुत्व” को परिभाषित करने का सीधा प्रयास कभी नहीं करता । परन्तु हिन्दुत्व को लेकर जो लेख या समाचार लिखे जाते हैं, उनमें “हिन्दुत्व” का जो अर्थ उपलक्षित (implied) होता है, उसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं । क्यूँकि जनसामान्य को हमारे समाज में विद्यमान शिक्षाप्रणाली में “हिन्दुधर्म” का ज्ञान नहीं दिया जाता, इसलिए मीडिया के लेखों में उपलक्षित अर्थ को ही “हिन्दुत्व” मान लिया जाता है । यहाँ एक विषय ये भी है कि जनसामान्य को यदि संस्कृत का ज्ञान होता, तो “हिन्दुत्व” का अर्थ समझने के लिए उसे मीडिया के लेखों पर निर्भर नहीं होना पडता । देखिए, “हिन्दुत्व” की एक झलक –

१. लव जिहाद का विरोध – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

२. घर वापसी – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

३. गोहत्या का विरोध – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

४. वैलेण्टाइन दिवस का विरोध – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

५. गङ्गा की स्वच्छता – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

६. संस्कृत भाषा के अध्ययन को प्रोत्साहन – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

७. स्वदेशी का प्रचार – “हिन्दुत्व” एजैण्डा

 

इत्यादि । यदि “हिन्दुत्व” के विषय में ज्ञान केवल उपर्युक्त विषयों पर लिखे लेखों से ही प्राप्त हो, तो आप ही सोचिए कि “हिन्दुत्व” का क्या अर्थ निकलेगा । प्रायः, “कट्टरता” को “हिन्दुत्व” का एक लक्षण माना जाएगा ? मीडिया को ये अधिकार किसने दिया कि वो एक पवित्र “हिन्दुत्व” शब्द का अर्थ बदल कर ऐसे गिरा दे ? मेरे विचार में, मीडिया को ये अधिकार दिया है, हमारी ही अज्ञानता ने । तो अब सोचिए, इसमें दोष किसका है (मेरे मत में, एक “हिन्दू” अपने अन्दर के दोषों को ढून्ढ कर उनके निग्रह का प्रयास करता है) ।

 

अब भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा १९९५ में दिए गए एक निर्णय पर ध्यान दीजिए, जिसमें उसने कहा था कि “हिन्दुत्व” जीवन व्यतीत करने का एक मार्ग है व “हिन्दुत्व” की तुलना “कट्टरता” से करना एक मिथ्या या दोष है; इसके विपरीत, “हिन्दुत्व” शब्द का प्रयोग मतनिरपेक्षता को प्रोत्साहन देने के लिए किया जा सकता है –

 

In a 1995 judgment, the Supreme Court of India ruled that “Ordinarily, Hindutva is understood as a way of life or a state of mind and is not to be equated with or understood as religious Hindu fundamentalism … it is a fallacy and an error of law to proceed on the assumption … that the use of words Hindutva or Hinduism per se depicts an attitude hostile to all persons practising any religion other than the Hindu religion … It may well be that these words are used in a speech to promote secularism or to emphasise the way of life of the Indian people and the Indian culture or ethos, or to criticise the policy of any political party as discriminatory or intolerant.”

 

“हिन्दुत्व” के वास्तविक अर्थ में और लोगों की और मीडिया की अज्ञानतावश मीडिया द्वारा अपने लेखों से फैलाए गए उपलक्षित अर्थ में क्या अन्तर है? ये कहना भी तो सही नहीं होगा, कि एक हिन्दू को संस्कृत, गोरक्षा आदि विषयों को महत्त्व नहीं देना चाहिए ? यहाँ मुख्य अन्तर हैं, अनिवार्यता और अननिवार्यता का, व आध्यात्मिकता और भौतिकता का । धर्मपालन, संयम आदि उपर्युक्त ’आध्यात्मिक’ गुण हिन्दुत्व की ’अनिवार्यता’ हैं । अतः ये गुण प्रत्येक हिन्दू में अपेक्षित हैं । इनके अभाव से किसी भी लक्ष्य की ओर बढने वाला मार्ग उचित नहीं रह जाता । फिर चाहे वो लक्ष्य गोरक्षा, घर वापसी आदि का ही क्यूँ न हो । आध्यात्मिकता के बिना “हिन्दुत्व” की कल्पनामात्र भी सम्भव नहीं है ।

 

