क्या एफडीआई के भरोसे भाजपा चलाएगी देश ?

डॉ. मयंक चतुर्वेदी

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को इन दिनों जिस तरह केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार हवा दे रही है, उसने देश की आम जनता के मन में आज अनेक प्रश्न खड़े कर दिए हैं। आखि‍र हर चीज के लिए एफडीआई का भारत में प्रवेश कराना कितना और किस सीमा तक औचित्यपूर्ण है, यह बात जरूर गंभीरता पूर्वक सरकार और उसके सिपहसालारों को सोचना चाहिए था, किंतु केंद्र सरकार की अभी तक इस मुद्दे को लेकर की गई तैयारियों से तो यही लग रहा है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर मोदी सरकार पूर्व सरकारों की तुलना में सभी हदें पार कर लेना चाहती है। सरकार की हड़बड़ाहट बता रही है कि वह किसी दवाब में है।

केंद्र की नीयत को देखकर लग रहा है कि सरकार पूरी तरह देश को बाजारी ताकतों के भरोसे छोड़ देना चाहती है। किंतु इसके परिणाम दूरगामी कितने भयावह होंगे, यह वह समझना नहीं चाहती। एफडीआई पर सरकार की नीयत को लेकर आश्चर्य इस बात पर भी होता है कि जब भाजपा संसद में विपक्ष में बैठती थी तब वह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विरोध में मुखरता से अपना पक्ष रखती रही है किंतु सरकार में आने के बाद सबसे तेज एफडीआई की पैरवी वही करती नजर आती है।

देश में रिटेल, रक्षा, दूरसंचार, वाहन, मीडिया और तमाम क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी पहले ही मिल चुकी है, लेकिन बीमा जैसे कई क्षेत्र ऐसे हैं जो विदेशी पूंजी के अधि‍क प्रवाह के चंगुल से अभी भी बचे हुए हैं। भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को कांगेसनीत मनमोहन सरकार ने बढ़ावा देते हुए मल्टी ब्रांड रिटेल क्षेत्र में 51, एकल ब्रांड में सौ, देसी एयरलाइंस कंपनियों में 49, ब्रॉडकास्ट मीडिया क्षेत्र में 74 फीसदी तक अनुमति दे दी थी। तात्कालिन समय में सबसे ज्यादा भाजपा शासित राज्यों में एफडीआई को लेकर केंद्र सरकार का विरोध हुआ था। लेकिन वर्तमान हालात बदल चुके हैं केंद्र की सत्ता में भाजपा है, इसीलिए हो सकता है कि भाजपा शासित राज्यों की अब प्राथमिताएं बदल गयी हों। किंतु भाजपा को भी यह समझना चाहिए कि केंद्र में आज वह जिन स्वयंसेवी संगठनों के भरोसे सत्ता तक पहुंची है वे भी मानते हैं कि विकास के लिए यदि एफडीआई बहुत जरूरी ही है तो उसकी भारत में एक सीमित और निश्चित सीमा होनी चाहिए। भारतीय बाजार को पूरी तरह विदेशी धन और शक्तियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, नहीं तो दूरगामी परिणाम देश के लिए अहितकर होंगे।

अब ज्यादा चिंता इस बात की है कि सरकार बीमा सेक्टर में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाना चाहती है। वह बीमा संशोधन विधेयक-2008 के पारित हो जाने पर घरेलू बीमा कंपनियों में एफडीआई की मौजूदा सीमा 26 फीसद से बढ़कर 49 फीसद तक करने में लगी हुई है। अभी इस बीमा विधेयक को लेकर वाम दल, सपा, जदयू और तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं, शिवसेना ने भी मुखरता के साथ विधेयक का विरोध करने का फैसला लिया है। संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू सभी विपक्षी दलों से आग्रह कर रहे हैं कि वे राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए बीमा कानून (संशोधन) विधेयक, 2008 को पारित करवाने में सरकार की मदद करें। ऐसे में उनसे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि इसमें राष्ट्रहित कौन सा है ? यदि इसमें राष्ट्रहित है तो क्यों देश में बीमा क्षेत्र से जुड़े सभी श्रमिक संगठन इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। भाजपा से संबंधित भारतीय मजदूर संघ तथा यहां तक कि भाजपा का मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके समर्थन में अभी तक खुलकर क्यों नहीं आ रहा है ?

भाजपा को आज समझना होगा कि दुनिया भर में निजी बीमा कंपनियों ने कई तरह के घोटाले किए हैं। अगर उन्हें भारत में भी व्यापक पैमाने पर अपने पैर फैलाने की इजाजत दी जाती है तो यह भारत की जनता के खिलाफ होगा। वहीं इससे देश के वित्तीय क्षेत्र को गहरा आघात लगना तय है। नायडू का यह तर्क भी वाजिब नहीं लग रहा है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाना काफी जरूरी हो गया है। इससे बीमा क्षेत्र में नया निवेश आएगा जो बीमा का प्रसार बढ़ाने और ज्यादा लोगों को बीमा कवरेज देने के लिए जरूरी है। क्यों कि अभी जो भारत में बीमा कंपनियां रिक्स कवर कर रही हैं वह कुछ बुरा नहीं है।

 वस्तुत: सरकार को देश के विकास के लिए धन की जरूरत है तो उसे अन्य वैकल्पिक स्त्रोत तलाशने चाहिए।  यह सर्वविदित है कि यदि भारत में काले धन पर लगाम लग जाए, देश से जो रोज हवाला के जरिए अरबों की संपत्ति विदेशों में चली जाती है, भारत सरकार उसे रोकने में सफल हो जाए और देश में जो कर सिस्टम है उसे सरकार पूरी तरह सुधार ले तो देश में विकास के लिए किसी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से आने वाले धन की कोई जरूरत नहीं होगी। वैसे भी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में एक आशा की किरण जगी है कि कल का भारत अपने स्वाभि‍मान और पुरूषार्थ से दुनिया के मानचित्र पर छा जाएगा। किंतु यदि केंद्र सरकार एफडीआई या अन्य बहाने से विदेशों पर आश्रित रही हो यही कहना होगा कि भविष्य का भारतीय चित्र देशहित में तो कदापि नहीं होगा। जिसके लिए संपूर्ण अपयश के भागीदार निश्चित ही भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे।

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मयंक चतुर्वेदी
मयंक चतुर्वेदी मूलत: ग्वालियर, म.प्र. में जन्में ओर वहीं से इन्होंने पत्रकारिता की विधिवत शुरूआत दैनिक जागरण से की। 11 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय मयंक चतुर्वेदी ने जीवाजी विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के साथ हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर, एम.फिल तथा पी-एच.डी. तक अध्ययन किया है। कुछ समय शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विषय के सहायक प्राध्यापक भी रहे, साथ ही सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों को भी मार्गदर्शन प्रदान किया। राष्ट्रवादी सोच रखने वाले मयंक चतुर्वेदी पांचजन्य जैसे राष्ट्रीय साप्ताहिक, दैनिक स्वदेश से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर लिखना ही इनकी फितरत है। सम्प्रति : मयंक चतुर्वेदी हिन्दुस्थान समाचार, बहुभाषी न्यूज एजेंसी के मध्यप्रदेश ब्यूरो प्रमुख हैं।

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