क्या वैदिक वर्णव्यवस्था वर्तमान युग में व्यावहारिक है?

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vaidik-varnavyawasthaमनमोहन कुमार आर्य

वैदिक वर्ण व्यवस्था क्या है? वैदिक वर्ण व्यवस्था वह सामाजिक व्यवस्था है जिसमे समाज के सभी मनुष्यों को उनके गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र में वर्गीकृत किया गया है। यह व्यवस्था वर्तमान की जन्मना जाति व्यवस्था अर्थात् मनुष्य के जन्म पर आधारित व्यवस्था से पूर्व वैदिक काल में प्रचलित रही है। वर्तमान की यह जन्मना जाति व्यवस्था वैदिक वर्णव्यवस्था का बिगड़ा हुआ रूप है। वर्तमान जन्मना वर्ण व्यवस्था में एक ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय का क्षत्रिय, वैश्य का वैश्य और शूद्र का शूद्र होता है, भले ही उनके गुण-कर्म-स्वभाव कैसे भी, अच्छे व बुरे, क्यों न हों। इस व्यवस्था में एक ब्राह्मण का पुत्र व पुत्री चाहे वह अनपढ़ हो, मद्यपायी और मांसाहारी भी हो, समाज विरोधी कार्य भी करते हों तो भी वह ब्राह्मण कहलाते हैं और शूद्र कुल मे उत्पन्न बालक व बालिकायें सुशिक्षित, सुसंस्कारित, वेदाध्यायी, वेदज्ञ, सच्चरित्र, शुद्ध आचरण करने वाले हों, तब भी वह शूद्र जातियों के ही कहलाते हैं। इन चार वर्ण वाले लोगों व उनकी सन्तानों का वर्तमान जन्मना वर्ण व्यवस्था में गुणों, कर्मों व उनके स्वभाव से कोई लेना देना नहीं है। दूसरी ओर वैदिक वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण तभी हो सकता है जब कि वह वेदों का ज्ञानी व विद्वान होने के साथ अध्ययन व अध्यापन करता-कराता हो, यज्ञ करता व कराता हो तथा दान देता व लेता हो। उसका पंच महायज्ञों करना तथा सच्चरित्र होना भी आवश्यक व अपरिहार्य है। यदि उसमें यह गुण, कर्म व स्वभाव नहीं हैं तो वह ब्राह्मण न होकर अपने गुणों आदि के अनुसार वर्णवाला होगा जिसमें वह शूद्र भी हो सकता है। इसी प्रकार यदि शूद्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य के लिए आवश्यक गुण आदि हैं तो उसका वही वर्ण होगा जिस प्रकार के गुण उसमें हैं। यह वैदिक वर्ण व्यवस्था सृष्टि के आरम्भ में कब आरम्भ हुई और कब समाप्त हुई, इसकी जानकारी हमारे शास्त्रों से विदित नहीं होती। महाभारत में जन्मना जाति व्यवस्था प्रचलित थी, ऐसा ही प्रतीत होता है। कुछ थोड़े से अपवाद हो सकते हैं परन्तु उनके भी वर्ण के निर्धारण के बारे में समुचित जानकारी नहीं है।

 

क्या वैदिक वर्ण व्यवस्था व्यावहारिक है? इसका उत्तर जानने के लिए कुछ अन्य पहलुओं पर विचार करना आवश्यक है। आज गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था देश-देशान्तर में कहीं सुस्थापित नहीं है। सर्वत्र जन्मना जाति व्यवस्था है जो कि वैदिक वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप है। सन् 1947 में देश आजाद हुआ और इसका विभाजन भी हुआ। भारत का संविधान बना जिसमें देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये गये हैं जो कि वर्णाश्रम व्यवस्था की मूल भावना से मेल नहीं खाते। आज किसी भी जन्मना वर्ण व जाति का मनुष्य अपनी योग्यता आदि के अनुसार भारत के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति तक बन सकता है। इसी प्रकार से सभी वर्णों के लोग अपने गुण, कर्म, स्वभाव, पात्रता व योग्यता के अनुसार समाज में नौकरी, व्यवसाय स्वयं चुनते हैं और करते हैं। कहीं जन्मना ब्राह्मण उच्चाधिकारी हैं तो कहीं क्षत्रिय, वैश्य व जन्मना शूद्र। अतः आज वैदिक वर्णव्यवस्था कहीं प्रचलित नहीं है, यही स्पष्ट होता है। आर्य हिन्दुओं में सर्वत्र जो सामाजिक व्यवस्था प्रचलित है उसका नाम है जन्मना जाति व्यवस्था जो कि वैदिक वर्ण व्यवस्था का बिगड़ा हुआ रूप है।

 

कहा जाता है कि वर्ण का निर्धारण गुरुकुलों में शिक्षारत ब्रह्मचारियों के समावर्तन संस्कार के अवसर पर आचार्य किया करते थे। आर्यसमाज ने गुरुकुल खोले परन्तु कभी अपने स्नातकों को वर्ण का आबंटन नहीं किया। वर्तमान में वैदिक वर्ण व्यवस्था को स्थापित व प्रचलित करने के लिए आर्यसमाज की ओर से कोई प्रयास व आन्दोलन भी नही हो रहा है। जन्मना जाति मानने वालों की ओर से भी वैदिक वर्ण व्यवस्था प्रचलित करने का कहीं से किसी प्रकार का कोई आग्रह नहीं है। अतः आज जन्मना जाति व्यवस्था ही प्रचलित है। हमें लगता है कि इस व्यवस्था को ही वर्तमान में व्यावहारिक कहना और मानना होगा। हो सकता है कि हमारे कुछ आर्यबन्धु और विद्वान हमसे सहमत न हों? हम ऐसे मित्रों का स्वागत करते हैं और हमारा मत है कि हम सत्य को ग्रहण करने के लिए तत्पर हैं। अतः विद्वानों से प्रार्थना करते हैं कि वह वैदिक वर्ण व्यवस्था वर्तमान समय में व्यावहारिक है अथवा नहीं, इस पर अपनी सहमति व असहमति सूचित करने की कृपा करें।