एक हिन्दू चार वस्तुओं के लिए पुरुषार्थ करता है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । लेखक के मत में, यहाँ इन चारों वस्तुओं का जितना महत्त्व है, उससे भी अधिक महत्त्व है उस क्रम का जिसमें ये कही गयी हैं । सबसे पहले धर्म है, अतः धर्म का पालन करने के प्रयास को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है । धर्म और अधर्म के बीच भेद करने की क्षमता ही विवेक है, जो कि शास्त्राध्ययन, सत्सङ्ग आदि से प्राप्त होता है । धर्म के बाद अर्थ आता है । धर्म की मर्यादा में रहते हुए एक हिन्दू अर्थ-वृद्धि का प्रयास करता है , अर्थात् अपने और अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धनार्जन करता है । अर्थ के बाद ही काम आता है, अर्थात् अपनी अर्थ क्षमता के अनुसार ही हिन्दू अपनी कामनाओं की पूर्ति करता है । जितनी चादर हो, उतने ही पैर फैलाता है । अन्त में काम के बाद मोक्ष आता है । क्यूँकि कामनाएँ पूर्ण करे बिना मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है ।

 

आज आवश्यकता है उन गुरुओं की जो की भटके हुए लोगों को धर्मानुसार मार्गदर्शन दे सकें । लोक में बुद्धि की तीक्ष्णता का प्रायः वर्धन हो रहा है, परन्तु बिना विवेक की लगाम के ये वैसे ही है जैसे कि एक बालक पैनी खड्ग (तलवार) से खेल रहा हो । आज आवश्यकता उन ब्राह्मणों की है जो कि निःस्पृहता से जीते हुए व धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए एक बाह्मण को ब्राह्मण, क्षत्रीय को क्षत्रीय और वैश्य को वैश्य बना सकें । आज आवश्यकता है उन हिन्दुओं की जो हिन्दुत्व की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दें । क्यूँकि सिद्धान्त है, त्याग की आहुति के बिना हिन्दुत्व की अग्नि शान्त तो होगी ही ।

 

हिन्दुत्व की रक्षा के लिए अपने अन्दर ही हिन्दुत्व की रक्षा करना ’अनिवार्य’ है । और दूसरा, हिन्दुत्व की रक्षा के लिए प्रायः अपने अन्दर ही हिन्दुत्व की रक्षा करना ’पर्याप्त’ भी है । यदि हिन्दू होने पर गर्व का अनुभव करते हो, तो सबसे पहले हिन्दुत्व का सही अर्थ समझो । फिर उसे अपने व्यवहार में लाओ । आज के युग में यह सरल नहीं है, परन्तु इसका निरन्तर प्रयास तो किया ही जाना चाहिए । भारत के अतीत के यश पर गर्व करना पर्याप्त नहीं है । यह यश भारत को “हिन्दुत्व” से ही प्राप्त हुआ था । और भविष्य में भी हिन्दुत्व से ही यश की प्राप्ति सम्भव है । इसके लिए हिन्दुत्व को समझना अनिवार्य है ।

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मानव गर्ग
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नवदेहली से विद्युत् अभियन्त्रणा विषय में सन् २००४ में स्नातक हुआ । २००८ में इसी विषय में अमेरिकादेसथ कोलोराडो विश्वविद्यालय, बोल्डर से master's प्रशस्तिपत्र प्राप्त किया । पश्चात् ५ वर्षपर्यन्त Broadcom Corporation नामक संस्था के लिए, digital communications and signal processing क्षेत्र में कार्य किया । वेशेषतः ethernet के लिए chip design and development क्षेत्र में कार्य किया । गत २ वर्षों से संस्कृत भारती संस्था के साथ भी काम किया । संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन के साथ साथ क्षेत्रीय सञ्चालक के रूप में संस्कृत के लिए प्रचार, कार्यविस्तार व कार्यकर्ता निर्माण में भी योगदान देने का सौभाग्य प्राप्त किया । अक्टूबर २०१४ में पुनः भारत लौट आया । दश में चल रही भिन्न भिन्न समस्याओं व उनके परिहार के विषय में अपने कुछ विचारों को लेख-बद्ध करने के प्रयोजन से ६ मास का अवकाश स्वीकार किया है । प्रथम लेख गो-संरक्षण के विषय में लिखा है ।

11 COMMENTS

  1. हिंदुत्व और हिन्दू-दोनों अलग-अलग हैं|

    सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार – ”हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं।

    वीर सावरकर जी के इस परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है की हिंयुतवा और हिन्दू में कोई समानता नहीं है और यह दोनों एक दुसरे से विभिन्न है | हिन्दयुत्व केवल एक राजनीतिक विचारधारा और कुछ नहीं |

  2. Priya bandhu Manav ji,
    Hindu aur Hindutva vishay ki charcha ek alekh me hona kathin hi hai. uske kuchh pahluonko aapne sparsh kiya hai yah abhinandaneey hai.
    supreme court ka judjgement bahut achchha hai Hindutva ko ek way of life kahte hue court ne yah bhi kaha hai ki ek vishishtha sandarbh me uska arth religion bhi hota hai.
    British Encyclopaedia ki paribhasha bhi dhyan dene layak hai.
    aapke alekh ke liye badhai.
    Shankar rao

  3. Sh. Manav Garg ji not only explained properly what is Hindutva, but also said that media never properly explained what is Hindutva.Not only the spiritual or religious history of our people as at times it is mistaken to be by being confounded with the other cognate term Hinduism, but a history in full. Hinduism is only a derivative, a fraction, a part of Hindutva.
    Hindutva is different from Hinduism. By an ‘ism’ it is generally meant a theory or a code more or less based on spiritual or religious dogma or creed. Veer Savarkar was and continues to be one of the tallest exponents of Hindutva and Hindu nationalism. Savarkar’s definition of the term ‘Hindu’ has been de facto accepted by the Constitution of free India.
    The word Hinduism did not exist before 1830. It was created by the English colonialists. There is no mention of the terms “Hindu” or “Sanatana Dharma” in the Vedas, Puranas or any other religious text prior to 1830 AD. Nor are they found in any inscription or in any record of foreign travellers to India before English rule. The term “Hindusthan” was first used in the 12th century by Muhammad Ghori, who dubbed his new subjects “Hindus”.
    Hinduism is not a revealed religion and, therefore, has neither a founder nor definite teachings or common system of doctrines … It has no organisation, no dogma or accepted creeds. There is no authority with recognised jurisdiction. A man, therefore, could neglect any one of the prescribed duties of his group and still be regarded as a good Hindu.” Ordinarily, Hindutva is understood as a way of life or a state of mind and is not to be equated with or understood as religious Hindu fundamentalism. Hindutva is not hostility to any organised religion nor does it proclaim its superiority of any religion to another. It is the shield of security and freedom for all religious minorities. However, the communal propaganda machinery relentlessly disseminates “Hindutva” as a communal word, something that has also become embedded in the minds and language of opinion leaders, including politicians, media, civil society and the intelligentsia. For Hindus to get pride and self-respect it is a need for more such articles be written and spread.

    • Shree Mohan ji,

      Thanks for your comments and for sharing your thoughts.

      About “media never properly explained what is Hindutva” – I see no reason why we Hindus should have to rely on media to understand Hindutva. Rather, media was able to “incorrectly explain” Hindutva only because –

      1. We never tried to understand Hindutva ourselves, nor did we make much effort to explain the same to our children. It is possible to write anything on a blank sheet of paper, so we rendered ourselves and our children susceptible to misinterpretation of Hindutva.

      2. The media people are a few amongst us only – so how can we expect them to correctly explain Hindutva? The assumption or expectation that every article media publishes should be well researched, is a big fallacy.

      So, my sincere appeal to all my brethren is to make sure that we make every effort to fully ‘understand’ and ‘practice’ Hindutva.

  4. ” अन्त में काम के बाद मोक्ष आता है । क्यूँकि कामनाएँ पूर्ण करे बिना मोक्ष प्राप्ति सम्भव नहीं है ।” isko behtar kahane kee widhi yah hai ki kaamanaaon ko poorn karate karate yah samajh men aane lagata hai ki inkee poorti yadi asambhawa naheen to atyant katthin awashya hai kyonki ek kaamanaa kee poorti karate hee do kaamanaaen utpann ho jaatee hain – Mokhs ko ant men rakhane kaa ek taatparya yaha bhee hai ki usay arthaat moksha keo dhyeya maanate hue karm karna hai. waasawa men nishkaam hone se moksh kee praapti hotee hai.

    • माननीय विश्वमोहन जी,

      आपकी टिप्पणी लेख में उल्लेखित भाव को स्पष्टता प्रदान करती है । विस्तारपूर्वक इसे समझाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

  5. सटीक, व्याख्या, और गहरी समझ से भरा सर्वांग सुन्दर सभी आवश्यक अंगों का वर्णन और विश्लेषण करता, आलेख लिखने के लिए लेखक को बधाई।
    आज ही मोहन भागवत जी ने इन्हीं बिंदुओं पर भाषण मध्य प्रदेश में दिया है।

    धन्यवाद।

    • माननीय मधु जी,

      टिप्पणी और प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

  6. manav garg ji, kuchh to buddhi se kam lijiye. hindu shabd ki vyakhya me apne jo sanskrit vyakaran ka praman likha hai use koi murkh agyani hi manega, vidwan nahi. hindu shabd videshi tha, hai aur rahega. adhik jankari ke liye in pustako ko awashya parhiye– ”hindu shabd videshi hai”, ”garva se kaho ham arya hai”, ”hindu nahi arya”, ”hindu naam kasauti par”. swami vivekanand kewal r.s.s. ki dristi me hi vidwan tha. swami dayanand ki tulna me vivekanand prathmik vidyalay ke chhatra ke barabar bhi nahi tha.