 

श्रम व मनुष्यों के कार्यों के विभाजन पर विचार करें तो आज मनुष्य जो जो काम करता है उसकी संख्या सहस्रों में हैं। किस योग्यता वाला व कौन-2 सा काम करने वाला व्यक्ति ब्राह्मण व इतर वर्ण का होगा, इसका वर्गीकरण करना असम्भव नही तो कठिन व जटिल अवश्य है। एक व्यक्ति एक साथ नाना प्रकार के कार्य भी करता है और जीवन में समय-समय पर अपने कार्य बदलता भी रहता है। अतः आज की परिस्थितियों में वैदिक वर्ण व्यवस्था को लागू नहीं किया जा सकता, ऐसा लगता है। यह भी तथ्य है कि बिना वैदिक वर्ण व्यवस्था की स्थापना के देश व संसार का अधिकांश कार्य सुचारु रूप से चल रहा है। हां, वर्तमान व्यवस्था में मनुष्य अपने योग-क्षेम अथवा अभ्युदय व निःश्रेयस से कोसों दूर है। महर्षि दयानन्द एक पौराणिक जन्मना ब्राह्मण परिवार से आये थे। वह गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार सच्चे ब्राह्मण थे परन्तु उनका यह वर्ण कहीं निश्चित नहीं किया गया था। वह योग-क्षेम और मोक्ष के पात्र बने। उनके अनुयायी अनेक वर्णों से थे जिन्होंने वेदाध्ययन किया और वेद प्रचार व समाज सुधार आदि के कार्यों सहित पंचमहायज्ञों को भी पूरी निष्ठा से करते थे। उनका भी कहीं कोई वर्ण निर्धारित नहीं किया गया। वह सभी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के अधिकारी बने। महर्षि दयानन्द ने वेदाध्ययन सहित सन्ध्या व यज्ञ करने, जो कि वर्णव्यवस्था में केवल द्विज ही कर सकते हैं, का सबको अधिकार दिया है तथा आर्यसमाज में सभी न्यूनाधिक करते भी हैं जिससे सभी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। उन्होंने समर्पण मन्त्र लिखकर सभी सन्ध्या करने वालों को मोक्ष का अधिकरी बना दिया है। ईश्वर को भी यह स्वीकार है, ऐसा प्रतीत होता है। मनुष्य जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने में वर्ण बाधक नहीं बन रहे हैं। अतः हमें लगता है कि आज के समय में सब मनुष्य एक ही वर्ण ‘मनुष्य वर्ण’ के ही हैं, भले ही वह अपने विषय में कुछ भी मानते व कहते हों। सबको मनुष्य मानकर और वैदिक कर्मकाण्ड व परम्पराओं आदि का पालन कर कोई भी मनुष्य अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति कर सकता है। योगाभ्यास कर समाधि अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर साक्षात्कार भी कर सकता है। इसमें कहीं कोई बाधा नहीं है। अतः आज बिना वर्णव्यवस्था के समाज के सभी काम किये जाना सम्भव है। यह भी वर्णन कर दें कि महर्षि दयानन्द ने एक स्थान पर वर्ण व्यवस्था के स्वरूप से खिन्न होकर इसे ‘‘मरण व्यवस्था” लिखा है। वह भी यह स्वीकार करते हुए प्रतीत होते हैं कि उन्हें लगता था कि वैदिक वर्ण व्यवस्था को प्रचलित करना सरल नहीं है।

 

इस आधार पर हमें लगता है कि यद्यपि वैदिक वर्णव्यवस्था सिद्धान्त रूप में सत्य, निर्विवाद एवं सर्वोपरि सामाजिक व्यवस्था है परन्तु आज वह व्यावहारिक नहीं है। भविष्य के प्रति कुछ कहा नहीं जा सकता परन्तु आज जैसी परिस्थितियां हैं, उससे नहीं लगता कि भविष्य में कभी वैदिक वर्णव्यवस्था वह स्थान ले सकेगी जैसा कि जन्मना वर्ण व्यवस्था के अस्तित्व व प्रचलन में आने से पूर्व वैदिक वर्ण व्यवस्था का था। जो भी हो, हम एक साधारण पाठक व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने वाले व्यक्ति हैं तथा हमारा इस विषय में कोई पूर्वाग्रह नहीं है। आर्य समाज के विद्वानों से अनुरोध है कि वह इस विषय में अपने विचार देकर हमें कृतार्थ करें। हम उनके आभारी होगें।

1 COMMENT

  1. आपके इस आलेख केअनुसार शुद्र भी अपने गुणों के आधार पर ब्राह्मण हो सकता था,पर मैं इसे नहीं मानता.वेदों में वर्ण व्यव्श्था में ब्राह्मण ,क्षत्रिय और वैश्य तो आर्य थे,पर शुद्र अनार्य थे,अतः यह बदलाव केवल ऊपर वाले तीनों के लिए ही संभव था,शूद्रों के लिए नहीं.तीनों को कभी अछूत नहीं माना गया.पर शुद्र हमेशा अछूत रहे.मैं गलत भी हो सकता हूँ,पर मुझे गलत सिद्ध करने के लिए , मेरा निवेदन है कि आप प्रमाण दें.

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