    • श्रीमान्,

      १. दो सन्तों की तुलना करने का न तो मेरा उद्देश्य था और न आशय । मेरे मन में ऐसा करना उचित भी नहीं है । स्वामी विवेकानन्द को पढने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि हम स्वामी दयानन्द को पढना छोड़ दें । फिर भी, यदि आपको यह लेख पढ कर कुछ ऐसा लगा तो उसके लिए क्षमा करें ।

      २. मेरे मत में स्वामी विवेकानन्द के महान् योगदान को नकारा नहीं जा सकता ।

      ३. यह सत्य हो सकता है कि “हिन्दू” शब्द विदेशियों ने दिया हो, परन्तु इससे वर्तमान सन्दर्भ में इस शब्द का महत्त्व न्यून नहीं हो जाता । मैं स्वयं को गर्व से हिन्दू कहता हूँ । मेरे मत में स्वयं को हिन्दू कहने वाले लोगों की सङ्ख्या बहुत बड़ी है । “विश्व हिन्दू परिशद्” और “हिन्दू स्वयंसेवक सङ्घ” जैसी मान्यता प्राप्त अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएँ हैं । “बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय” जैसे संस्थान हैं । ये सभी वर्तमान् सन्दर्भ में “हिन्दू” शब्द के महत्त्व को प्रमाणित करते हैं ।

      ४. वस्तुतः यह लेख मैंने उन के प्रति लिखा है जो स्वयं को “हिन्दू” कहते हैं (अतः यदि आप स्वयं को हिन्दू नहीं कहते, तो आप इस लेख की उपेक्षा कर सकते हैं) । स्वयं को हिन्दू कहने वाले लोगों को आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करना ही इस लेख का उद्देश्य है । आत्मावलोकन से आत्मप्रगति में सहायता होती है ।

      ५. संस्कृत भाषा इतनी दुर्बल नहीं है कि कोई नया शब्द उसमें जोड़ा न जा सके । यह महान् भाषा, जो एक मतानुसार विश्व की सभी भाषाओं की जननी है, अत्यन्त वैज्ञानिक, पूर्ण, दोषरहित व सबल है । संस्कृत भाषा के सारे शब्द एक पल में ही प्रकट नहीं हो गए थे (एक पल में प्रकट हो जाना स्वाभाविक नहीं है) । समय के साथ संस्कृत भाषा के शब्दों में भी परिवर्तन आता ही रहा है, जैसे कुछ पुराने शब्द प्रयुक्त होने बन्द हो गए, और कुछ नए शब्द जुड़ गए । परन्तु व्याकरण के नियम अटल रहे हैं ।

      ६. बाहर से आए “हिन्दू” शब्द को संस्कृत में व्याकरण के नियमों को जोड़ना अत्यन्त सहज और सरल है । “हिन्दुन्” को प्रातिपदिकम् मान कर (जो के “नकारान्त पुंलिङ्ग” शब्द है, भिन्न भिन्न विद्यमान प्रत्ययों को जोड़ कर अनेक शब्द बन जाते हैं, जैसे कि “हिन्दू” और “हिन्दुत्व” । इन दोनों शब्दों के बीच का सम्बन्ध भी व्याकरणबद्ध ही है, जैसा कि इस लेख में उल्लेखित किया है ।

      ७. मेरे मत में, जब भारत में केवल सनातन धर्म के अनुयायी ही थे, तब “हिन्दू” शब्द की आवश्यकता ही नहीं थी । तब अलग अलग सम्प्रदायों को उल्लेखित करने के लिए, वैष्णव, शैव, जैन, बौद्ध आदि नामधेय पर्याप्त थे । परन्तु अब यहाँ इस्लाम, ईसाई आदि धर्मों के अनुयायी भी हैं । ऐसे में यहाँ पहले से प्रचलित सम्प्रदायों (जिनमें आपसी सम्बन्ध भी थे, जो पुराणों से प्रमाणित होते हैं) के अनुयायियों के लिए एक नामधेय होना आज आवश्यक हो गया है । वर्तमान स्थिति में इन लोगों के लिए सर्वाधिक प्रयुक्त होने वाला शब्द “हिन्दू” ही है । मीडिया भी आज “हिन्दुत्व” को अज्ञानवश निम्न दिखाने का प्रयास करता है, “आर्यत्व” को नहीं । अतः लेख में मेरे द्वारा भी “हिन्दू” और “हिन्दुत्व” प्रयुक्त होना तो स्वाभाविक ही है । इसी से ही ये लेख सार्थक बनता है ।

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